पैंक्रियाटिक कैंसर: उपचार के लिए एक आशा की किरण

                                                पैंक्रियाटिक कैंसर: उपचार के लिए एक आशा की किरण

                                                    

    अग्नाशय के कैंसर से पीड़ितों के जीवित बचने से सम्बन्धित आकड़ों में सार्थक बदलाव कर सकते हैं नए अध्ययन।

    मानव के अग्नाशय (पैन्क्रियाज) के कैंसर पीड़ितों के उपचार हेतु आई एक नई वैक्सीन के अध्ययन से प्राप्त परिणामों से इन पीड़ितों के लिए आशा की एक किरण बनकर सामने आए हैं। शोधकर्ता ज्ञात करने का प्रयास कर रहे हैं कि कैंसर की कोशिकाओं को प्रतिरक्षा कोशिकाओं के माध्यम से किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है। निश्चित् रूप से इनमें अधिक विध्वंसक पैन्क्रियाज कैंसर की कोशिकाओं को भी शामिल किया जायेगा।

    पैन्क्रियाज/अग्नाशय कैंसर के उपचार की दिशा में घटित होने वाली कोई भी प्रगति सराहनीय है, परन्तु इस वैक्सीन के बाजार में आने से पूर्व इसका अभी विभिन्न मानकों की कसौटी पर कसा जाना बाकी है। बावजूद इसके अभी तक पैन्क्रियाटिक कैंसर रोगियों का एक बहुत ही छोटा वर्ग ही इससे लाभान्वित हो सकेगा।

    असल में यह नया अध्ययन पैन्क्रियाटिक कैंसर की कोशिकाओं को टारगेट करने का विशेष सबक देता है। इसके साथ ही यह अवगत कराता है कि कैंसर के विभिन्न प्रकारों के विरूद्व कार्य करने में हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का उपयोग करना किस हद तक प्रभावी सिद्व हो सकेगा।

    कैंसर विशेषज्ञों के द्वारा किए गए इस अध्ययन के दौरान 16 रोगियों को कीमो थैरेपी के साथ ही यह वैक्सीन भी लगाई गई थी, जिसके बाद सामने आया कि उनमें से लगभग आधे रोगियों का प्रतिरक्षा तन्त्र सक्रिय हुआ और इसके 18 महीनों के बाद इन रोगियों में इस बीमारी के लक्षण दोबारा से दिखाई नही दिए।

                                                           

    इसी प्रकार से अन्य प्रकार के कैंसरों में इस रोग की शीघ्र ही पहचान, उनकी जीवनशैली में सुधार एवं बेहतर उपचार की सहायता से रोगियों का अधिक जी पाना भी सम्भव है, परन्तु, पैन्क्रियाटिक कैंसर रोगियों में रोग की पहचान होने के बाद इनके पाँच वर्ष या उससे अधिक समय तक जीवित रह पाने की दर केवल 12 प्रतिशत ही है।

    अमेरिका के मेमोरियल स्लोअन केटरिंग कैंसर रिसर्च सेन्टर के इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले पैन्क्रियाटिक कैंसर सर्जन विनोद पी0 बालचंद्रन के अनुसार, इस वैक्सीन से पैन्क्रियाटिक कैंसर के मरीजों का प्रतिरक्षा तन्त्र सुदृढ़ होता है, जबकि पैन्क्रियाटिक कैंसर के म्यूटेशन्स भी कम हुए हैं, जिससे व्यक्तिगत कैंसर वैक्सीन के व्यापक रूप से उपयोगी सिद्व होने के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं।

    हालांकि, यहाँ यह बताना भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि शोधकर्ताओं को बायोप्सी के विशलेषण के दौरान पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नही हो पाती है। अतः उक्त वैक्सीन केवल ऐसे रोगियों के लिए ही बनाई जा सकती है, जो कैंसर से छुटकारा पाने के लिए सर्जरी करा सकते हैं।

    पैन्क्रियाटिक कैंसर से पीड़ित ऐसे मरीज 20 प्रतिशत से अधिक नही है और ये वे ही लोग हैं, जिनके पास वैक्सीन के प्रति प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। शोधकर्ता दशकों पूर्व से ही कैंसर की गम्भीर अवस्था में पहुँच चुके रोगियों पर किसी उपचारात्मक वैक्सीन का उपयोग करना चाह रहे थे।

    चूँकि इस स्थिति में, विशेष रूप से पैन्क्रियाटिक कैंसर के रोगियों को अन्य प्रकार की विभिन्न बीमारियाँ घेर चुकी होती हैं, जिससे उनका प्रतिरक्षा तन्त्र भी कमजोर पड़ चुका होता है।

    एमडी एंडरसन, ह्मूसटन में पैन्क्रियाटिक कैंसर विशेषज्ञ अनिर्यन मैइत्रा बताते हैं कि मरीजों की इस स्थिति में टी कोशिकाओं में केवल एक वैक्सीन के माध्यम से जान फूंकने का प्रयास करना व्यर्थ है। परन्तु सर्जरी के बाद मानव की प्रतिरक्षा प्रणाली इन दुश्मनों से लड पाने में सक्षम हो जाती है।

    शोधकर्ताओं के द्वारा बताया गया कि वैक्सीन लगाने के बाद एक मरीज के लीवर में जख्म हो जाने का सन्देह था जिसके चलते यह आशंका थी कि यह रोग अब पूरी तरह से फैल चुका था। लेकिन उस मरीज की जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि वैक्सीन प्रशिक्षित प्रतिरक्षा कोशिकाएं उस स्थान पर एकत्र हो चुकी थी और इसके बाद वह जख्म पूरी तरह से गायब हो चुका था। डॉ0 मैइत्रा कहते हैं कि इस वैक्सीन से ठीक इसी प्रकार से काम करने की अपेक्षाएं की जाती हैं।

                                                          

    उससे अगले सप्ताह ही किए गए एक नये अध्ययन के माध्यम से ज्ञात हुआ कि शोधकर्ताओं ने डेनमार्क एवं अमेरिका के लाखों रागियों के रिकार्ड्स का विश्लेषण करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की सहायता ली। विश्लेषित किए गए कुल मरीजों में से लगभग 28,000 मरीज पैन्क्रियाटिक कैंसर से पीड़ित थे।

    इस सब में गौर करने के पश्चात् पाया गया कि इन लोगों में कुछ लक्षण इस प्रकार के थे कि उनमें वास्तविक रोग की पहचान से साल भर पूर्व ही इस बीमारी के फैलने से पहले ही उन्हें इसके लिए सर्जरी एवं उपचार आदि उपलब्ध कराए जा सकते थे, जिससे उनका ही तरीके से उपचार कर उनकी जान बचाई जा सकती थी।

    हालांकि, इन अध्ययनों पर र्वििभन्न प्रकार की आपत्तियाँ भी जतायी जा चुकी हैं, परन्तु अन्ततः इस दौरान उम्मीद की एक ऐसी किरण नजर आई है जो कि पैन्क्रियाटिक कैंसर के रोगियों के सम्बन्ध में कमजोर आँकड़ों में कोई सार्थक परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकती है।    

                                                          भारत में बच्चों की डायबिटीज के कारण मौतें अधिक

                                                        

एक अध्ययन में हुआ खुलासा, 10-14 वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चे सर्वाधिक प्रभावित

‘‘एक से चार वर्ष के बच्चों में सबसे कम डायबिटीज के मामलों में सबे धिक 52.6 प्रतिशत की वृद्वि 0 से 1 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों में दर्ज की गई है। जबकि सबसे कम 30.52 प्रतिशत की वृद्वि एक से चार वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में दर्ज की गई। भारत में डायबिटीज की दर वर्ष 1990 में 10.92 और वर्ष 2019 में 11.68 थी जो अन्य देशों की अपेा सवा्रधिक थी।’’

भारत में वर्ष 1990 से 2019 के दौरान बच्चों के मामले में सबसे अधिक डायबिटीज के केस एव मौतें देखनें में आई हैं। उक्त तथ्य जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन नेटवर्क के द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आया है। प्रकाशित अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर वर्ष 2019 में बच्चों में डायबिटीज के 2,27,580 मामले पाये गये, जिनमें से 5,390 की मौत हो गई तथा वर्ष 1990 के बाद ऐसे मामलों में 39.4्र प्रतिशत की दर से वृद्वि दर्ज की गई।

                                                               

विशेषज्ञों ने भारत के सहित 204 देशों और क्षेत्रों में ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी), 2019 के डेटा का उपयोग कर वर्ष 1990 से 2019 तक बच्चों में डायबिटीज के केस एवं इनसे जुड़ी मृत्यु दर और इसके ही चलते आई विकलाँगता के रूझानों का विश्लेषण किया तथा किए गए विश्लेषण में 14,49,897 बच्चों को शामिल किया गया। इन बच्चों में 7,38,923 लड़के एवं 7,10,984 लड़कियाँ शामिल थी।

                                                                        

इन बच्चो को सामाजिक आर्थिक सूचकांक (एसडीआई) पर स्कोर के आधार पर वर्गीकृत किया गया जो 1 से 0 तक होता है। इन्हें निम्न, निम्न मध्यम, मध्यम, उच्च मध्यम तथा उच्च वर्ग में विभक्त किया गया।

वैश्विक स्तर पर मृत्यु दर कम हुई, जबकि भारत में मृत्यु दर बढ़ी

    अमेरिका के रोग नियन्त्रण एवं रोकथाम केन्द्र के अनुसार, डायबिटीज के प्रसार से यह स्पष्ट है कि किसी आबादी में कोई बीमारी कितनी तेजी से फैलती है। इसके साथ ही डायबिटीज के चलते होने वाली मौतांे की वैश्विक संख्या वर्ष 1990 में 6,7198 से 20 प्रतिशत कम होकर वर्ष 2019 में 5,390 हो चुकी थी, जबकि भारत में इस बीमारी केे कारण होने वाली बच्चों की मौत के आँकड़ों में 1.86 प्रतिशत की वृद्वि दर्ज की गई है।

देश के शहरी क्षेत्रों में निवास करने वाले वरिष्ठ नागरिक अधिक प्रभावित

                                                               

    हाल ही में किये गये एक अध्ययन के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि 45 वर्ष की आयु से अधिक उम्र वाले भारतीयों में से 11.5 प्रतिशत लोग डायबिटीज से ग्रस्त हैं। केन्द्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2021 में 72 हजार से अधिक बुजुर्गों का सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण के अनुसार, 45 से 59 वर्ष जो कुल जनसंख्या का लगभग नौ प्रतिशत, की आयु वाले लोगों की अपेक्षा 60 वर्ष से अधिक वरिष्ठ नागरिक, जो कि कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत भाग है, में डायबिटीज के शिकार अधिक मिले हैं।