टमाटर के बहाने बाजार का न्याय

                                                                        टमाटर के बहाने बाजार का न्याय

                                                                     

टमाटर का भाव देखते हुए किसनों के चेहरे पर भी मुस्कान है, परन्तु यह तो सिर्फ एक मामला ही है। क्या बाजार की व्यवस्था में ऐसा सन्तुलन नही हो सकता कि बाजार में होने वाले लाभ का कम से कम पचास प्रतिशत भाग किसानों तक पहुँच सके? आखिर बाजार ही उपभोक्ता और उत्पादक दोनों का ही एक बड़ा हिस्सा क्यों ले जाता है।

    टमाटर उत्पादन करने वाले किसानों के चेहरे पर मुस्कुराहट कम ही दिखाई पड़ती है। यह बात मात्र एक माह पूर्व की ही है जब महाराष्ट्र के टमाटर उत्पादक किसान अपने उत्पाद को सड़कों पर फेंकने के लिए विवश थे, क्योंकि उस समय की खबरों के अनुसार टमाटर के थोक मूल्यों में दो रूपये प्रति कि.ग्रा. की गिरवाट आ गई थी।

जबकि वर्तमान में कहानी पूरी तरह से बदल चुकी है। वर्तमान में देश के विभिन्न शहरों में टमाटर के खुदरा मूल्य 100 रूपये प्रति किलोग्राम को भी पार चुके हैं, और इस सब में आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस बार किसान को अपेक्षाकृत अधिक दाम प्राप्त हो रहे हैं।

                                                                     

    हिमचाल प्रदेश से सूचना प्राप्त हुई है कि राय में टमाटर उत्पादक किसानों को अधिकतम 102 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से उसके उत्पाद की कीमत प्राप्त हो रही हैं, जो कि सेव की कीमतों से भी अधिक है। जहाँ तक पंजाब की बात है, तो यहाँ भी किसानों को उनके उत्पाद टमाटर की की कीमत 80 रूपये से 100 रूपये प्रति किलोग्राम के रूप में प्राप्त हो रही है।

जबकि शॉपिंग मॉल्स में उपभोक्ता के लिए टमाटर की कीमत 97 रूपये प्रति किलोग्राम से लेकर 137 रूपये प्रति किलोग्राम तक है। इसी बात को यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, इस मुनाफे में व्यापारियों की हिस्सेदारी में काफी कमी आई है, जिसके चलते ही किसान को मोटे तौर पर अंतिम उपभोक्ता मूल्य का 70 से 80 प्रतिशत भाग प्राप्त हो रहा है। ऐसे में लोगों का मानना तो यह है कि यही चलन समस्त सब्जियों एवं फलों के मामले भी होना चाहिए।

    भारतीय रसोई के एक महत्वपूर्ण अवयव जीरे-मसाले का थोक भाव भी बढ़ चुका है। इसमें वर्षा के चलते जीरे के उत्पादन में आई भारी गिरावट के साथ ही निर्यात के लिए माँगों में वृद्वि होने के कारण जीरे का वर्तमान थोक भाव बढ़कर 55,750 रूपये प्रति क्विंटल तक पहुँच चुका है। इसके अतिरिक्त जलवायु से सम्बन्धित अनियमितताओं के चलते इस सीजन में हिमचाल प्रदेश में सेव की वर्तमान फसल में 50 प्रतिशत तक की कमी आने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

                                                               

    ऐसा में अब यह प्रतीत होने लगा है कि जब तक बाजार में नई फसल का आगन होगा, तो उसकी कीमतों में भी अपााकृत तेजी ही रहेगी। जिसका अर्थ यह है सेव के सिानों को भी अब उनकी आशा से कहीं बेहतर कीमतें प्राप्त होने जा रही हैं। इन सब उदाहरणों से कम से कम यह तस्वीर तो किसी हद तक साफ हो चुकी है कि जब तक किसान अतिरिक्त फसल का उत्पादन करने के जुनून से बाहर नही निलते, तब तक बाजार उनके साथ न्याय नही करेगा।

    आमतौर पर फलों एवं सब्जियों के मूल्यों में बढ़ोत्तरी का लाभ किसान को नही दिया जाता है। इसके साथ ही माँग एवं आपूर्ति का समीकरण भी सदैव काम नही करता है। अधिकतर यह देखा गया है कि खुदरा व्यापार की कीमतों में हेर-फेर से ही उपभोक्ता के लिए कीमतों में अचानक बहुत तेज वृद्वि होती है। उपभोक्ताओं को जहाँ एक ओर अधिक कीमत चुकाने के लिए बाध्य किया जाता है, वहीं किसानों को भी बढ़ें मूल्यों में से कोई अतिरिक्त लाभ नही दिया जाता है।

    यदि शिमला मिर्च के उदाहरण को देखा जाए तो इससे कुछ माह पूर्व ही शिमला मिर्च के किसान अपने उत्पाद को सड़कों पर फैंकने के लिए विवश थे, क्योंकि व्यापारी किसानों को एक रूपया प्रति किलोग्राम तक भी शिमला मिर्च का भाव देने को तैयार नही हो रहे थे। जबकि शहरी उपभोक्ताओं से फेरी लगाने वाले विक्रेता शिमला मिर्च के भाव 30 रूपये प्रति किलोग्राम तक वसूल कर रहे थे।

    इसका अर्थ यह हुआ कि बाजार में बिचौलियों का कमीशन 2,900 प्रतिशत होगा, जो कि उपभोक्ता एवं किसान दोनों की शोषण है। वर्तमान में किसान प्याज को दो से तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से बेच रहे हैं जबकि खुदरा बाजार में में प्याज की कीमत 20 रूपये प्रति किलोग्राम है, जिससे साफ है कि व्यापारियों का मुनाफा 900 प्रतिशत तक था।

                                                                 

    हालांकि बाजार के जानकार इसे बाजार की चतुराई कहकर खारिज कर सकते हैं, जबकि किसानों के लिए यह एक जीवन-मरण का प्रश्न है। अब यदि उस झटके की कल्पना करे, जो किसानों की आजीविका पर हमला करता है तो उस समय ही किसान को अपने उत्पाद की लागत नहीं प्राप्त होने पर मेहनत से उपजायी गई फसल का नष्ट करने के लिए उन्हें विवश होना पड़ता है। कुछ समय पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य से सूचना प्राप्त हुई थी, जिसके अनुसार महासमुंद के एक किसान को पूरी तरह से नुकसान उठाना पड़ा था, जब उस किसान को अपनी 1,475 किलोग्राम बैंगन की फसल की बिक्री करने पर परिवहन एवं अन्य खर्चों को पूरा करने के लिए अपनी ही जेब से 121 रूपये का भुगतान करना पड़ज्ञ था।

    केवल भारत में ही नही, अपितु अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे विकसित राष्ट्रों में भी किसानों को नुकसान ही उठाना पड़ता है। अमेरिका में जहाँ अंतिम उपभोक्ता मूल्यों में से भी किसानों की हिस्सेदारी कम हुई है, वहीं ब्रिटेन में किए गए एक अध्ययन के माध्यम से ज्ञात होता है कि कृषि व्यवसाय करने वाली कम्पनियाँ, दैनिक उपभोग किये जाने वाले आधा दर्जन उत्पादों की बिक्री इसे होने वाले मुनाफे का एक प्रतिशत भाग ही मुश्किल से किसानों को देती हैं।

    इस प्रकार की विसंगतियाँ बाजार संचालन के तरीकों में, उत्पन्न खामियों का परिणाम ही थी। हालांकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आर्थिक सुधारों का बोलबाला है, परन्तु व्यापार के क्षेत्र में बहुत अधिक सुधार नही हो पाए हैं। हालांकि यह अनिवार्य है, क्योंकि कृषि की आपूर्ति श्रंखला बेहद जटिल है, जिसके अन्तर्गत अन्य भागीदार तो मुनाफा कमा ले जाते हैं, और किसान उससे अक्सर वंचित ही रह जाते हैं। उपभोक्ताओं को यह समझना चाहिए कि केवल किसान ही नही, बल्कि वे स्वयं भी इन व्यापारियों के द्वारा ठगे/लूटे जा रहे हैं। मुक्त बाजारों के भरोसे छोड़ने पर किसानों को दुनिया में कहीं भी उच्चतम आय नही प्राप्त हो पायी है। ऐसे में यदि बाजार किसानों को कोई लाभ पहुँचाता, तो ऐसा कोई कारण नही है कि अमेरिका को प्रतयेक किसान को प्रतिवर्ष 79 लाख रूपये की घरेलू सहायता प्रदान करनी पड़ती।

    इससे स्पष्ट है कि कृषि व्यापार (जिसके अन्तर्गत थोक एवं खुदरा, दोनों ही प्रकार के बाजार शामिल हैं) में तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है और यह भी सुनिशिचत् किया जाना चाहिए कि किसान को, अन्तिम उपभोक्ता मूल्य का कम से कम 50 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हो। जैसे अभी यदि टमाटर का खुदरा मूल्य 100 रूपये प्रति किलोग्राम है तो इसमें से किसानों को भी कम से कम पचास रूपये मिलने चाहिए और यदि बाजार किसान को इससे भी अधिक मूल्य प्रदान करता है तो वह स्वागत योग्य होगा।

                                                                     

    जिस प्रकार से अमूल को-ऑपरेटिव यह सुनिश्चित् करता है कि डेयरी किसानों को अंतिम उपभोक्ता मूल्य का कम से कम 80 प्रतिशत हिस्सा तो मिलना ही चाहिए, ठीक उसी प्रकार की व्यवस्था सब्जी, फल एवं अन्य कृषि बाजारों में भी किये जाने की आवश्यकता है।

    जैसी कि सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं, यदि सरकार अपने कर्मचारियों के लिए पेंशन फंड को बाजार से जोड़ने की योजना बना रही है, ताकि वह यह सुनिश्चित् कर सके कि कर्मचारी को अंतिम वेतन का कम से कम 40 प्रतिशत तक हिस्सा पेंशन के रूप में प्राप्त हो सके, तो फिर ऐसा भी कोई कारण नजर नही आता है कि आपूर्ति श्रंखला संतुलन को इस प्रकार से समायोजित करना कोई कठिन कार्य है, जिससे किसानों को भी खुदरा मूल्यों का कम से कम 50 प्रतिशत भाग प्राप्त न हो सके।

केवल सरकारी कर्मचारियों के लिए ही क्यों, किसनों के लिए भी मूल्य निर्धारण मापदण्ड़ों को तय करने की खातिर भी एक विशेषज्ञ कमेटी/समिति का गठन करने की आवश्यकता है।

प्रस्तुति प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट।