विश्वविद्यालय और समाज के बीच संवाद अति आवश्यक Publish Date : 19/01/2025
विश्वविद्यालय और समाज के बीच संवाद अति आवश्यक
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
उच्च शिक्षा पर गठित यश पाल कमेटी रिपोर्ट में भारत के 75वें वर्ष तक का एजेंडा तैयार किया गया है, जिसमें स्वाधीनता के 75वें वर्ष यानी 2022 तक 70 करोड़ ऐसे नौजवान तैयार करने का लक्ष्य रखा गया है, जिन्हें विश्व में कहीं भी रोज़गार प्राप्त हो सके। उच्च शिक्षा के आरंभिक प्रारूप में कहां चूक रह गई और यश पाल समिति रिपोर्ट उच्च शिक्षा की खामियों को किस तरह दूर करेगी और इसकी सिफारिशों के पीछे क्या विचारधारा काम कर रही है, इन सभी सवालों से जुड़े पहलुओं पर समिति के अध्यक्ष वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद प्रो. यशपाल से योजना के लिए किसान जागरण डॉट कॉम की बातचीत के अंश-
यदि आप एक छात्र हैं, शिक्षक हैं या शोधार्थी हैं और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की खामियों से नाखुश हैं, आपको कॉलेज और विश्वविद्यालय में नियम-कानूनों में बांधकर, विषयों के पिंजड़ों, में कैद कर दिया गया है, लेकिन आप सृजनात्मकता के पंख लगाकर अपने अध्ययन और शोध की गहराइयों में गोते लगाना चाहते हैं तो अब आपके सामने उम्मीद की नयी किरणें हैं। ऐसी शिक्षा की उम्मीदें जहां न कोई दीवार होगी, न बेड़ियां होंगी, आप जिस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे, आपके विचारों को दिशा मिल सकेगी। कुछ ऐसी ही उत्साहजनक सिफारिशों के साथ उच्च शिक्षा पर गठित यश पाल रिपोर्ट हाल में जारी की गई। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने रिपोर्ट की महत्वपूर्ण सिफारिशों को 100 दिनों के भीतर लागू करने की घोषणा की है, जिससे राष्ट्रीय शिक्षा समुदाय में हलचल मच गई।
इससे पूर्व सैम पित्रोदा की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय ज्ञान आयोग रिपोर्ट भी पर कुछ हलचल हुई थी, लेकिन यश पाल कमेटी रिपोर्ट का भविष्य उज्ज्वल नज़र आ रहा है क्योंकि इस रिपोर्ट में शिक्षा को आर्थिक औज़ार के स्थान पर मानवता से जोड़ा गया है और देश में उच्च शिक्षा के विभिन्न आयामों को एक मंच पर लाकर समाज से सीधे संवाद स्थापित करने की सिफारिश की गई है। स्थानीय मुद्दों, दस्तकारों के कला-कौशल और सामाजिक पहलुओं को विश्वविद्यालयों के अंदर लाने की बात की गई है।
लंबे अरसे से उच्च शिक्षा को जड़ता के बंधन से आज़ाद करा खुले सोच-विचार के उन्मुक्त मार्ग पर लाने की कोशिश की जाती रही है पर अभी सफलता हाथ नहीं लगी है। कारण चाहे नौकरशाही हो, मंत्रालयों का दखल हो या पेचीदे नियम-कानून, यश पाल समिति की सिफारिशों से उच्च शिक्षा पर एक नयी बहस छिड़ गई है। वैश्वीकरण के इस दौर में देश में उच्च शिक्षा से जुड़े हर पहलू को नये सिरे से जांचने-परखने की रफ्तार बढ़ानी होगी, तभी हम दुनिया के साथ अपनी विज्ञान की तरक्की का मुकाबला कर पाएंगे।
उच्च शिक्षा को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर उनके बीच दीवारें खड़ी की गईं, अलग-अलग विभागों के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान पर रोक लगा दी गई और कई शैक्षिक संस्थानों, आयोगों, परिषदों के जरिये उच्च शिक्षा के विभाजन को और मज़बूती दी गई, ऐसा ही कुछ निकलकर आया है। यश पाल कमेटी रिपोर्ट में, जिसमें देश के 13 नियामक संस्थानों को मिलाकर, चुनाव आयोग की तरह एक राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान आयोग बनाने की बात की गई है। यहां यह भी देखना होगा कि क्या यह आयोग जड़ता और गैर-जवाबदेही जैसी समस्याओं से उच्च शिक्षा को निजात दिला पाएगा।
इस रिपोर्ट में भारत के 75वें वर्ष तक का एजेंडा तैयार किया गया है, जिसमें स्वाधीनता के 75वें वर्ष यानी 2022 तक 70 करोड़ ऐसे नौजवान तैयार करने का लक्ष्य रखा गया है, जिन्हें विश्व में कहीं भी रोजगार मिल सके। इनमें 20 करोड़ युवा विश्वविद्यालयों के स्नातक होंगे और 50 करोड़ युवा किसी हुनर-कला कौशल में माहिर होंगे। प्रधानमंत्री भारत को ज्ञान की भूमि बनाने की दिशा में प्रयासरत है। उच्च शिक्षा में नामांकन के मौजूदा दस फीसदी को ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) तक पंद्रह फीसदी और 2017 में बारहवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक इक्कीस फीसदी बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया हैं।
इस पृष्ठभूमि में उच्च शिक्षा के आरंभिक भामिति में कहां चूक रह गई और यश पाल समिति रिपोर्ट उच्च शिक्षा की खामियों को किस तरह दूर करेगी और इसकी सिफारिशों के पीछे क्या विचारधारा काम कर रही है, इन सभी सवालों से जुड़े पहलुओं पर समिति के अध्यक्ष वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद प्रो. यश पाल से योजना के लिए किसान जागरण की टीम ने बात की। प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंशः
प्रश्नः आज आजादी के 75 वर्षों के बाद भी उच्च शिक्षा में दिक्कतें हल नहीं हो पाईं हैं, आखिर आरंभ में कहां चूक हुई?
उत्तरः देखिए, उच्च शिक्षा में काफी गड़बड़ी है, इस पर कई वर्षों से बात चल रही है। इस पर भी बहस चलती रही है कि उच्च शिक्षा को चलाने के लिए कौन-सी संस्थाएं हैं और उनमें क्या बदलाव आवश्यक हैं। हमारी सोच शुरू से ऐसी बनी, हमसे पहले तो कहा गया था कि एआईसीटीई में सुधार करो। इस पर शुरू में ही मैंने कहा था कि यह तो बाबू वाला काम लगता है कि हम कहें कि इतने सदस्य बढ़ा दो या कम कर दो या ये कार्यक्रम शुरू करो या बंद करो। पहले हमें यह सोचना होगा कि विश्वविद्यालय या यूनिवर्सिटी क्या होनी चाहिए। हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमने देश के विश्वविद्यालयों में ही नहीं, कॉलेजों में भी ज्ञान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं और हमेशा यह देखा गया है कि जब भी कोई नयी बात या नयी सोच निकली है, विज्ञान में हो या समाजशास्त्र में, कहीं भी हो, वह सोच वहां से निकली है जहां पर दो टुकड़ों की दीवारें मिलती हैं।
यानी ज्ञान की दो विशिष्ट शाखाओं की दीवारें मिलती हैं। तो हमने नयी शाखाएं बनाना भी भुला दिया है। अगर आप इसका एक उदाहरण लीजिए कि अलग-अलग विषयों की शाखाओं में अगर थोड़ी-सी भी दीवार चाहिए तो वह इस तरह की होनी चाहिए जैसे जैविक कोशिका की दीवार होती है। अगर दीवार न हो तो कोशिका अंदर कोई काम न करे। अगर दीवार मोटी बनी हो और उसका बाहर से कोई रिश्ता न हो तो कोशिका मर जाएगी। कोशिका तो तभी काम करेगी जब उसको अंदर काम करने का वक्त मिले और बाहर से भी आदान-प्रदान हो। तब कोशिका फलती-फूलती है और उसकी जिंदगी बनती है। ज्ञान के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। इस प्रकार का विभाजन होना चाहिए कि विषय में थोड़ा विभाजन हो और विषयों को ऐसा न बना दीजिए कि एक-दूसरे से बिल्कुल अलग होकर रह जाएं। यही करने की कोशिश हमने की और इससे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय सभी जगह गड़बड़ हुई।
प्रश्नः उच्च शिक्षा में विभिन्न विषयों के बीच विभाजन किए गए उसमें कुछ जड़ता भी आ गई है, लेकिन फिर भी सारे विभाग अपने-अपने विषयों पर काम कर रहे हैं। ऐसे में विश्वविद्यालयों का गठन किस तरह से किया जाना चाहिए कि उनमें शिक्षा के विभाजन से बचा जा सके?
उत्तरः यह जड़ता हमारी जाति प्रथा से आई या पता नहीं कहां से आई, हमें लगा कि इतने अलग-अलग विषय हैं, इन्हें पढ़ाने वाले भी अलग हैं, फिर हमने कहा इनको सहायता देने वाली जो संस्थाए हैं, वे सभी अलग हो जाएं। हमने मेडिकल संस्थान अलग बना दिए, इंजीनियरिंग और एग्रीकल्चर अलग बना दिए, भाषा अलग कर दी, इस तरह से हमने छोटे छोटे कैदखाने बना दिए और इनका आपस में मिलजुलकर कोई नयी चीज़ बनाना कठिन कर दिया। फिर भी बहुत कुछ बना, जो काम करने वाले होते हैं वे सब कुछ कर जाते हैं। पर आमतौर पर लोगों के लिए यह मुश्किल हो गया। तो इन चीजों का ध्यान रखने के लिए हमारे देश में पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) बनाया गया और कुछ 20-25 विश्वविद्यालय भी बने। लगता था सब ठीक है काम चलेगा। फिर मेडिकल काउंसिल अलग हो गई। बाद में सोचा गया कि तकनीकी के लिए अलग संस्था होनी चाहिए तो हमने एआईसीटीई बना दी।
अब एआईसीटीई में आकिटेक्टचर होगा पर कला या सौंदर्य शास्त्र उसमें नहीं होगा और विज्ञान यूजीसी देखेगी। तो हमने चीज़ों को आपस में मिलने से रोक दिया। आपस में झगड़े करवा दिए कि लोग एक साथ काम न कर सकें। एक तरह का प्रशासनिक रूप प्रदान कर दिया तो यह कोशिश की गई कि इसे कैसे दूर किया जाए। सबसे पहले तो यह है कि आप यह मानकर चलें कि अगर विश्वविद्यालय बनाते हैं तो विश्वविद्यालयों को ऐसे मत समझिए कि वे वर्कमैन हैं, जिनको हमेशा नियंत्रित करना है।
विश्वविद्यालय वह जगह है जहां नया ज्ञान पैदा होता है, बहुत सोचने वाले होते हैं। विश्वविद्यालय को आजादी चाहिए, सोच में, विचार में आज़ादी। क्या बनाना है, कितना बनाना है और विश्वविद्यालय के अंदर भी यह स्वायत्तता शिक्षकों तक जानी चाहिए। विश्वविद्यालय के अंदर के तंत्र भी इस प्रकार के होने चाहिए। नये पाठ्यक्रमों का निर्माण विश्वविद्यालय में होना चाहिए, यह नहीं कि यूजीसी के सदस्य यह निर्णय लें कि यह होगा और यह नहीं होगा। विश्वविद्यालय को अपने पाठ्यक्रम बनाने का हक है और वह औरों से अलग भी हो सकते हैं। जब हम करिकुलम की बात करते हैं तो वह एक रहना चाहिए, पाठ्यक्रम अलग हो सकता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
प्रश्नः आपने अपनी रिपोर्ट में उच्च शिक्षा के विभिन्न निकायों को मिलाकर एक राष्ट्रीय आयोग बनाने की सिफारिश की है, इसमें क्या खास होगा और यह वर्तमान शिक्षा के निकायों से किस तरह बेहतर होगा?
उत्तरः हमने एक राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान आयोग बनाने का सुझाव दिया है, जो एक नयी चीज़ होगी। इस आयोग में अलग-अलग काम होंगे, जैसे मान्यता के लिए, जो विश्वविद्यालयों के गठन पर ध्यान देगा, आदि। लेकिन त्वरित नियंत्रण करने के लिए यह नहीं होगा। यह आयोग ज़ार नहीं है जो केवल हुक्म दे! वास्तव में यह एक फ्रेमवर्क बनाएगा, जिसमें लोगों को काम करने दिया। जाएगा। इस तरह के आयोग के गठन बारे में हमने अपनी रिपोर्ट में कहा है। फिर एक और बात है कि जो संस्थाएं पहले हम बनाते हैं, चाहें वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) में हैं या राज्य के शिक्षा विभाग में, स्वास्थ्य मंत्रालय अथवा कृषि मंत्रालय में हैं, हर जगह मंत्रालय या विभागों का हस्तक्षेप होता है। वहां निम्न पद के लोग भी यह समझते हैं कि वे संस्थाओं में कोई भी काम करा सकते हैं। बड़ी चिपचिपाहट आ गई है, चिट्ठियों के जवाब नहीं आते हैं, आते हैं तो बड़ी मुद्दत के बाद, तब तक काम भी हो चुका होता है। यदि नहीं होता है तो फिर भ्रष्टाचार होता है।
इसे देखते हुए मैंने कहा कि यह संस्था ऐसी हो कि किसी सरकारी विभाग के अधीन काम न करे। यह एक राष्ट्रीय आयोग हो, जो कि किसी विभाग के नीचे न हो, तो इसको बनाने के लिए हमने एक संवैधानिक प्रस्ताव दिया है। इसको संविधान के अंतर्गत इस तरह बनाया जाए जैसे कि चुनाव आयोग बना है, जिसकी वित्त व्यवस्था सीधे वित्तमंत्री के द्वारा हो। तब इसे कोई भी सरकारी विभाग अपने अधिकार में नहीं रख सकेगा। हमने कहा है कि आयोग में आवश्यकता के अनुसार सदस्य होंगे और आयोग एक रिसोर्स समिति के द्वारा नियुक्त किया जाएगा, जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे। इस प्रकार से हमने इसे राजनीतिक व नौकरशाहों के हस्तक्षेप से बचाना चाहा है।
प्रश्नः आपने डीम्ड विश्वविद्यालयों की खिलाफत की है। आपकी समिति इन विश्वविद्यालयों से क्या अपेक्षा करती है?
उत्तरः यह विचार बहुत साल पहले उठा था। कई संस्थाएं हैं जिन्हें लोग अपने पैसे खर्च कर के बनाते हैं, बहुत उम्दा बन जाती हैं, कई विषयों में अच्छे काम करती हैं पर साथ ही डीम्ड विश्वविद्यालय की मुश्किल यह हो गई है कि वे बच्चों को पढ़ा नहीं सकते, डिग्री नहीं दे सकते। वे अपने काम में लगे रहते हैं। डीम्ड विश्वविद्यालयों को आगे बढ़ाने की जरूरत है, ताकि शिक्षा पद्धति को उसका फायदा मिले। तो बहुत सारी डीम्ड यूनीवर्सिटी बनी, और पिछले कुछ सालों में डीम्ड विश्वविद्यालयों के खुलने का सिलसिला तेज़ हो गया। कुछ साजोसामान इकट्ठा कर के डीम्ड विश्वविद्यालय खोलने के दावे किए जाने लगे, फिर उसमें धांधली शुरू हो गई। इन कारणों से पुनः इनकी जांच की जा रही है।
इसमें हमने यह कहा है कि डीम्ड विश्वविद्यालय बनाने पर रोक लगा दी जाए और इनकी जांच की जाए कि ये विश्वविद्यालय स्तर के हैं या नहीं। जो संस्थाएं स्वयं को विश्वविद्यालय कहती हैं उन्हें बहुशाखाओं वाला होना चाहिए, केवल एक शाखा से विश्वविद्यालय नहीं बनते। इस प्रकार तीन साल तक उनको मौका दिया जाएगा, उसके बाद वे जारी रहेंगे या बंद होंगे।
यश पाल समिति रिपोर्ट: मुख्य तथ्य
- 28 फरवरी, 2008 को तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने प्रो. यश पाल की अध्यक्षता में 24 सदस्यीय उच्च समीक्षा समिति का गठन किया।
- यश पाल समिति की 67 पृष्ठों की रिपोर्ट में 19 सिफारिशें हैं, जिन्हें केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा 100 दिनों के भीतर लागू करने की बात की गई है।
- रिपोर्ट में यूजीसी, एआईसीटीई और एमसीआई जैसी 13 नियामक संस्थाओं को समाप्त कर चुनाव आयोग की तरह एक सर्व समाहित राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान आयोग (एनसीएचईआर) के गठन का सुझाव दिया गया है। इसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी।
- इसमें डीम्ड विश्वविद्यालयों की बेतहाशा बढ़ोतरी पर एतराज किया गया है और एनसीएचईआर द्वारा इन विश्वविद्यालयों के प्रारूप की समीक्षा किए जाने तक नये डिम्ड विश्वविद्यालयों की स्थापना पर रोक का सुझाव दिया गया है।
- यश पाल समिति रिपोर्ट में देश के उत्कृष्ट 1,500 कॉलेजों का दर्जा बढ़ाकर उन्हें विश्वविद्यालय बनाने का सुझाव, ताकि हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन हो सके।
- देश में सभी विश्वविद्यालयों में समान परीक्षा प्रणाली लागू करने के मद्देनज़र जीआरई की तर्ज पर एक राष्ट्रीय परीक्षा आयोजन का आरंभ करने का प्रस्ताव रखा गया है जोकि पूरे देश में साल में कई बार प्रवेश परीक्षा संचालित करेगा एवं विद्यार्थी हर बार परीक्षा दे सकेंगे।
- शैक्षणिक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को नौकरशाहों के नियंत्रणसे मुक्त कर अकादमिक स्वायत्तता और जवाबदेही विकसित करने के लिए मौका दिया जाएगा। विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन को परखने के लिए ऊंची और कड़ी कसौटियां बनाई जाएंगी।
- इसमें अकादमिक शोध और खुले सोच-विचार को बेवजह के नियम-कायदों के जाल से बाहर निकालने पर बल दिया गया है।
- बाहर के निकृष्ट संस्थानों के स्थान पर उत्कृष्ट विश्वविद्यालय और उनके शिक्षाविदों को भारत लाने पर बल, जिससे यहां के शैक्षिक स्तर को ऊंचा करने में मदद मिलेगी।
- ज्ञान के सहज प्रवाह को अवरुद्ध करने के लिए जो अवधारणाओं की दीवारें खड़ी की गई हैं, उन्हें यश पाल समिति की रिपोर्ट में दूर किया गया है। जैसे शिक्षण और अनुसंधान, केंद्रीय और प्रांतीय विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेज, स्कूल और स्नातक जैसे विभाजनों पर सवाल उठाए गए हैं और उनके बीच की दीवार हटाकर निरंतरता बनाए जाने पर जोर दिया गया है।
- विश्वविद्यालयों के स्थानीय ज्ञान, दस्तकारों के हुनर और समाज से कट जाने पर निराशा व्यक्त की गई है।
- यश पाल समिति रिपोर्ट की ख़ास सिफारिश यह है कि परीक्षा केंद्रित स्नातक व स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसंधान, मौलिक लेखन व संगोष्ठियों की कमी को पूरा किया जाए। इसके साथ ही छात्रों को विषयों के पिंजड़ों से अपनी पसंद के पाठ्यक्रम चुनने का अवसर दिया जाए। जैसे कि यदि इतिहास का कोई विद्यार्थी जीवन का अध्ययन करना चाहता है तो उसे मानव विज्ञान के पर्चे के पाठ्यक्रम को पढ़ने की अनुमति क्यों न दे दी जाए?
प्रश्नः विश्वविद्यालय में शिक्षा को सृजनात्मक बनाए जाने पर जोर देने की बात भी आयोग की रिपोर्ट में शामिल है, इसके लिए आपके क्या सुझाव हैं?
उत्तरः विश्वविद्यालय का अगर ज्ञान के साथरिश्ता है तो ज्ञान बढ़ाने के सभी तरीके इस्तेमाल करने चाहिए। ये तो नहीं है कि ठीक से न पढ़ाया जाए। और यह भी कहा गया है कि शिक्षित करने का काम और अनुसंधान एक साथ नहीं होने चाहिए। साथ में यह कहा है कि जो पुराने विश्वविद्यालय हैं या नये बने हैं, वहां वरिष्ठ प्रोफेसर पहले वर्ष के बच्चों को पढ़ाएं, यह नहीं कि बच्चे छोटे हैं तो उनको कोई भी पढ़ा सकता है। सबसे अच्छा जानने वाला और पढ़ाने वाला उनको पढ़ाए ताकि वे उत्साहित हों। इस तरह के बहुत-से सुझाव हैं।
प्रश्नः देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को निमंत्रण दिए जाने संबंधी विधेयक पर चर्चा हो रही है। विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत आगमन पर आपकी टिप्पणी क्या है?
उत्तरः कौन से विदेशी विश्वविद्यालय को बुलाएं? विदेशी विश्वविद्यालय यहां आकर क्या करेंगे? वे अपने कुछ कम अनुभवी शिक्षकों को यहां भेज देंगे, उनसे ज्यादा अच्छे शिक्षक तो हमारे यहां भरे पड़े हैं। बस उनका नाम होगा कि अमुक विश्वविद्यालय से आए हैं। जो बहुत से विदेशी विश्वविद्यालय आजकल यहां आ भी रहे हैं उसमें बहुत सारे गुमनाम विदेशी विश्वविद्यालय लोग चुन-चुन कर बुला रहे हैं, जिनको कोई जानता नहीं, उनके मुल्क के लोग भी नहीं। यह एक तरह का विज्ञापनों का खेल है। कोई गहराई नहीं है इसमें। अगर आप सोच रहे हैं कि बड़े नामी विश्वविद्यालय को, कैंब्रिज आदि को कहें कि यहां आ जाओ, तो वे कैसे आएंगे। अगर उनके शिक्षक यहां आकर हिंदुस्तान में काम करना चाहते हैं, बसना चाहते हैं, तो उनको बसने दो, उनका स्वागत करो। यह ब्रेन गेन का तरीका है न कि उनके देश से जुड़ना जरूरी है। प्रश्नः बहुत से निजी विश्वविद्यालय जिन्हें राज्य से मान्यता प्राप्त है, आयोग की रिपोर्ट आने के बाद क्या इन्हें नये सिरे से मान्यता लेनी होगी?
उत्तरः इसकी सही तरह जांच करनी होगी और अगर आयोग की रिपोर्ट मानी जाएगी तो सारे विश्वविद्यालय इसी के अनुरूप मान्यता प्राप्त करेंगे। इस पर भी प्रश्न उठेगा कि राज्य विधायिका से विश्वविद्यालय मान्यता प्राप्त कर सकते हैं या नहीं!
प्रश्नः रिपोर्ट में यूजीसी के राष्ट्रीय शिक्षा आयोग में विलय की बात की गई है। आपविश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष रह चुके हैं। तब आप यूजीसी के बारे में क्या सोचते थे?
उत्तरः मैं यूजीसी में जब आया था, तो उस वक्त मेरी भी यही मुश्किल थी और आने से पहले भी यही मुश्किल थी। जिन दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुझे कहा कि आप आकर यूजीसी ज्वाइन करें। मैंने उन्हें कहा था मैं विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में काम करता हूं, क्या आपको मेरा काम पसंद नहीं है? तो उन्होंने जवाब दिया था विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में नहीं आएगी तो कैसे काम चलेगा। मैंने कहा, कैसे आएगी? विज्ञान हर जगह तो बंटा पड़ा है। कृषि विज्ञान कृषि मंत्रालय की है, इंजीनियरिंग एआईसीटीई में है, कुछ विज्ञान यूजीसी के पास है, तो विज्ञान एक कहां रही? बेहतर होगा कि इकट्ठा विज्ञान की बात सोची जा सके। तब उन्होंने क्या कहा हां! इसके लिए केवल एक कमीशन होना चाहिए, उच्च शिक्षा आयोग। अगर उच्च शिक्षा आयोग बनाएं तो आप आएंगे? मैंने कहा बनाइए और मैं एक सम्मेलन में शामिल होकर बाहर से लौटा ही था, तभी उन्होंने एक मीटिंग की, जिसमें कृषि, स्वास्थ्य और सभी विभागों के मंत्री शामिल थे और फिर कैबिनेट सचिव व अन्य सचिवों के साथ बातचीत कर कहा कि इस आयोग के गठन के लिए तैयारी कीजिए। उन्होंने राष्ट्रीय उच्च शिक्षा आयोग की घोषणा भी कर दी। फिर मुझसे कहा कि अब ज्वाइन कर लीजिए। अब मुश्किल यह थी कि मैं ना कैसे करता। मैंने यूजीसी ज्वाइन तो कर लिया पर यूजीसी में रह कर मैं उच्च शिक्षा आयोग तो नहीं बना सकता था, वो तो कहीं और बनना था। फिर मंत्रालय में एक रिपोर्ट बनाने के लिए 3-4 महीने काम चला और राजीव जी हर हफ्ते बाद मुझसे पूछते थे कि सब काम हो गया? मैंने कहा यह मेरा काम नहीं है।
तीन-चार महीने के बाद वह रिपोर्ट आई जिसमें लिखा था कि ये ये संस्थाएं हैं और एक समन्वय समिति बनानी होगी और उसका अध्यक्ष बनाया जाएगा आदि। वह उच्च शिक्षा आयोग नहीं था। उसके बाद राजीव जी अन्य कामों में व्यस्त हो गए, फिर चुनाव आ गया। मुझे वह रिपोर्ट मंजूर नहीं थी। मैंने सोचा इससे तो अच्छा है कि मैं सीधे न जुड़कर अपरोक्ष रूप से काम करूं। इसीलिए इंटरयूनीवसिटी सेंटर बनाए गए ताकि सभी कोमिलाकर काम किया जाए। जैसेकि आयुका, न्यूक्लियर साइंस सेंटर, डीएई के साथ तीन सेंटर आदि। इसका एक लंबा इतिहास रहा है।
प्रश्नः आपकी रिपोर्ट में जीआरई की तर्ज पर जो राष्ट्रीय परीक्षा योजना की बात की गई है वह विद्यार्थियों के लिए किस तरह लाभप्रद होगी?
उत्तरः राष्ट्रीय परीक्षा योजना की बात स्व. राजीव जी के दिनों से चलती आ रही है। हमने भी अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया है और उच्च शिक्षा आयोग को यह काम करना पड़ेगा। अगर परीक्षण योजना शुरू करेंगे तो उसमें पाठ्यचर्या फ्रेमवर्क की बात होनी चाहिए, सिलेबस नहीं। अगर ऐसा हो जाए कि इतने सारे बोर्ड आदि के इंतेहान लेने के बजाय एक ही तरह की परीक्षा से काम चल जाएगा। कई लोग यहां पढ़ते हैं, कोई वहां पढ़ता है, कोई मुक्त विद्यालय में पढ़ता है, कोई खुद पढ़ता, सीखता है। तो आप इस प्रकार की परीक्षा लें, जिसे मापा जा सके कि इस इंसान को कितना आता है, सिर्फ विषय में नहीं, अन्य चीज़ों में कैसा क्या आता है। अगर यह परीक्षा योजना बनती है तो ये परीक्षाएं साल में 3-4 बार होंगी, और इन सभी परीक्षाओं में बैठा जा सकेगा और जिस परीक्षा में आपके ज्यादा नंबर आएंगे, उसके आधार पर आप आगे का रास्ता तय करेंगे। इस तरह का विचार है।
प्रश्नः समिति की रिपोर्ट के मद्देनज़र आप विश्वविद्यालय के शिक्षकों को क्या सलाह देना चाहेंगे?
उत्तरः मैं विश्वविद्यालय के शिक्षकों और कुलपतियों से यह कहूंगा कि पहले तो आप यह देखिए कि विश्वविद्यालय कैसे चला रहे हैं और दूसरी चीज़ यह देखिए कि कुलपतियों की नियुक्ति कैसे होती है, शिक्षकों की नियुक्ति कैसे होती है। फिर यह सोचना होगा कि अब आजादी मिल चुकी है और अब हमें ही यह फैसला करना होगा कि हमें क्या पढ़ाना है. कितना पढ़ाना है? विषयों के दरम्यान रिश्ते कैसे बनाने हैं? हर विश्वविद्यालय में यह विचार-विमर्श शुरू हो जाए, अगर इस तरह काम शुरू करेंगे तो बड़ा आनंद आएगा और नयी दुनिया बनेगी।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।