पर्यावरण के अनुकूल कीट नियंत्रण: क्यों और कैसे?      Publish Date : 21/12/2024

            पर्यावरण के अनुकूल कीट नियंत्रण: क्यों और कैसे?

                                                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

जिस दर से अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का प्रादुर्भाव हुआ है, उसी दर से नये-नये कीट एवं व्याधियां भी बढ़ी हैं। उत्पादन को कीट एवं व्याधि से बचाने के लिये विभिन्न प्रकार के कीटनाशी (Pesticides) प्रयोग में लिये जा रहे हैं, लेकिन इन रासायनिक कीटनाशक दवाओं से वातावरण एवं जीव-जन्तुओं पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ऐसी दशा में कीट एवं व्याधियों की संख्या को कम करने के लिये ऐसे नियंत्रण के तरीके ढूंढने की आवश्यकता है, जो मानव समुदाय, जीव-जन्तु एवं वातावरण को हानिकारक प्रभावों से मुक्त रख सके।

वैज्ञानिकों ने प्राकृतिक उत्पाद जो कीट एवं व्याधियों के खिलाफ प्रयोग हो सकते हैं, उनको ढूंढ लिया है एवं उनके अंदर पाये जाने वाले तत्वों को कृत्रिम रूप से संश्लेषित करने के प्रयास जारी हैं। साथ ही कीड़ों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में बढ़ाकर बाजार में विभिन्न प्रकार के पैकिंग में उपलब्ध करवाने की कोशिश की जा रही है। निम्नलिखित विधियों द्वारा हानिकारक कीटों से फसल को बचाया जा सकता है:-

1. वनस्पति कीटनाशी (Botanical Pesticides) : पौधे से प्राप्त होने वाले रसायनों का लाभदायक जीवों, परजीवी व परभक्षी इत्यादि पर हानिकारक प्रभाव नहीं होता है। प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि नीम उत्पाद से उपचारित पौधों में चना फली बेधक के प्रौढ़ अण्डे कम देते हैं तथा उपचारित पौधों को इसके लार्वा या तो खाते नहीं हैं या खा लेने पर उनकी शारीरिक कार्यीकी बाधित होती है, जिससे लार्वा प्यूपा में पूर्णरूपेण परिवर्तित नहीं हो पाते हैं एवं प्यूपा में अस्वस्थ प्रौढ़ निकलते हैं। अतः वनस्पतिक कीटनाशी किसान को तुरंत नियंत्रण नहीं दे पाते हैं, लेकिन इनके द्वारा होने वाला संचित प्रभाव व लाभ रसायनिक कीटनाशियों से अधिक होता है एवं वातावरण तथा प्राकृतिक शत्रु भी सुरक्षित रहते हैं।

2. बायोपेस्टीसाइड्स (Biopesticides) : इस शब्द का आशय कीट नियंत्रण के रूप में प्रयोग होने वाले जीवित कारकों से है, जैसे परजीवी, परभक्षी, विषाणु, जीवाणु, प्रोटोजोआ आदि। इसके कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण निम्न हैं, जैसे नीबू के काटनी कुशन स्केल कीट का वैडलिया भंृग द्वारा, चने की फली बेधक का केमपोलेटिस क्लोरीडी एवं ट्राइकोग्रामा बेजेलियोनासिस द्वारा एवं गन्ना, तना छेदक का ट्राइकोग्रामा फैलियेटम द्वारा नियंत्रण।

3. जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) : कीट नियंत्रण की यह आधुनिक तकनीक है। इस विधि में कीड़े से पैदा होने वाले फेरामोन व हारमोन को पैदा करने में, कीट जनित रोगों को रोकने के लिये वैक्सिन बनाने में, कीटों के जैविक शत्रुओं को आनुवंशिक रूप से मजबूत करने में उपयोग हो सकता है। बकैला वायरस के आनुवंशिक तंत्र के अंदर विशेष प्रकार के एन्जाइम, विष और जीन को प्रवेशित करने के प्रयास किये गये हैं, जिसके द्वारा कीट नियंत्रण आसान व शीघ्र हो जाता है।

जीवाणु द्वारा कीड़ों की मृत्यु अघुलनशील विष के कण पैदा होने से होती है। इस विष को पैदा करने वाले जीन बाहरी गुणसूत्र प्लास्मिड एवं गुणसूत्र के अन्दर पाये जाते हैं। जैव प्रौद्योगिकी तकनीक से इस विष को प्रयोगशाला में बनाया जा सकता है, जोकि संश्लेषित रसायनिक कीटनाशकों की तरह ही प्रभावी है। कुछ पौधों में लैक्टिन नामक प्रोटीन पायी जाती है। यह प्रोटीन कीड़े के शरीर के अंदर पहुंच कर कार्बोहाइड्रेट एवं काइटिन के साथ जुड़ जाती है। साथ ही कीट की आंत्र के अन्दर पायी जाने वाली पेरीट्रोपिक झिल्ली के काइटिन को भी बांध देती है, जिससे कीड़ों में भोजन का अवशोषण नहीं हो पाता है एवं कीड़ा मर जाता है।

जैव प्रौद्योगिकी तकनीक के द्वारा फफूंदों के कीटनाशक गुण को कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिये वर्टिसिलियम लेसेनाई की विकसित प्रभेद प्राकृतिक प्रभेद की तुलना में दस गुना अधिक प्रभावी है। इसी प्रकार कृत्रिम चयन एवं संकरण द्वारा परजीवी एवं परभक्षी का विभिन्न प्रकार की जलवायु के प्रति सहनशीलता, कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध क्षमता एवं कीट ढूंढने की क्षमता वाली बायोटाइप ढूंढ ली गयी है।

4.अनुवंशिक विधि द्वारा नियंत्रण (Genetic Control) : इस विधि के अन्तर्गत अनुवंशिक रूप से प्रजनन में अक्षम कीड़ों को प्रकृति में छोड़ा जाताहै, जिनके संयोग से पैदा हुये कीड़ों के अण्डों मेंया तो घातक जीन्स होते हैं या बच्चे पैदा नहीं होते। हानिकारक कीटों की कुछ संख्या को रसायनों द्वारा बन्ध्य बनाकर भी प्रकृति में छोड़ा जाता है, जिससे कीड़ों में संभोग का रूकना, जीवित अण्डों का पैदा न होना, सन्तति का विकास रूकना एवं घातक उत्परिवर्तन पैदा होना है।

5. फेरोमोन द्वारा नियंत्रण (Pheromonal Control) : कीट वातावणर में पाये जाने वाले रसायनिक गंध की ओर आकर्षित और उद्दीप्त होते हैं। यह गंध कीट द्वारा ही पैदा होती है और हर जाति की गंध भी अलग-अलग तरह की होती है। जैसे संभोग के लिये आकर्षित करने वाले (Sex pheromones), एकत्रित करने के लिये (Assembling Pheromones), चेतावनी देने के लिये (Alarming Pheromones) इत्यादि। सेक्स फेरोमोन्स को समन्वित कीट नियंत्रण का अभिन्न हिस्सा माना जाता है, जिसके द्वारा कीट की सही आर्थिक देहली पता चल जाने पर नियंत्रण संभव हो जाता है। फेरोमोन टेªप में एक ही लिंग के कीट आकर्षित होते हैं, जिनको पकड़कर नष्ट किया जा सकता है। बाम्बीकाल, गासिप्लुपर, जिपल्यूर व लपल्यू इत्यादि कुछ प्रमुख उपयोग में जाये जाने वाले फेरोमोन हैं।

6. हार्मोन द्वारा नियंत्रण (Hormonal Control) : कीड़ों के शरीर का विकास अंतःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा पैदा हुए स्राव पर निर्भर रहता है। इस स्राव को रसायनिक विधि से प्रयोगशाला में संश्लेषित कर लिया गया है। इन हार्मोन की मात्रा ज्यादा व कम होने पर कीड़ों का शरीर अनियमित रूप से विकसित हो जाता है जैसे इकडाइस्वाइड्स की मात्रा ज्यादा होने पर कीड़ों का निर्मौचन जल्दी-जल्दी होने पर फलस्वरूप इनकी ऊर्जा निर्मोचन (moulting) में ही नष्ट हो जाती है और कीट की मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार जुवेन्याइड्स की मात्रा ज्यादा होने पर कीट शिशु अवस्था में ही बना रहता है। इस हार्मोन को भी बाधित करने वाले हार्मोन विकसित हो चुके हैं। जैसे प्रिकोसिन। इसके प्रयोग से कीट प्रौढ़ अवस्था में जल्दी आ जाता है, ऐसा प्रौढ़ छोटा एवं संभोग या अण्डा देने में असमर्थ होता है। कीड़ों की त्वचा का मुख्य घटक काइटीन (Chitin) कीड़ों की सफलता का मुख्य रहस्य है। हार्मोन जैसे डाईफ्लूबेन्जूरान व पेनफलबूरान काइटीन को बनने से रोक देते हैं, जिससे कीड़ा पुरानी त्वचा के अन्दर ही अविकसित रूप में मर जाता है।

ये सभी कीट नियंत्रण की विधियां प्रभावी होने के साथ ही रसायनिक कीटनाशी की तुलना में वातावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं। अतः समन्वित कीट नियंत्रण व्यवस्था के अन्तदर्गत इनका उपयोग कर कीड़ों के द्वारा होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।