कृषि भूमि और प्रदूषण

                                                                       कृषि भूमि और प्रदूषण

                                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                 

प्रदूषण का साधारण अर्थ है- मनुष्य द्वारा भूमि के साथ गलत तथा अज्ञातपूर्ण तरीकों से छेड़छाड़, जिससे मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में ऐसा अवांछित बदलाव आ गये, जिसका प्रभाव फसलों, पशुओं तथा मनुष्यों पर पड़ने या जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता में कमी आकर, उसकी उपयोगिता नष्ट होने की स्थिति आ चुकी है।

प्रदूषण या मिट्टी का अवांछित बदलाव दो प्रकार से आता है- प्रथम तो प्राकृतिक कारणों से, जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, आग लग जाना इत्यादि। दूसरा मानवीय क्रियाओं द्वारा, जैसे कि रासायनिक पदार्थों, अन्य अपशिष्ट पदार्थ आदि मिट्टी में मिला देना आदि। इन सभी से भूमि के प्राकृतिक गुणों में बदलाव आ जाता है, साथ ही साथ प्रास्थितिकी संतुलन भी बिगड़ जाता है।

भूमि प्रदूषण के मुख्य कारण:

                                                                

1.   घरेलू व शहरी अपशिष्ट पदार्थ - बड़े महानगरों में शहर का कूड़ा-कचरा गन्दा पानी, शौचालय, स्नानघर, रसोईघर से निकला गंदा पानी व कूड़ा-करकट आदि मुख्य अपशिष्ट पदार्थ हैं। इन सभी में विभिन्न खनिज मिश्रण तथा पानी में घुलनशील शोधक पदार्थ पाये जाते हैं, जोकि सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटित होकर मिट्टी के पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि कर देते हैं, लेकिन इनमें कई रोग फैलाने वाले कीटाण    व जीवाणु भी विद्यमान रहते हैं। इनके अतिरिक्त इनमें उपस्थित कई विषैले तत्व, जैसे शीशा, क्रोमियम, निकिल व पारे के कारण मिट्टी में विषाकत्ता उत्पन्न हो जाती है, जो मिट्टी के वायु संचार को कम कर देते हैं। यह जल धीरे-धीरे जमीन के नीचे रिस कर पेय जल की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है।

                                                                  

2.   औद्योगिक उत्पाद - महानगरों के पास स्थित कारखानों से निकले उत्प्रवाह में जलनशील, विषैले, दुर्गन्धयुक्त और अक्रियाशील रासायनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं। यह पदार्थ जल में प्रवाहित कर दिये जाते हैं और वह जल कृषि भूमि में प्रयोग लाया जाता है। इस प्रकार के जल के लगातार प्रयोग से भूमि में वायु का आवागमन भली-भाँति नहीं हो पाता तथा भूमि में मौजूद लाभदायक सूक्ष्मजीवी कीटाणुओं की श्वसन क्रिया प्रभावित होती है। इस सभी का सीधा असर भूमि की उत्पादकता पर पड़ता है।

3.   उर्वरक - खेत में लगातार फसलें लेते रहने से भूमि में उपस्थित फसलें लेते रहने से भूमि में उपस्थित पोष तत्वों में कमी आ जाती है। भूमि की उत्पादकता बनाचये रखने तथा भरपूर फसल लेने के लिये हमारा कृषक वर्ग उर्वरकों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग करने लगता है। यह जरूरत से ज्यादा दी गई मात्रा पौधों द्वारा तो प्रयोग में लाई नहीं जाती, वरन् भूमि में घुलकर अवशेषों के रूप में रह जाते हैं। यह अवशिष्ट मात्रा नाइट्रेट व फास्फेट के रूप में रिस कर भूमिगत जल तक पहुंच कर उसे प्रदूषित कर देती है, जोकि पशुओं, फसलों, यहां तक कि स्वयं मानव के लिये भी एक धीमे विष का कार्य करती है।

                                                            

इन अवशेषों की कुछ मात्रा बहकर नदियों आदि में पहुंच जाती है, जिससे सतही जल पर जलीय खरपतवार, जैसे शैवाल, काई आदि अत्यधिक मात्रा में उग आते हैं, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘यूट्रोफिकेशन कहते हैं। इनसे जैविक आक्सीजन की मांग बढ़ जाती है और वायुमण्डल में उएपलब्ध आक्सीजन का अनुपयोग होने लगता है।

कीटनाशक:- फसलों की ज्यादा उपज लेने तथा खरपतवार, कीट, फफूंद आदि के प्रभाव को कम करने के लिये कृषक वर्ग द्वारा खरपतवारनाशी, कीटनाशी तथा फफुंदनाशी रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इनका लगातार तथा अत्यधिक मात्रा में प्रयोग भूमि को हानि पहुंचाता है। ये कीटनाशक काफी लम्बे समय तक मिट्टी में मौजूद रहते हैं और पौधों व फसलों के माध्यम से पशुओं और मानवों के शरीर तक पहुंचकर विभिन्न रोगों को जन्म देते हैं।

दूसरी ओर ये रसायन फसलों को हानिकारक कीड़ों को मारने के साथ-साथ कुछ लाभदायक कीटों को भी समाप्त कर देते हैं। इन कीटनाशकों का लगातार प्रयोग इन कीटों में प्रतिरोधक क्षमता भी उत्पन्न कर देता है, जिससे फसलों पर लगने वाले हानिकारक कीट भी पूर्णताया नष्ट नहीं हो पाते, किन्तु धीरे-धीरे इन कीटनाशकों के विषैले तत्व भूमि पर प्रतिकूल असर डालते जाते हैं।

भूमि प्रदूषण से बचाव के उपाय:

                                              

भूमि को प्रदूषित होने से बचाने के लिये निम्न उपाय करने चाहिये:

1.   अपशिष्ट पदार्थों का समुचित निक्षेपण करना चाहिये, जैसे स्वच्छता भूमि भरण, भस्मीकरण, कम्पोस्टिंग और पुनः चक्रीकरण आदि।

2.   औद्योगिकी उत्प्रवाह को पर्याप्त उपचार करके ही जल में प्रवाहित करना चाहिये या कृषि सिंचाई जल के रूप में प्रयोग लाना चाहिये।

3.   उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग पर रोक लगानी चाहिये। कृषक वर्ग को चाहिये कि वे मृदा परीक्षण के आधार पर की गई सिफारिश के अनुसार ही उर्वरक की मात्रा प्रयोग में लें।

4.   कृषकों को चाहिये कि वे कीटनाशकों का चुनाव करते समय यह ध्यान रखें कि वे रसायन मिट्टी में जल्दी विघटित हो जायें। कृषि विभाग की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे स्थाई प्रवत्ति के कार्बनिक रसायनों से बने कीटनाशियों पर प्रतिबंध लगायें।

                                                       

5.   फसलों में हानिकारक कीटों के नियंत्रण के लिये रसायनों की अपेक्षा समन्वित कीट प्रबन्धन को अपनाया जाना चाहिये।

6.   कृषकों को जैव नियंत्रण विधि का ज्ञान देना चाहिये, जैसे मुख्य फसल के साथ दूसरी फसल लेना, फसल-चक्र अपनाना आदि।

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर कृषक वर्ग अपनी कृषि योग्य भूमि को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। प्राकृतिक संपदा के प्राकृतिक गुणों में बदलाव लाये बिना कृषक भरपूर फसल का अनन्द इन्हीं तरीकों को अपनाकर ले सकता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल विश्वविद्यालय मेरठ के कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर स्थित कृशि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष हैं।