पर्यावरण चुनौतियों का प्रकृति आधारित प्रबन्धन

                                                              पर्यावरण चुनौतियों का प्रकृति आधारित प्रबन्धन

                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

                                                         

          अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature–IUCN) व (Resilience) के अनुसार ‘‘प्रकृति-आधारित समाधान, प्राकृतिक और संशोधित पारिस्थितिक तन्त्रों के संरक्षण, सतत प्रबन्धन तथा उनकी पुनर्स्थापना के लिए किये जाने वाले क्रियाकलाप हैं, जो मानव कल्याण और जैव-विविधता से सम्बन्धित लाभ प्रदान करने के लिए सामाजिक चुनौतियों को प्रभावी ढंग से और अनुकूल रूप से संबोधित करते हैं।’’

  • यूरोपीय आयोग के अनुसार, प्रकृति आधारित समाधान प्रकृति से प्रेरित और समर्थित होते हैं, जो जो लागत प्रभावी होने के साथ ही पर्यावरणीय, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं। इस प्रकार के समाधान स्थलीय एवं जलीय पर्यावरण में प्राकृतिक विविधता और लचीलेपन ;त्मेपसपमदबमद्ध को बढ़ावा देते हैं।
  • प्रकृति आधारित समाधान स्थानीय रूप से अनुकूलित, संसाधन-कुशल (Resource–Sufficient) और प्रणालीगत हस्तक्षेपों (Systemic Intervantions) को समर्थन प्रदान करते हैं। इस प्रकार के समाधान लोगों को प्राकृतिक परिवर्तन और आपदाओं के प्रति अनुकूलन (Adaptation) में सहायता करते हैं।
  •           उदाहरण के लिए, शहरों में सीमेंट से बने घरों की ऊपरी मंजिल में सदैव उच्च तापमान की शिकायत रहती है। इसका एक समाधान हरित छतें और दीवारें (Green Roofs and Walls) है। हरी छतों एवं दीवरों में मिट्टी और वनस्पति की एक परत शामिल होती है। यह ऊपरी मंजिल के उच्च तापमान के प्रभाव को कम करने साथ ही वर्षा जल को एकत्र करने, प्रदूषण को कम करने, विभिन्न कीट प्रजातियों के आवास और कार्बन सिंक जैसे कार्यों को भी करती है।

वर्तमान समय में प्रकृति आधारित समाधान की प्रासांगिता

          औद्योगिक क्रॉन्ति के पश्चात् पृथ्वी के वातावरण में हरित गृह गैसों (Green House Gases) का संकेन्द्रण बढ़ा है। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धि, जनसंख्या वृद्वि, उपभोक्तावादी संस्कृति आदि के कारण संसाधनों पर पडने वाले दबाव में वृद्वि हुई है। मानव, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से पहले की अपेक्षा विकसित हुआ है, परन्त इसके साथ ही विभिन्न प्रकार की समस्याएं भी उत्पन्न हुई हैं।

                                                              

  • प्रकृति आधारित समाधान लोगों और प्रकृति के मध्य एक सामजस्य स्थापित करने पर जोर देता है। यह जलवयु परिवर्तन एवं सम्बद्व समस्याओं के समाधान के लिए एक समग्र पर्यावरण मित्रवत अनुक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है। पेरिस समझौता भी जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन रणनीतियों में प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को स्वीकार करता है।

विशिष्ट सामाजिक-पर्यावरणीय चुनौतियाँ

आपदा जोखिम में कमी के लिए प्रकृति आधारित समाधान

          औद्योगीकरण, हरित गृह गैसों के उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन ने प्राकृतिक आपदाओं के जाखिम में वृद्वि की है। आपदाओं के जांखिम को कम करने और आपदा प्रबन्धन में प्रकृति आधारित संसाधनों भूमिका बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है।

                                                           

          संयुक्त राष्ट्र की ‘‘आपदा न्यूनीकरण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय रणनीति’’ (International Strategy for Disaster Reduction) के अनुसार किसी भी प्राकृतिक खतरे के प्राकृतिक आपदा में परिवर्तित होने की सम्भावना होती है, यदि समुदाय अथवा समाज अपने स्वयं के संसाधनों का उपयोग करके इसके प्रभावों का सामना करने में सक्षम नही हो। प्रकृति आधारित समाधान इस प्रकार के किसी ‘प्राकृतिक खतरे’ को आपदा में परिवर्तित होने की सम्भावनाओं को कम कर सकते है।

          उदाहरण के लिए तटीय क्षेत्रों में समुद्री चक्रवात के प्रभाव को कम करने में इसकी भूमिका देखी जा सकती है। कई अनुसंधानों में यह सिद्व हो चुका है कि मैन्ग्रोव वन, तटीय क्षेत्रों में चक्रवात के प्रभाव को कम करने में सहायक होते है। इसी प्रकार कोरल रीफ सुनामी के प्रभावों को कम करने में सहायक होते हैं, इससे तटीय क्षेत्रों में जान एवं माल की हानियों को कम किया जा सकता है। आपदाओं से समाज को होने वाले जोखिमों को कम करने में पारिस्थितिक तन्त्र सेवाओं की भूमिका मत्वपूर्ण मानी जाती है, इसी के साथ यह लागत प्रभावी भी होती है।

स्विटजरलैण्ड की एक कंपनी ‘स्विस रिइंश्योरेंस’(Swiss Resourence)  के द्वारा किये गये एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि बारबाडोस में फोकस्टोन मरीन नेशनल पार्क (Folkestone Marine Park) के संरक्षण में निवेश किया गया प्रत्येक डॉलर हरिकेन से होने वाले 20 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर नुकसान से बचाता है। आर्द्र भूमि, जंगलों तटीय प्रणालियों (Costal Systems) जैसे पारिस्थितिक तन्त्र प्राकृतिक खतरों के प्रति सुभेद्यता को कम करते हैं और सुरक्षात्मक रूप से ढ़ाल का कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रकृति आधारित समाधान, विकास से सम्बन्धित बुनियादी ढाँचे और सम्पत्ति की रक्षा भी करते हैं। यह आपदा के पश्चात तेजी से रिकवरी करने में भी समर्थन प्रदान कर सकते है।

          उदाहरण के लिए भारत में भितरकनिका संरक्षित क्षेत्र में किये गये एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि समुद्री तट के किनारों पर मैन्ग्रोव वन नही होने पर तटीय तूफानों के पश्चात् खारे पानी की समस्या से उबरने में तीन तक गुना अधिक समय लग सकता है। यह अध्ययन पारिस्थतिक तन्त्र आधारित आपदा जोखिम न्यूनीकरण (Ecosystem Based Approaches to Disaster Risk Reduction–Eco–DRR) दृष्टिकोण को अपनाने पर बल देता है।

जल सुरक्षा हेतु प्रकृति आधारित समाधान

                                                                

          जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले समय में जल सुरक्षा के विपरीत रूप से प्रभावित होने की सम्भावना है। वैश्विक जल सुरक्षा के लिए नए समाधानों की आवश्यकता हैं। वैश्विक स्तर पर लगभग 4 अरब लोग स्थाई जल तनाव (Water Stress) वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं, जहाँ सतह और भूजल की शुद्व निकासी वर्षा प्राप्ति से अधिक है।

  • इससे भविष्य की मांग को पूरा करने के लिए कोई अतिरिक्त जल उपलब्ध नही रह जाता। विकासशील देशों में सभी अपशिष्ट जल का लगभग 80-90 प्रतिशत सीधे ही सतही जल निकायों में छोड़ दिया जाता है, जिससे मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर जोखिम पैदा होते हैं।
  • वन, आर्द्र भूमि, बाढ़ के मैदान (Flood Plains) जैसे प्राकृतिक बुनियादी ढाँचे जल सम्बन्धित सेवाओं को मुफ्त में प्रदान करते हैं। इनका उपयोग करके प्रकृति आधारित समाधान को लागू किया जा सकता है। इससे जल संकट के जोखिम से निपटने में सहायता मिलेगी, विशेष रूप से भविष्य के जलवायु तनाव का सामाना करने के लिए।
  • उदाहरण के लिए, बाढ़, जोखिम प्रबन्धन के लिए निर्मित अवसंरचनाएं (जैसे बाँध आदि) नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बदल देते हैं, जिससे जलीय जीवों का आवास प्रभावित होता है; यह अवसंरचनाएं नदियों के बाढ़ के मैदानों से काट देती हैं। इसके बजाय बाढ़ के मैदानों को संरक्षित कर उन्हे नदियों से पुनः जोड़कर बाढ़ प्रबन्धन के साथ-साथ पारिस्थितिक तन्त्र का संरक्षण भी किया जा सकता है।
  • जलीय संसाधनों के कुशल एवं प्रभावी प्रबन्धन के लिए मानव निर्मित और प्राकृतिक बुनियदी ढाँचे की आवश्यकता होती है। अकेले प्राकृतिक अवसंरचना जल संरक्षा की गारण्टी नही दे सकती। जल सं सम्बन्धित पारिस्थितिक तन्त्र सेवाओं का मूल्य काफी अधिक होता है और इसका उपयोग खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा, उद्योग तथा आर्थिक विकास आदि के लिए किया जा सकता है।

खाद्य सुरक्षा हेतु प्रकृति आधारित समाधान

                                                             

          कृषि एवं खाद्य संगठन (FAO) के अनुसार वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर लगभग तीन लोगों में से एक (2.37 बिलियन) के पास पर्याप्त भोजन नही था। विश्व की कुपोषित आबादी का अधिकाँश भाग विकासशील देशों में निवास करता है। वैश्विक समुदाय के समक्ष खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित् करने की सस्या काफी विकराल है। खाद्य सुरक्षा को कृषि उत्पादन का मुद्दा माना जाता है और कृषि उत्पादकता में सुधार कर खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित् किया जा सकता है।

  • कुछ विशेषज्ञों के अनुसार खाद्य-सुरक्षा में सुधार के लिए खाद्य उत्पादन तकनीक या प्रौद्योगिकी में सुधार अर्पाप्त होंगे। खाद्य-सुरक्षा को सुनिश्चित् करने के लिए समाधानों को बहुआयामी बनाने की आवष्श्कता है तथा सम्पूर्ण खाद्य प्रणालियों को पर्यावरण परिवर्तन के अनुकूल बनाकर इसे धारणीय बनाया जा सकता है। जलवायु पविर्तन खाद्य-सुरक्षा को सर्वाधिक प्रभावित कर सकता है और इसके लिए खाद्य-सुरक्षा से सम्बन्धित समाधानों में जलवायु परिवर्तन के दृयिटकोण को भी आवश्यक रूप से शामिल किया लाना चाहिए।
  • प्रकृति आधारित समाधान, खाद्य-सुरक्षा की समया को पूर्ण रूप से हल करने में सहायक सिद्व होंगे। जलवायु परिवर्तन पौधों में कीटों की समस्या के साथ-साथ रोगों के प्रकोप को भी बढ़ाएंगे। संश्लेषित रासायनिक पदार्थों के स्थान पर प्रकृति आधारित समाधान का उपयोग ‘सतत कृषि’ (Sustainable Agriculture) को बढ़ावा देगा।
  • यह खाद्यान्नों के उत्पादन के साथ वहनीय मूल्यों पर उनकी उपलब्धता को भी बढ़ावा दे सकता है।

मानव स्वास्थ्य के लिए प्रकृति आधारित समाधान

                                                                 

          मानव एवं पारिस्थितिक तन्त्र के मध्य सम्बन्धों को जटिल पाया जाता है। यह अंतर्निहित सम्बन्ध किसी भी स्थान की जलवायु से प्रभावित होता है और इसका सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है। पारिस्थितिक तन्त्र के विभिन्न अवयव मनुष्य के सामाजिक सामजस्य एवं कल्याण के प्रभावशाली निर्धारक माने जाते हैं।

  • विभिन्न शोधकर्ताओं ने पाया है कि ‘ग्रीन स्पेस’ और पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार का मानव स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जैसे कि शहरों में सड़कों के दोनों विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों को लगाने से ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है। यह एक प्रकार से ‘ग्रीन मफलर’ का कार्य। करता है। इससे मनुष्य पर ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव नगण्य होता है और अपेक्षाकृत शान्त वातावरण जीवन की गुणवत्ता में सुधार करता है।
  • स्वस्थ्य मनुष्य का ‘बॉडी मॉस इंडेक्स’ अच्छा होता है और उसकी शारीरिक गतिविधियाँ तथा सामाजिक सम्पर्क भी बेहतर होता है। यह सामाजिक समावेशन और सामजस्य को भी बेहतर बनाता है। वन एवं जलीय पारिस्थितिक तन्त्र में विभिन्न प्रकार के ऐसे उत्पादों की प्राप्ति भी होती है जिनका सीधे दवा के रूप में या विभिन्न प्रकार की दवाओं के उत्पादन में उपयोग किया जाता है। यह मानव स्वास्थ्य के कल्याण के सवंर्धन में बहुत महत्वपूर्ण योगदान करते है।
  • प्रकृति के लाभों एवं मानव के स्वास्थ्य एवं कल्याण को अधिकतम रूप में प्राप्त करने के लिए व्यापक हितधारक सहयोग की आवश्यकता है, इसके साथ ही नीति निर्माण के समस्त स्तरों पर प्रकृति के एकीकरण (Integration of Nature) की भी उतनी ही आवश्यकता है।

जलवायु परिवर्तन की समस्या के लिए प्रकृति आधारित समाधाान

                                                         

          वर्तमान समय में मानव सभ्यता के समक्ष उत्पन्न सर्वाधिक गम्भीर समस्याओं में सबसे प्रमुख स्थान पर जलवायु परिवर्तन की समस्या है। जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान हेतु पारिस्थितिक तन्त्र को उचित तरीके से प्रबन्धित करके इसे बड़ी ही आसानी हल किया जा सकता है। पारिस्थिक तन्त्र का उचित प्रबन्धन, प्रकृति बाधारित समाधान, जलवायु परिवर्तन शमन (Mitigation) और अनुकूल (Adaptation) गतिविधियों के लिए एक प्रभावी उपाय सिद्व हो सकता है।

  • प्रकृति आधारित समाधान, पारिस्थितिक तन्त्र-आधारित शमन (Ecosystem–Based Mitigation–EbM) के रूप में पारिस्थितिक तन्त्र के के क्षरण और नुकसान को रोक सकता है और जलवायु परिवर्तन के विरूद्व संघर्ष में एक शक्तिशाली योगदान प्रदान कर सकता है।
  • IPCC के अनुसार, वनों की कटाई एवं वन क्षरण के कारण एक अनुमान के अनुसार वातावरण में प्रतिवर्ष 4.4 गीगाटन CO2 का उत्सर्जन होता है जो कि मानव-जनित उत्सर्जन का लगभग 12 प्रतिशत है। कृषि, वानिकी और भूमि के अन्य उपयोग (AFOLU) का वैश्विक मानव-जनित उत्सर्जन में लगभग 24 प्रतिशत का वार्षिक योगदान देता है।
  • बेहतर संरक्षण और भूमि प्रबन्धन के माध्यम से इस प्रकार के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है और यह वैश्विक शमन प्रयासों के लिए एक शक्तिशाली हस्तक्षेप सिद्व होगा। वन एवं अन्य प्राकृतिक एवं संशोधित पारिस्थितिक तन्त्र (Natural and Modified Ecosystems) भी CO2 को अवषोशित एवं अनुक्रमित (Sequestering) करके ‘प्राकृतिक कार्बन सिंक’ के रूप में कार्य करते हैं। इस प्रकार यह जलवायु परिवर्तन का सामाना करने के दौरान अत्याधिक प्रभावी योगदान दे सकते हैं।
  • IPCC के अनुसार, पूर्व-औद्योगिक युग के बाद से उत्सर्जित कुल मानव-जनित हरित गृह गैसों का लगभग 60 प्रतिशत या तो भूमि में (पौधों और मिट्टी में) अथवा समुद्र में संग्रहीत किया जा चुका है। वनों, आर्द्रभूमियों और महासागरों का संरक्षण, पुर्नस्थापन और स्थाई प्रबन्धन कार्बन चक्र के स्वस्थ्य कामकाज और पृथ्वी की जलवायु के संतुलित नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • उदाहरण के लिए, यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर के अवक्रमित या वनों की कटाई वाले परिदृश्यों को बहाल करने से प्रतिवर्ष 1-3 बिलियन टन CO2 का अनुक्रमण हो सकता है। इसके साथ ही इससे अन्य पारिस्थितक तन्त्र सेवाओं का लाभ भी प्राप्त होगा, जो कि प्रतिवर्ष लगभग 170 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर हो सका है। यह जलवायु परिवर्तन के लिए एक लागत प्रभावी प्रकृति आधारित समाधान है।

ऊर्जा उत्पादन हेतु प्रकृति आधारित समाधान

                                                        

          वर्तमान समय में कुल वैश्विक ऊर्जा उत्पादन में कोयला, पैट्रोलियम और बायोमास की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इस प्रक्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड सहित विभिन्न हरित गृह गैसों का उत्पादन होता है। ऊर्जा क्षेत्र में प्रकृति आधारित समाधान समाधान प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन करेंगें। इस दिशा में सौर ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, पवन विद्युत तथा तरंग ऊर्जा आदि का उपयोग वांछित है।

  • सौर ऊर्जाः भारत, उष्णकटिबन्धय मेखला  (Tropical Belt) में स्थित देश है; देश के अधिकाँश भाग में वर्षभर के दौरान लगभग 300 दिन सौर विकिरण प्राप्त किया जाता है। इस मेखला में 2,300-3,000 घंटे धूंप/सूर्य के प्रकाश की मात्रा 5,000 ट्रिलियन किलोवाट घंटा kWh के के बराबर है।
  • सोलर फोटोवाल्टाइक (Solar Photovoltaic–SPV) सेल और सौर तापीय विद्युत प्रणाली (Solar Power Systems) आदि प्रमुख युक्तियाँ हैं, जिनका सौर ऊर्जा उत्पादन में में उपयोग किया जा रहा है। सौर तापीय विद्युत प्रणाली, सौर विकिरणों का उपयोग कर जल, वायु एवं वाष्प आदि में ताप उत्पन्न करती है। इसका उपयोग बड़े पैमाने पर विद्युत के उत्पादनख् तापन, कूलिंग, क्यूमिनिटी कुकिंग आदि जैसे विभिन्न कार्यों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
  • भू-तापीय ऊर्जाः कई देशों में भू-तापीय विद्युत उत्पादन तकीनक का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया गया है। हालांकि, भू-तापीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी का विकास भारत में अभी अपने शैशव काल में ही है। देश में उपलब्ध भू-तापीय ऊर्जा क्षमता का आंकलन किया जा रहा है और तलछटी घाटियों में अपेक्षाकृत कम तापमान पर भू-तापीय संसाधनों से विद्युत बनाने की तकनीक पर अनुसंधान कार्य प्रारम्भ किये गये हैं। पश्चिमी भारत में, खंभात बेसिन में भू-तापीय ऊर्जा के दोहन की पर्याप्त सम्भावनाएं हैं।
  • पवन ऊर्जाः पवन ऊर्जा (Wind Energy) के उत्पादन से न तो किसी प्रकार से पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली गैसों का उत्सर्जन होता हैं और न ही विश्व तापन की समस्या उत्पन्न होती है। भारत में पवन ऊर्जा का विकास 1990 के दशक में प्रारम्भ हुआ और पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसमें काफी विकास हुआ है। पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता के मामले में भारत, विश्व में चतुर्थ स्थान पर है।
  • जल-विद्युत ऊर्जाः यह ऊर्जा का एक नवीकरणीय स्रोत है जो कि दुर्लभ ईंधन संसाधनों पर निर्भरता को कम करता है।
  • यह ऊर्जा के उत्पादन की एक प्रदूषण रहित तकनीक है जिसके कारण इसे पर्यावरण के अनुकूल माना जाता है। छोटे आकार की जल-विद्युत ऊर्जा परियोजना को पर्यावरण के अधिक अनुकूल माना जाता है। इसके अंतर्गत ऊर्जा के अन्य स्रोतों की तुलना में उत्पादन, प्रचालन एवं अनुरक्षण की लागत कम आती हैं। तापीय (35 प्रतिशत) और गैस (लगभग 50 प्रतिशत) की तुलना में इसकी दक्षता उच्चतर (90 प्रतिशत से अधिक) होती है।
  • तरंग ऊर्जाः तरंग ऊर्जा या तरंग शक्ति का उत्पादन समद्र की सतह की तरंगों के द्वारा किया जाता है। तरंग ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन, पानी के विलवणीकरण और पानी की पम्पिंग सहित अन्य सभी विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता है। तरंग ऊर्जा एक प्रकार की अक्षय ऊर्जा है और यह महासागरीय ऊर्जा (Ocean Energy) का सबसे बड़ा अनुानित वैश्विक संसाधन का एक रूप है।

प्रकृति आधारित समाधान से सम्बन्धित मुद्दे एवं इसके अंतर्गत आने वाली बाधाएं:-

                                                                   

वित्तीय समस्या     

          संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (2020) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर प्रकृति आधारित समाधान लागू करने के लिए वर्ष 2030 तक 140 से 300 बिलियन अेरिकी डॉलर वार्षिक तक का निवेश करने की आवश्यकता होगी, जो कि वर्ष 2050 तक बढ़कर 280 से 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर पहुँचने का अनुमान है।

                                                                                   

  • प्रकृति आधारित समाधान जलवायु परिवर्तन और विभिन्न आपदाओं के द्वारा होने वाली हानियों से बचानें में सहायक भी हो सकते हैं परन्तु इस सबके बाद निराशाजनक स्थिति यह है कि प्रकृति आधारित समाधान से सम्बन्धित परियोजनाओं को कम पंजीकृत किया गया है। वित्तीय अभाव के कारण दुनियाभर में प्रकृति आधारित समाधान के कार्यान्वयन और उसकी निगरानी मुख्य बाधाओं में से एक माना जाता है।

प्रारम्भिक उच्च निवेश की आवश्यकता

          प्रकृति आधारित समाधान के विकास अथवा पुनर्स्थापना के लिए निवेश की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही इसको बनाये रखना भी आश्यक होता है। विभिन्न प्रकार के प्रकृति आधारित समाधानों से सम्बन्धित आधारभूत ढाँचे के निर्माण के लिए उच्च निवेश की आवश्यकता होती है।

  • उदाहरण के लिए ऊर्जा के क्षेत्र में प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने के लिए उच्च निवेश की आवश्यकता होती है। प्रकृति आधारित समाधान सम्बन्धित तकनीकों का विकास अभी अपनी शैशवास्था में ही है और इसके साथ ही य तकनीके काफी महँगी भी होती है।

प्रकृति आधारित समाधान को लागू करना

                                                            

          प्रकृति आधारित समाधानों को लागू करना सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर किसी ऐसे सर्वमान्य मानक का विकास नही किया जा सका है, जिसको आधार बनाकर प्रकृति आधारित समाधान को उचित रूप् से लागू किया जा सके।

  • आईयूसीएन (IUCN–International Union for Conservation of Nature) के द्वारा प्रकृति आधारित समाधान को लागू करने के लिए कुछ मापदण्ड और सम्बद्व संकेतकों के साथ एक वैश्विक मानक जारी किया गया है, जिसमें सतत् विकास लक्ष्यों और लचीले परियोजना प्रबन्धन की समस्याओं का समाधान किया गया है। परन्तु इसमें अन्तर्निहत कमियों के कारण विभिन्न देश इन्हें लागू करने से बचते हैं।

प्रकृति संरक्षण बनाम विकास

          वर्तमान में विश्व की अधिकाँश आबादी गरीबी, बेरोजगारी, स्वस्थ्य एवं शिक्षा तक पहुँच की कमी’ जैसी समस्याओं का सामना कर रही है। इन सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान विकास को बढ़ावा देना और रोजगार तथा आय के अवसरों का सृजन है।

  • विकसित देश भी अपनी विकास दर को एक निश्चित् स्तर परबनाए रखना चाहते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक देश की प्राथमिकता विकास है। विकास के क्रम में पर्यावरण और प्रकृति आधारित समाधान पीछे छूट जाते हैं, क्योंकि इनको अपनाने से विकास की गति मन्द पड़ जाने का भय रहता है।

प्रशासनिक उदासीनता एवं नीति निर्माण की कमी

          वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में, अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रकृति आधारित समाधानों को अपनाने के प्रति उपेक्षा का भाव पाया जाता है। वैश्विक स्तर पर प्रकृति आधारित समाधान की चर्चा लगभग दो दशकों से की जा रही है। परन्तु विभिन्न देशों के नीति निर्धारण एवं निमार्ण में इसका अभाव पाया जाता है।

  • नीति निर्माण में इसकी उपेक्षा के कारण प्रशासनिक स्तर पर इसे अपनाने के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। यह प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने के प्रति समाज में जागरूकता के अभाव को भी पैदा करता है। इससे एक ही देश में नही वरन् पूरा वैश्विक समुदाय विपरीत रूप से प्रभावित होता है।

प्रभावशीलता का मापन एवं साक्ष्य आधारित योजना निर्माण का अभाव

                                                                      

          प्रकृति आधारित समाधान की सामाजिक-परिस्थितिकीय प्रभावशीलता के मापन के लिए उपयुक्त संकेतक और मैट्रिक्स नही बन पाया है। वास्तव में वैश्विक स्तर पर विशेषज्ञों के मध्य प्रभावशीलता मापन से सम्बन्धित मानक पर सहमति नही बन पायी है।

  • कुछ विशेषज्ञ इसके लिए सामाजिक-आर्थिक, जैव-भैतिक तथा पारिस्थितिक के आधार पर मापन की अनुशंसा करते हैं तो वहीं कुछ विशेषज्ञ मौसमी और स्थानिक परिवर्तन को भी इसमें शामिल करने के पक्ष में हैं। प्रकृति आधारित समाधान की प्रभावशीलता के मापन के लिए उपयुक्त संकेतक और मैट्रिक्स के न होने के कारण साक्ष्य आधारित नीति एवं योजना के निर्माण में कठिनाई उत्पन्न होती है और इससे निर्णय लेने में भी कठिनाई उत्पन्न होती है।

प्रकृति आधारित समाधान एवं सतत विकास

          प्रकृति आधारित समाधान एवं सतत विकास परस्पर एक दूसरे के साथ सम्बद्व है और एक दूसरे के पूरक का भी कार्य करते हैं। सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने 17 सतत विकास लक्ष्यों और 169 उद्देश्यों का निर्धारण किया है, जिनका उद्देश्य वर्ष 2030 तक अधिक सम्पन्न, अधिक समतावादी और आर्थिक संरक्षित विश्व की रचना करता है।

सतत विकास के लक्ष्यः       गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, खुशहाली, लैंगिक समानता, जल उवं स्वच्छता, ऊर्जा, आर्थिक वृद्वि और उत्कृष्ट कार्य, बुनियादी सुविधाएं, उद्योग एवं नवाचार और जलवायु कार्यवाई जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्यवाई के लिए प्रोत्साहित करते हैं। सतत् विकास के लक्ष्यों में प्रकृति आधारित समाधान अन्तर्निहित हैं, जिसे निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-

  • सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी)-2 के द्वारा शून्य भुखमरी लक्ष्य निर्धारित किया गया है और जिसके तहत पारिस्थितिक तन्त्र को बनाए रखने और टिकाऊ खाद्य उत्पादन प्रणाली विकसित करने पर बल दिया जा रहा है।
  • सतत विकास लक्ष्य-3, सतत विकास लक्ष्य-11 तथा सतत विकास लक्ष्य-13 मानव स्वास्थ्य एवं कल्याण पर केन्द्रित हैं, यह मानव कल्याण के लिए प्रकृति आधारित समाधान के उपयोग पर जोर देता है।
  • जल सुरक्षा के लिए प्रकृति आधारित समाधान एसडीजी-6 में निहित है जो स्थाई जल प्रबन्धन सुनिश्चित् करने का लक्ष्य प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत एकीकृत जल प्रबन्धन दृष्टिकोण को भी शामिल किया गया है।
  • सतत विकास लक्ष्य-7 किफयती एवं प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा से संबन्धित है। ऊर्जा की सतत एवं सुलभ उपलब्धता से वंचित लोग विश्व के विकास में भाग लेने से भी वंचित रह जाते हैं। सतत विकास लक्ष्य-7 इस समस्या के समाधान के लिए प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
  • आपदा प्रबन्धन एवं प्रकृति आधारित समाधान को आंशिक रूप से सतत विकास लक्ष्य-1 और 13 के द्वारा सम्बोधित किया गया है जो क्रमशः शहरों और मानव बस्तियों को सुरक्षित एवं वहनीय बनाने, जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूल पर केन्द्रित हैं।
  • सतत विकास लक्ष्य-13 जलवायु परिवर्तन जलवायु परिवर्तन के लिए प्रकृति आधारित समाधान को सतत विकास लक्ष्य-13 के द्वारा आंशिक रूप से संबोधित किया गया है।

प्रकृति आधारित समाधान के नैतिक आयाम

गरीब और वंचित वर्ग की आवश्यकता बनाम प्रकृति आधारित समाधान

          किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की उत्पादक गतिविधियों को पूर्ण करने के क्रम में पर्यावरणीय प्रदूषण में वृद्वि होती है। इसका एक समाधान प्रकृति आधारित समाधान को अपनाना है। परन्तु प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने में बाधाएं भी हैं।

  • प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने की लागत उच्च होती है। अतः गरीब एवं विकासशील देश, जिनके पास संसाधनों का अभाव होता है, उनके समक्ष चुनौति होती है कि इन उच्च कीमतों वाले उपयों में निवेश करे या फिर अपनी गरीब एचं वंचित जनता की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की कोशिश करें।

पर्यावरण संरक्षण बनाम आर्थिक विकास

          प्रकृति आधारित समाधान की अपेक्षा वर्तमान में प्रचलित प्रौद्योगिकी अधिक संसाधन कुशल है। प्रकृति आधारित समाधान को अपनाने से विकासशील देशों के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्था विकास के उचित स्तर को प्राप्त कर चुकी है अतः उनके प्रकृति आधारित समाधान अपनाने से आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़नें की संभावना कम रहती है।

  • विकासशील देशों के द्वारा प्रकृति आधारित समाधान अपनाने से कम आर्थिक विकास प्रतिफल कम प्राप्त होगा जिससे इन देशों के निवासियों का समग्र कल्याण भी प्रभावित होगा।

प्रदूषण की जिम्मेदारी प्रदुषक की

          जलवायु परिवर्तन की समस्या के लिए वर्तमान दौर के लिए विकसित राष्ट्र सर्वाधिक जिम्मेदार हैं और इसके उपरांत भी वे राष्ट्र विकसाशील राष्ट्रों से समान जिम्मेदारी की अपेक्षा रखते हैं तथा प्रकृति आधारित समाधान अपनाने पर जोर दे रहे हैं।

  • जबकि होना यह चाहिए कि जो विकसित देश पर्यावरणीय अवनयन एवं उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, अतः इस दिशा में उन्हें ही प्राथमि