बच्चों का दिमाग कमजोर कर रहा है मोबाइल

                                                   बच्चों का दिमाग कमजोर कर रहा है मोबाइल

                                              

अभी हाल ही में अमेरिका के वाशिंगटन में किए गए एक नये अध्ययन के अनुसार मोबाइल फोन के अधिक इस्तेमाल करने के कारण बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक सेहत पर काफी गंभीर दुष्प्रभाव देखे गए हैं। अमेरिका की सैपियन लैब्स की रिपोर्ट के अनुसार, यदि आप अपने बच्चों को कम उम्र में ही मोबाइल फोन थमा रहे हैं, तो यह उनके संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकता है।

रिपोर्ट के आधार पर किए गए अध्ययन के अनुसार, जितनी कम उम्र में बच्चों के हाथ में मोबाइल आ जाएगा, बच्चों में मानसिक रोगों का खतर भी उतना ही अधिक हो सकता है। अध्ययन में 18 से 24 साल की आयु वर्ग वाले 27,969 लोगों के डाटा को अध्ययन शामिल किया गया था।

                                              

इस अध्ययन के अनुसार जिन लोगों ने बहुत ही कम उम्र से मोबाइल पर अधिक समय व्यतीत करना शुरू कर दिया था, उनमें मानसिक विकास में विकार और स्वास्थ्य से संबंधित दिक्कतें अधिक देखी गई हैं।

सैपियन लैब्स के अनुसार मुख्य वैज्ञानिक डॉक्टर तारा त्यागराजन ने कहा कि विश्व की यह पहली पीढ़ी है जो मोबाइल के साथ किशोरावस्था से गुजर रही है। रिपोर्ट के अनुसार जिन पुरुषों ने 6 साल की उम्र में पहली बार स्मार्टफोन प्राप्त किया, उनमें 18 साल की उम्र में स्मार्टफोन का इस्तेमाल शुरु करने वालों की तुलना में मानसिक विकारों के विकास का खतरा 6 प्रतिशत और महिलाओं में 20 प्रतिशत अधिक था।

                                                      

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में बाल और किशोर मनोचिकित्सक विभाग के प्रमुख बेंजामिन मैक्सवेल कहते हैं कि हमारे पास ऐसे किशोर अधिक आ रहे हैं जो कम उम्र से ही स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते रहे हैं और अब वह अपनी मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित चिंताओं से परेशान हो रहे हैं।

वायू प्रदूषण

                                                   

वातावरण में जहरीली गैसों के कारण बढ़ रही हैं त्वचा की बीमारियाँ- शहरों का बढ़ता ट्रैफिक, सड़कों पर सफर करने वालों के लिए परेशानी का कारण बनता जा रहा है।

वहीं इससे होने वाले वायु प्रदूषण से लोगों को सांस से जुड़ी बीमारियों का खतरा बना रहता है। लेकिन अब अमेरिका में हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि बढ़ता हुआ ट्रेफिक बच्चों की त्वचा के लिए भी खतरनाक साबित हो रहा है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि बढ़ते ट्रैफिक के कारण बच्चों में त्वचा छोड़ने के साथ कई और तरह की परेशानियाँ भी समाने आने लगी है।

बीमारी का यह रूप अटोपिक डर्मेटाइटिस या एग्जिमा भी हो सकता है। दरअसल, ट्रैफिक की वजह से वातावरण में कई तरह की जहरीली गैसे वायुमण्ड़ल फैल जाती हैं, जिनसे प्रदूषण का स्तर इतना अधिक बढ़ जाता है कि इससे बच्चों में अस्थमा के साथ-साथ त्वचा का भी इंफेक्शन भी अब खूब दिखाई देने लगा है और धीरे-धीरे यह स्थिति अधिक खराब होती जा रही है।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने डेनवर प्रांत के वर्ष 2008 से 2021 तक के राष्ट्रीय स्वास्थ्य आंकड़ों का उपयोग किया, इसमें त्वचा की बीमारियों से जूझ रहे 18 साल तक की आयु के रोगियों की समीक्षा की गई थी।

अध्ययन के लेखक माइकल नेविड ने बताया कि अटोपिक डर्मेटाइटिस वाले बच्चों की त्वचा से लगातार एक द्रव टपकता रहता है। पर्यावरणीय खतरों के संपर्क में आने से उन्हें एलर्जी हो भी सकती है।

क्या है अटोपिक डर्मेटाइटिस

एंट्रोपिक डर्मेटाइटिस एग्जिमा आमतौर पर बच्चों को ही होता है। इससे कई अन्य एलर्जी रिएक्शन हो सकते हैं, इसे एंट्रोपिक मार्क भी कहा जाता है। एंट्रॉपिक डर्मेटाइटिस लंबे समय तक चलने वाली बीमारी है। इस बीमारी के दौरान अस्थमा और बुखार भी आ सकता है। अकेले अमेरिका में लगभग एक करोड़ बच्चे इस बीमारी से वर्तमान में जूझ रहे हैं।

दुनिया में 90,00000 मौतों का जिम्मेदार है प्रदूषण

                                                                       

अध्ययन में यह भी कहा गया है कि ट्रैफिक के चलते वायु प्रदूषण सबसे ज्यादा फैला है। दुनिया में 27 प्रतिशत वायु प्रदूषण गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से हो रहा है। इसके चलते 2019 में विश्व के करीब 90,00,000 लोगों की मौत के लिए यह प्रदूषण ही जिम्मेदार था। इनमें से 66.7 लाख मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुई। वहीं भारत में इसी साल 16.70 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हुई थी।

हाईवे से ज्यादा दूर रहने पर बीमारी का खतरा होता है कम

                                                             

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बताया कि कोलोराडो परिवहन विभाग से राजमार्ग और स्थानीय सड़क यातायात का डाटा प्राप्त किया गया। उन इलाकों के बच्चे त्वचा की बीमारियों से ज्यादा जूझते नजर आए जो 10 हजार से अधिक वाहनों के वार्षिक औसत दैनिक यातायात वाली सड़कों या राजमार्गों के किनारे बसे थे। इन आंकड़ों की समीक्षा में पाया गया कि हाईवे से दूर रहने वाले बच्चों को इंफेक्शन का खतरा कम था।

उन्होंने बताया कि राजमार्गों से 1000 मीटर की दूरी पर रहने वाले बच्चों में अटोपिक डर्मेटाइटिस का खतरा कम था, जबकि हाईवे से 500 मीटर की दूरी पर रहने वाले बच्चों में इसका खतरा काफी ज्यादा था।

क्या है इस बीमारी के लक्षण

  • त्वचा लाल हो जाती है।
  • खुजली होना शुरू होती है।
  • हाथ, पैर, गर्दन और कलाई में भूरे रंग दागों का बनना।
  • छोटे-छोटे फोड़े निकलना।
  • शरीर में जगह-जगह पर त्वचा का सिकुड़कर सख्त हो जाती है।

क्या है बचाव के उपाय

  • स्नान केवल 15 मिनट तक ही करें।
  • स्नान करते समय ग्लिसरीनयुक्त साबुन का ही उपयोग करें।
  • स्नान करने के बाद अपने शरीर को अच्छे तरीके से पौंछें।
  • त्वचा के माइश्चराईजेशन का ध्यान रखें।
  • कोई भी परेशानी हो तो डॉक्टर की सलाह लें।

तम्बाकू की जानलेवा लत

                                         

    गत 31 मई, 2023 को विश्व के समस्त देशों में तम्बाकू निषेध दिवस सफलतापूर्वक मानया गया और भारत भी इसका अपवाद नही रहा। वर्तमान में हमारा देश जिन सबसे बड़ी सार्वजनिक चुनौतियों का समाना कर रहा है, उनमें से एक प्रमुख है कैंसर के रोगियों का बढ़ना है।

    लोकसभा में प्रश्न काल के दौरान एक प्रश्न के उत्तर में उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसाार, देश के विभिन्न राज्यों में कैंसर के कुल मामलों की संख्या वर्ष 2020 में 13.92 लाख थी, जो कि वर्ष 2022 में बढ़कर 14.61 लाख हो गई है, हालांकि यह आंकड़ें पूरी तरह से इस तस्वीर को स्पष्ट नही करते हैं।

    सितम्बर, 2022 में, स्वास्थ्य पर संसद की स्थाई समिति के द्वारा, कैंसर देखभाल योजना और प्रबन्धन की एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसके अन्तर्गत भारत में कैंसर होने के कारणों का विस्तृत अध्ययन किया गया था और इसमें कुछ नीतिगत बदलावों की सिफारिशों भी की गई थी।

    उक्त रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि भारत में तम्बाकू के कारण होने वाले मुँह के कैंसर से सबसे अधिक जानें जाती हैं। केवल इतना ही नही, तम्बाकू का प्रयोग कई अन्य गैर-संचारी रोगों के साथ जुड़ाव होता है, जिसके चलते प्रतिवर्ष लगभग 13.5 लाख मौतें होती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में ही, सरकार से तम्बाकू की खपत कम करने सिफारिश भी की गई थी।

                                                       

    इस रिपोर्ट के पेशकर्ताओं ने अनुभव किया कि काटपा (सीओटीपीए), वर्ष 2003 एक तम्बाकू रोधी कानून है और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 में तम्बाकू के उपयोग में वर्ष 2025 तक 30 प्रतिशत के सापेक्ष कमी करने का लक्ष्य पाने के लिए कुछ बदलाव अवश्य ही किए जाने चाहिए।

    रिपोर्ट में सिफारिश की गई हैं कि तम्बाकू मुक्त पर्यावरण नीति को प्रोत्साहित करने के लिए हवाई अड्ड़ों, होटलों एवं रेस्तरां आदि में निर्धारित धूम्रपान क्षेत्र (डीएसए) को भी समाप्त करने की जरूरत है और पैकेट के बिना एक भी सिगरेट अथवा बीड़ी आदि की बिक्री को भी प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए।

    विभिन्न अनुसंधान इंगित करते हैं कि सिगरेट की कीमतों में 10 प्रतिशत की वृद्वि करना, भारत के जैसे निम्न एवं मध्यम आय वर्ग के देशो में धूम्रपान को 08 प्रतिशत कम कर सकती है। यहाँ यह भी नोट किया जाना चाहिए कि वर्ष 2020 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोटपा में संशोधन के लिए एक मसौदा विधेयक पेश किया था।

    उक्त विधेयक अभी तक भी सरकार के पास विचाराधीन है। तम्बाकू से होने वाले नुकसानों को देखते हुए यह आशा की जानी चाहिए कि सरकार जल्द से जल्द संसद में पारित कराएगी, जिससे कि किसी को इस तम्बाकू के कारण किसी अपने को न खोना पड़े।