पपीते की अंतर फसली खेती से बढ़ेगी किसानों की आय

                                                       पपीते की अंतर फसली खेती से बढ़ेगी किसानों की आय

                                                                                                                                                                     डॉ0 आर. एस. सेंगर

                                                  

पपीता, उन फलदार फसलों में से एक है, जिसकी खेती किसानों की आय बढ़ाने के लिए की जा सकती है। पपीता फलोद्यान में अंतर फसल के रूप में सब्जी फसलों को शामिल करने को उचित माना जा सकता है। अंतर फसल के रूप में बढ़ रही अन्य फसलों में इस प्रारंभिक अवधि का उपयोग किया जा सकता है। इससे किसानों को किसी एक फसल के मामले में लंबी अवधि तक उत्पाद की प्रतीक्षा करने के स्थान पर समय-समय पर उसके उत्पादों की तुड़ाई करते हुए आमदनी के नियमित स्रोत को प्राप्त करने में काफी मदद मिलेगी।

हमारे देश में बागवानी सेक्टर आय सृजन करने वाली प्रमुख कृषि गतिविधियों के रूप में उभर कर सामने आया है, इसमें बागवानी फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों में पर्याप्त बढ़ोतरी के साथ अन्य मूल्य-वर्धित कार्य-कलाप सन्निहत हैं। अन्य फसलों के मुकाबले में बागवानी फसलों में वंशानुगत लाभ है। इसके परिणाम स्वरूप देश के ग्रामीण इलाकों में कई उच्चतर आमदनी और रोजगार सृजन करने के अवसर भी मिलते हैं।

क्यों आवश्यक है अंतः फसल चक्र

                                                                

जब एक अथवा दो फसलों को एक साथ उगाया जाता है, तो प्रत्येक फसल में अधिकतम सहयोग करने के लिए पर्याप्त स्थान होना चाहिए और साथ ही इन दोनों फसलों के बीच प्रतिस्पर्धा भी कम होनी चाहिए। इसे निम्नलिखित कारकों की स्थानिक व्यवस्था, पादप सघनता, उगाई गई फसलों की परिपक्वता, पादप आर्किटेक्चर के द्वारा संपन्न किया जाता है। अंतर चक्र फसल को मूल रूप से जलवायु परिस्थितियों में अनियमित बदलाव के कारण फसल असफलता के विरुद्ध एक बीमे के रूप में आजमाया जाता है। लेकिन वर्तमान में अंतर फसल चक्र का उद्देश्य उत्पादन में स्थिरता के अलावा प्रति इकाई क्षेत्रफल में कहीं अधिक उत्पादकता लाना है।

इस प्रणाली में संसाधनों का उपयोग प्रभावी रूप में किया जाता है और उत्पादकता को बढ़ाया जाता है जिसका सीधा लाभ किसानों को मिलता है। पपीता भी उन फसलों में से एक है, जो कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए लगाया जा सकता है। इसकी पौष्टिकता के कारण दुनिया भर में इसे उगाया जाता है। पपीता के फल में विटामिन ए, पोटेशियम, कैल्शियम और मैग्नीशियम से भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते है। पपीता, पाचन को बढ़ावा देने में भी मदद करता है, आजकल पपीते के पत्तों को सबसे ज्यादा डेंगू बीमारी के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है ताकि रक्त में प्लेटलेट्स की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हो सके।

पपीता फल उद्यान में अंतर फसल चक्र को अपनाना लाभकारी होता है। जब पपीते का प्रति क्षेत्रफल सूचकांक लीफ एरिया इंडेक्स कम होता है तब पपीते की अगली साकी और पछेती फलन अवस्थाओं में यह सीमित होना चाहिए। फल लगने से पहले वाली अवस्थाओं मैं जब पपीते के पौधे युवा होते हैं तब गर्मियों में प्याज, फ्रेंच बीन और लोबिया जैसी कम अवधि वाली अंतर फसलों को और सर्दियों में फूल गोभी, बंद गोभी, मूली और मटर की अंतर फसलों को उगाना लाभदायक होता है। इससे किसानों की आमदनी बढ़ती है कुछ किसान मृदा के उपजाऊ पन में सुधार करने और मृदा को खरपतवारों से मुक्त बनाए रखने के लिए पपीता के फल उद्यान में हरी खाद की फसलों को उगाना पसंद करते हैं।

पपीता फलोद्यान में रोपी गई अंतर फसलों के अपने आर्थिक लाभ भी होते है जैसे कि अकेले फसल चक्र के मुकाबले में पृथ्वी का क्षेत्रफल से अतिरिक्त आय उत्पन्न करना, असमान वर्ष में फसल की असफलता के मामले में फसल बीमे के रूप में कार्य करना, मृदा की उर्वरता को बनाए रखना आदि। इसके साथ ही मृदा में जल अपवाह को कम करने और खरपतवारों की रोकथाम में भी यह विधि प्रयोग की जा सकती है।

                                                    

पपीता फल उद्यान में अंतर फसल के रूप में सब्जी फसलों को शामिल करने को भी उचित ठहराया जा सकता है। अधिक समय तक उपज देने वाली पपीता फलदार फसल में बहार आने से पहले पौष्टिक और आर्थिक कारणों से एक अति उपज शील फसल प्राप्त करने में एक अंतर फसल चक्र प्रणाली के तहत मदद मिलती है।

पपीते में सफल अंतर फसल के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं- जैसे कि पपीते में जो अंतर फसल प्रणाली के तहत उगाई जाती है, उसकी पोषक मांग के समय को इंटर क्रॉपिंग सिस्टम से और लाइफ नहीं होना चाहिए, अंतर फसलों के बीच प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा न्यूनतम होनी चाहिए एवं इंटरक्रॉप्स की कटाई पपीते की घनी कैनोपी अवस्था से पहले होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि इंटरक्रॉप्स एवं पपीते के विषाणु आपस में संक्रमित ना हो, इसलिए हमें असम विषाणु में ही लगानी चाहिए।

दुगुनी आय प्राप्त करने के लिए किसान अंतर फसल के साथ-साथ पपीते में बाढ़ फसल के रूप में अमरूद एवं मोरिंगा अर्थात सहजन आदि को भी लगा सकते हैं। मोरिंगा की पत्तियों और फलियों की सब्जी बनाई जाती है। इससे किसान बाढ़ फसल का भी निरंतर लाभ उठा सकते हैं इससे उनकी आय में काफी बढ़ोतरी हो सकती है।

पपीता की फसल के लिए आवश्यक जलवायु एवं मृदा

                                                                 

पपीता मूल रूप से बंधी एक पौधा है हालांकि यह अन्य देश के दूसरे भागों में भी उगाया जा सकता है। कम तापमान और पाला इसकी खेती को अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में सीमित करते हैं, रात में अत्यधिक सर्दी पड़ने से इसके फल में परिपक्वता धीमी होती है और सर्दियों के मौसम में इसकी गुणवत्ता भी खराब होती है। इसे अर्ध-उष्णकटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय जलवायु में उगाया जा सकता है। इसकी खेती 25 से 35 सेल्सियस तापमान में की जाती है अधिक आद्रता से फलों की मधुरता प्रभावित होती है। कम तापमान वाली स्थितियों में भी फल अपनी मधुरता अथवा मिठास को खो देते है।

फलों के पकने वाले मौसम में गर्म और शुष्क जलवायु की जरूरत होती है, पतली जड़ वाला पौधा होने के कारण यह तेज हवाओं में खड़ा नहीं रह पाता है। पपीते को केवल रेतीली और अथवा भारी मृदाओं को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार की मृदा में आसानी से उगाया जा सकता है। इसकी जड़ें जलभराव अथवा खेत में पानी खड़ा रहने के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, यहां तक कि 48 घंटों तक जलभराव होना पौधों के लिए घातक हो सकता है। भारी मृदा में अधिक वर्षा होने पर क्षेत्र में पानी एकत्र हो जाता है और पादप विलगन तथा जड़ सड़न जैसे रोग होने लगते हैं, जिससे बहुत कम समय में भी पपीते की फसल को भारी नुकसान हो सकता है। जैविक सामग्री में अच्छी जल निकासी होने के कारण इस इलाके की पर्वतीय मृदा सबसे अधिक अच्छी पाई जाती है।

पपीते की नर्सरी तैयार करने की विधि

                                                      

पपीते को हमेशा से बीजों द्वारा परिवर्धित किया जाता है। खेत में पौधरोपण की तय तारीख से 2 ढाई माह पहले ही नर्सरी में बुवाई कर देनी चाहिए। 20 सेंटीमीटर गुणा 15 सेंटीमीटर आकार वाले तथा 150 गेज की  मोटाई वाले गड्ढ़ों में पॉलिथीन खोलों में बिजाई करना बेहतर रहता है। भारी और मध्यम प्रकृति वाली मृदाओं के खेतों में गोबर की खाद, मृदा और रेत का एक अनुपात एक अनुपात एक मिश्रण भरा जाना चाहिए। दोमट मृदा वाले  पूर्वात्तर क्षेत्रों के लिए एक भाग मृदा और एक भाग गोबर की खाद का पार्टिंग मिश्रण अनुकूल रहता है। बीजाई करने से पूर्व बीजों को 2 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर पर कैप्टन के साथ उपचारित करना चाहिए। पॉलीथिन थैलों में जिन की गहराई 1 सेंटीमीटर से अधिक नहीं हो, में चार बीजों को डालना चाहिए पाइप की मदद से सिंचाई की जा सकती है।

वर्षा काल को छोड़कर प्रत्येक काल में हल्की सिंचाई करनी चाहिए। बीज 2 से 3 सप्ताह में अंकुरित हो जाते हैं। 1 हेक्टेयर में रोपाई करने के लिए पौध पर्याप्त संख्या को तैयार करने हेतु लगभग 250 से 300 ग्राम बीज ही पर्याप्त होते हैं। यूरिया अथवा अमोनियम सल्फेट को शामिल करके है, पौध की शीर्ष ड्रेसिंग करने से बचा जाना चाहिए क्योंकि इससे डंपिंग ऑफ रोग और ऊंचे और दुबले-पतले पौधों के विकास को बढ़ावा मिलता है। यह रोपाई के लिए कम उपयुक्त होती है। नर्सरी में पौध तैयार करने का प्रमुख प्रयोजन संयुक्त जड़ों और पत्तियों की बड़ी संख्या वाली स्वस्थ पौध रोपण अवस्था में 15 से 20 सेंटीमीटर ऊंची तथा स्टाफ की पौध हासिल करना है। पोटिंग मिश्रण तैयार करने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली गोबर की खाद का उपयोग करना अच्छा रहता है। रोपाई के लिए पौधा लगभग 60 सेंटीमीटर में तैयार हो जाता है।

पौधरोपण कब और कैसे

मई महीने के प्रथम सप्ताह में 2 से 2.5 मीटर की दूरी बनाए रखते हुए, 50 सेंटीमीटर आकार वाले गड्ढे तैयार किए जाते हैं। एक पखवाड़े तक गड्ढों को खुली धूप में रहने दिया जाए और बाद में उनमें मिट्टी की ऊपरी परत के साथ 20 से 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 से 1.5 किलोग्राम लकड़ी की राख और एक ग्राम लकड़ी का चूरा भर दिया जाता है। वर्षा नहीं होने की स्थिति में गमलों में जल डाल दिया जाता है ताकि मिश्रण की सही तरीके से मिल सके। रोपाई करने से पहले दीमक के हमले से बचाव के लिए गड्ढों को 6.9 मीटर किया जाता है।

                                                                     

जब पौधे 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे हो जाते है तब रेंजर लेडीस की मदद से खेलों को काट दिया जाता है और पौधों को सायंकाल के समय में गड्ढों में रोप दिया जाता है। प्रत्येक गड्ढे में लगभग 15 सेंटीमीटर ऊपर आमतौर पर 3 पौधों की रोपाई की जाती है। पौधरोपण दबाव से तेजी से निपटने के लिए उपाय के तुरंत बाद सिंचाई करना जरूरी होता है, हमारे देश के पश्चिमी भाग में नर्सरी में तैयार की गई पपीता पौध को ऐसे खेत में रोपा जाना चाहिए जहां फसल की बढ़वार अवस्था के दौरान एफिड वेक्टर संख्या कम बनी रहे, इससे वायरस संक्रमण के कारण होने वाले नुकसान से बचने में मदद मिलती है। आमतौर पर जून से अक्टूबर के स्थान पर फरवरी के महीने में रोपाई करने पर पौधों पर एफिड के हमले को कम करने में मदद मिलती है।

पपीता पौध की रोपाई करने के तुरंत बाद तथा पौध जमाव के कुछ दिनों बाद अंतर फसल चक्र के तहत अल्पावधि वाली फसलों की खेती की जा सकती है। इस संबंध में हमारे केंद्र पर एक परीक्षण किया गया जिसमें पाया गया कि आमतौर पर खेत में 40 से 45 दिनों पुरानी पपीता पौधों को रोपा जाता है और जैसे ही पौध जम जाती है और उसमें दो से तीन नई पत्तियां निकल आती हैं तब मेथी, पालक, धनिया आदि जैसी पत्तेदार सब्जियां अथवा यहां तक कि कद्दू, लौकी, खीरा, चिड़चिड़ा स्क्वायर आदि जैसी खीरा वर्गीय फसलों अथवा गेंदा या गुलदाउदी जैसी पुष्पीय पौधों को पपीता पौधों के समांतर बोया जा सकता है।

खीरा वर्गीय फसलों के बीजों को जहां गेंदा जैसी फसलों को रोपा गया था निकट सीधे ही बोया जाता है। पपीते की दो कतारों के बीच में पत्तेदार सब्जी फसलों की पंक्ति में बुवाई की जाती है अथवा रोपायी के 1 से डेढ़ महीने के बाद पत्तेदार सब्जी फसलों को रोपाई कर ली जाती है, जबकि खीरा वर्गीय और पुष्पीय फसलों में राई का रोपण 4 से 5 महीने बाद किया जा सकता है। सीमा फसल के रूप में सहजन और अमरूद से भी किसान प्रति यूनिट क्षेत्र में उपज में वृद्धि कर सकते हैं। अतः किसानों को चाहिए कि वह अपनी मेड के चारों तरफ वृक्षों को जरूर लगा लें जिससे उसकी आय में बढ़ोतरी हो सके।

खाद डालना एवं अंतर संवर्धन कार्य कब और कैसे

पपीते के पौधे के पोषण के लिए पौधरोपण से पहली बार उत्पन्न होने तक की 5 माह की अवधि महत्वपूर्ण होती है। फूल आने से कुछ ही समय पहले पौधे द्वारा प्राप्त की गई तना परिधि से ही किसी पौधे में खोज एवं उसकी उत्पादकता का निर्णय होता है यदि अपर्याप्त पोषण के कारण इस अवधि में पौधा कमजोर बना रहता है तब उसका शेष जीवन इस कमी से प्रभावित ही रहता है। इसलिए फूल आने से पहले एक मजबूत और ओजपूर्ण पौधा निर्माण तथा पौधों की अनुवर्ती बड़वार और उत्पादकता के लिए उचित मात्रा में थोड़े-थोड़े अंतराल पर उर्वरकों का प्रयोग करते रहना चाहिए और वर्गीकरण के समय मृदा में नमी पर्याप्त मात्रा में बनी रहनी चाहिए। हल्की खुदाई करके अथवा कुदाल की मदद से सिंचाई में अथवा बेसिन में उर्वरकों को अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।

फसल की कटाई करने से 6 माह पहले ही उर्वरकों का प्रयोग बंद कर देना चाहिए। पपीते के पौधे बहुत तेजी से बढ़ते हैं, 1 वर्ष के समय काल में ही उसमें फल आ जाते हैं। इसलिए किसानों की आय को दोगुना करने हेतु आमतौर पर अंतर फसलों की खेती की जा सकती है क्योंकि पपीते की फसल में फलों की कटाई करने में लगभग 1 वर्ष का समय लगता है। इसलिए अंतर फसलों के रूप में बढ़ रही अन्य फसलों में प्रारंभिक अवधि का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें किसानों को किसी एकांक की फसल के मामले में लंबी अवधि तक उत्पादन की प्रतीक्षा करने के बजाय समय-समय पर उत्पाद की बुआई करते हुए आमदनी के स्रोत पाने में मदद मिलेगी। जब कभी आवश्यकता हो तब खरपतवारों को हटाना चाहिए और साथ ही उसकी जगह पर कुदाल चलाने की जरूरत होती है। जैसे ही उनकी मौजूदगी दिखाई दे उसमें से अधिकांश को हटा देना चाहिए। 

                                                        

अधिक भीड़भाड़ से बचने के लिए नियमित रूप से पाक्षिक अंतराल पर फलों के चयन का कार्य किया जाता है। जलवायु परिस्थितियों के कारण कभी-कभी फूल अथवा फल पौधों से गिरने लगते हैं। फल पूरी तरह से पकने में लगभग 4 से 5 महीने का समय लेते हैं, पेड़ पर पकने वाले फल सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले होते हैं और साथ ही परिजनों के साथ-साथ स्थानीय बाजार के लिए भी उपयुक्त होते हैं। लेकिन दूर भारतीय बाजारों के लिए फलों में जब उनका शिखर बिंदु पीला होने लगता है तब ही कटाई कर ली जाती है।

पेड़ पर फलों को अधिक देर तक नहीं रहने देना चाहिए क्योंकि इससे पक्षी उन्हें आसानी से नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस क्षेत्र में व्यवसायिक रोपण के अंतर्गत प्रति 20 से 35 किलोग्राम के औसत भार के साथ प्रति हेक्टयर 50 फल की उपज आसनी से प्राप्त हो जाती है।

पपीते की फसल भारतीय किसानों के लिए एक पोषण से भरपूर स्रोत के रूप में वितरित की जानी चाहिए। इसके अलावा सब्जी के रूप में भी पीआरएसवी 6चे वंश क्रमो पुणे सिलेक्शन 123 एवं 5 की सिफारिश की जाती है। साथ ही पपीते के खेत में मिश्रित फसल चक्र के तौर पर धनिया, मेथी और ड्रमस्टिक आदि को भी शामिल करने पर किसानों को अतिरिक्त लाभ मिलता है।

किसानों को पपीता फलों की तुड़ाई करने की लंबी अवधि तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है। फसलों तथा अन्य उद्यमों की उपज अथवा उत्पादकता में वृद्धि अकेला ऐसा महत्वपूर्ण कारक है जिससे किसानों की आमदनी बढ़ सकती है। इसलिए किसानों को चाहिए कि वह नई तकनीकों का अपनी खेती किसानी में प्रयोग करें और टिशु कल्चर से उत्पन्न किए गए पपीते की पौध के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय खेती को बढ़ाएं जिससे उपज बढ़ेगी और आय भी बढ़ सकेगी।

लेखकः डॉ0 सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ के कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर स्थित कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हैं।