भारत में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों की भूमिका एवं आर्थिक विकास में योगदान

                                       भारत में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों की भूमिका एवं आर्थिक विकास में योगदान

                                                                                                                       डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

एमएसएमई क्षेत्र द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र के लिए सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। यह क्षेत्र अर्थव्यवस्था में उद्यमिता को बढ़ावा देने के साथ ही रोजगार के अवसर भी सृजित करता है। आरबीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार एमएसएमई क्षेत्र, आर्थिक विकास, नवाचार और रोजगार के सर्वाधिक सुदृढ़ संचालकों में से एक है।

                                                                     

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगीकरण में भी पर्याप्त योगदान करते हैं। इस प्रकार से यह क्षेत्रीय असंतुलन को कम करते हुए, राष्ट्रीय आय और सम्पत्ति के समान वितरण में अहम भूमिका निभाता है।

भारतीय औद्योगिक मूल्य श्रृंखला परिषद (IIVCC) के अनुसार भारत में कोयला के संकट के कारण 5,000 से अधिक छोटे एवं मध्यम आकार वाले उद्यम (SMEs), जो एल्युमीनियम मूल्य श्रंृखला का हिस्सा हैं, को भारी नुकसान होने का खतरा आसन्न है। आपूर्ति श्रंृखला के के वर्तमान संकट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के रोजगार तथा उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण ‘एमएसएमई क्षेत्र’ (MSMEs Sctors) के समक्ष इस संकट से उबरने की गम्भीर चुनौती है।

  • भारत की विशाल आबादी के लिए उपयुक्त आय के अवसर उपलब्ध कराने में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (MSMEs) का एक विशेष स्थान है। यह उद्यमिता को बढ़ावा देने के साथ ही रोजगार के अवसर भी सृजित करता है तथा व्यापक स्तर पर विभिन्न प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करता है। यह क्षेत्र 6,000 से अधिक उत्पादों की इंजीनियरिंग में संलग्न है, जिनमें परंपरागत से लेकर अति नवीन विकसित प्रौद्योगिकी विषयक उत्पाद भी शामिल हैं।
  • भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, एमएसएमई क्षेत्र आर्थिक विकास विकास, नवाचार और रोजगार के सबसे मजबूत संचालकों में से एक है। वर्ष 2000-01 से एमएसएमई क्षेत्र की वृद्वि ने लगभग प्रत्येक वर्ष देश के समग्र औद्योगिक विकास में अति महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। इस क्षेत्र के प्रमुख आकर्षणों में से एक यह है कि इसमें अपेक्षाकृत कम पूँजी निवेश पर अधिक रोजागारों के सृजन की सम्भावना विद्यमान होती है।

एमएसएमई किन उद्यमों को कहा जाता है?

                                                                 

    वर्ष 2000 में भारत सरकार के द्वारा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम आकार के उद्यमों की परिभाषा में व्यापक परिवर्तन किया गया और नई परिभाषा के अनुसार, 1 करोड़ रूपये के निवेश तथा 5 करोड़ रूपये तक के कारोबार अथवा टर्नओवर वाली किसी भी फर्म को अब ‘सूक्ष्म’ (Micro) उद्यम के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

  • 10 करोड़ रूपये के निवेश तथा 50 करोड़ रूपये तक के टर्नओवर वाली कम्पनियों को ‘लघु’ (Small) उद्यम तथा 20 करोड़ रूपये तक के निवेश तथा 100 करोड़ रूपये तक के टर्नओवर वाली कम्पनियों को ‘मध्यम’ (Medium) उद्यम के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • सरकार नई परिभाषा में विनिर्माण-आधारित एमएसएमई तथा सेवा-आधारित एमएसएमई के बीच के अंतर को समाप्त कर दिया है।

 भारत के परिप्रेक्ष्य में एमएसएमई महत्व

  • अर्थव्यवस्था के लिए महत्वः एमएसएमई क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 37.54 प्रतिशत, विनिर्माण उत्पाद में लगभग 45 प्रतिशत तथा कुल निर्यात में 40 प्रतिशत से अधिक का योगदान प्रदान करता है। यह क्षेत्र लगभग 63.38 मिलियन उद्यमों के विशाल नेटवर्क के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्वि में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
  • रोजगार जननः यह क्षेत्र देश की श्रम-शक्ति के एक बड़े भाग के लिए रोजगार का सृजन करता है। मात्रा के सम्बन्ध में यह आंकड़ा देश के कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक है। एमएसएमई मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट (2018-19) के अनुयार देश में 6.34 करोड़ सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग हैं। इनमें से 51 प्रतिशत एमएसएमई, ग्रामीण क्षेत्रों से हैं, जबकि 49 प्रतिशत एमएसएमई शहरी क्षेत्रों में स्थित है। कुल मिलाकर यह क्षेत्र 11 करोड़ लोगों को रोजगार देता है, हालांकि कुल रोजगार में 55 प्रतिशत की हिस्सेदारी शहरी क्षेत्रों की है।
  • क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने में सहायकः एमएसएमई ग्रामीण और पिछड़े हुए क्षेत्रों के औद्योगीकरण में भी सहायता करते हैं। इस प्रकार से क्षेत्रीय असंतुलन को कम करते हुए, राष्ट्रीय आय और सम्पत्ति के समान वितरण में भी सहायता प्रदान करते हैं। एमएसएमई क्षेत्र पिछले 5 दशकों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के बेहद जीवंत और गतिशील क्षेत्र के रूप में उभरकर सामने आया है। एमएसएमई इकाई को प्रारम्भ करने में बड़े उद्योगों की अपेक्षा कम पूँजीगत लागत की आवश्यकता होती है और इनसे अपेक्षाकृत अधिक रोजगार के अवसरों का सृजन होता है।
  • वृहद उद्योगों के पूरकः सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यम सहायक इकाईयों के रूप में बड़े उद्योगों के पूरक हैं। यह बड़े़ बड़े उद्यमों के लिए सहायक इकाई के रूप में कार्य करते हैं। एमएसएमई उद्योगों का एक बड़ा हिस्सा 6,000 औद्योगिक कलस्टरों के आस-पास संकेन्द्रित होने का अनुमान है।
  • बेरोजगारी की समस्या का समाधानः एमएसएमई ग्रामीण एवं कृषि क्षेत्र में व्याप्त प्र्रच्छन्न बेरोजगारी को दूर करने में भी सहायक हैं। भारतीय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम स्वरोजगार के लिए अवसरों को भी उपलब्ध कराते हैं और दिहाड़ी मजदूरों के लिए अवसर प्रदान करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष के कुछ ही महीनों में कृषि कार्य किए जाते हैं, और बाकी के समय में कृषि मजदूरों को कृषि क्षेत्र से बाहर एमएसएमई क्षेत्र में बिना किसी कौशल के ही रोजगार प्राप्त हो जाता है।
  • संतुलित सामाजिक एवं आर्थिक विकासः एमएसएमई क्षेत्र देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के अंतर्गत बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान देता है। देश में ऐसे बहुत से सूक्ष्म एव लघु उद्यम है, जिनका स्वामित्व महिलाओं और जनजातियों के पास है। इस प्रकार यह क्षेत्र लैंगिक और सामाजिक स्तरीकरण में व्याप्त असंतुलन को दूर करने में भी सहायक है। पर्यावरण की दृष्टि से भी यह संवहनीय विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर रहा है।

एमएसएमई उद्योगों के द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियाँ

                                                           

  • वित्त प्राप्ति की समस्याः एमएसएमई क्षेत्र के विकास में ऋृण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उचित लागत पर धन की उपलब्धता इनके बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा को बढ़ा सकती है। वर्तमान समय में सरकार के द्वारा एमएसएमई क्षेत्र में वित्त के प्रवाह को सुनिश्चित् करने के लिए अनेक योजनाओं को आरम्भ किया गया है, परन्तु यह एमएसएमई क्षेत्र की आवश्यकताओं के अनुरूप नही है।
  • नियामक बाधाः भारत में एमएसएमई क्षेत्र से सम्बन्धित उचित पारितन्त्र की रचना करने में विभिन्न प्रकार की नियामक बाधाएं आती हैं। इसका एक मुख्य कारण एमएसएमई क्षेत्र में अधिकांश उद्यमों का अनौपचारिक रूप से कार्य करना है। इसके कारण इस क्षेत्र से सम्बन्धित आवश्यक डेटा का अभाव भी उत्पन्न होता है और इनकी आवश्यकता के अनुरूप उचित नियामक व्यवस्था का सृजन करने में बाधा उत्पन्न होती है।
  • आधुनिक एवं किफायती प्रौद्योगिकी तक पहुँच की कमीः  भारत में विद्यमान अधिकांश एमएसएमई क्षेत्र के उद्यम पूरानी तकनीकों का उपयोग कर वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करते हैं। वित्त एवं ऋण तक पहुँच के अभाव में आधुनिक एवं किफायती प्रौद्योगिकी तक इनकी पहुँच बाधित होती है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग न कर पाने के कारण इनकी उत्पादकता का स्तर निम्न होता है और इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता भी निम्न होती है।
  • बुनियादी ढाँचें की कमीः एमएसएमई क्षेत्र के द्वारा उत्पादन से लेकर विपणन तक आवश्यक बुनियादी ढाँचे की कमी का सामना किया जाता है। यह विशेष रूप से सूक्ष्म उद्यमों के लिए तो बिलकुल सत्य है, जिनके द्वारा इनके व्यवसायिक संचालन में दिन-प्रतिदिन विभिन्न समस्याओं का सामना किया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें भविष्य की सम्भावनाओं का लाभ उठानें में समस्याएं आती है।
  • आधुनिक विपणन एवं वितरण नेटवर्क का अभावः एमएसएमई क्षेत्र का आकार छोटा होता है तथा इनकी विपणन आवश्यकताएं भी अन्य बड़े आकार के उद्यमों से अलग प्रकार की होती हैं। वर्तमान में इनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला आधुनिक विपणन एवं वितरण नेटवर्क का अभाव पाया जाता है। इसके चलते इन्हें अपने उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण रखने में भी कठिनाई आती है।
  • कच्चे माल की उपलब्धताः भारत में कार्यरत एमएसएमई की एक बड़ी संख्या कृषि से कच्चे माल की प्राप्ति पर निर्भर करती है और भारतीय कृषि का मानसून पर निर्भर होने के कारण कृषि उत्पादन काफी अनिश्चित होता है और इसी कारण इनके मूल्य में भी अस्थिरता रहती है। अतः बाजार के द्वारा समय-समय पर कच्चे माल की कीमतों में वृद्वि कर दी जाती है, जिससे एमएसएमई के द्वारा अपने उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण रख पाना काफी कठिन हो जाता है। इसके साथ ही भारत के एमएसएमई क्षेत्र का स्वरूप भी अनौपचारिक ही है। इनके पास उपलब्ध संसाधन इतने पर्याप्त नही होते हैं जो भविष्य में बाजार की माँग में परिवर्तन के अनुसार कच्चे माल की आपूर्ति को सुनिश्चित कर सकें। इसके कारण लम्बे समय तक उचित मात्रा में तथा समय पर कच्चे माल की प्राप्ति नही हो पाती है।
  • `शोध एवं विकास की कमीः एमएसएमई के पास इतने संसाधन नही होते हैं कि वे उत्पाद विकास, डिजाइनिंग, पैकेजिंग के लिए शोध एवं विकास पर उचित मात्रा में धन का व्यय कर सकें। एमएसएमई किसी भी प्रौद्योगिकी को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित करने के स्थान पर बाहरी संस्थाओं की प्रौद्योगिकियों पर अधिक निर्भर रहते हैं। शोध एवं विकास में व्यय की कमी एवं नवाचार के अभाव में इनके द्वारा उत्पादित वस्तु वैश्विक मानकों के अनुरूप नही होती हैं।
  • कुशल मानव संसाधन की कमी एवं श्रमिकों का शोषणः मानव संसाधन प्रबन्धन के क्षेत्र में एमएसएमई क्षेत्रों के द्वारा दोहरी समस्याओं का समाना किया जाता है। एमएसएमई की माँग के अनुरूप कुशल श्रमिकों का अभाव होता है और इस कारण इस क्षेत्र में अधिकांशतः अकुशल श्रमिकों के द्वारा उत्पादन गतिविधियों का संचालन किया जाता है।
  • विभिन्न श्रम कानूनों से बचने के लिए एमएसएमई क्षेत्र में बिचौलियों की सहायता से ठेके पर श्रम नियोजन किया जाता है।  जिसके कारण उद्यमियों एवं श्रमिकों के मध्य रहने वाला सम्बन्ध समाप्त हो जाता है और बिचौलिये अथवा ठेकेदार के द्वारा श्रमिकों का शोषण किया जाता है। जटिल श्रम कानूनों के कारण लघु उद्यमो ने नियमित श्रमिकों की भर्ती के स्थान पर अनुबन्ध पर कामगारों को रखना आरम्भ कर दिया है। इस समस्या को देखते हुए द्वितीय श्रम आयोग ने लघु उद्यमों के लिए पृथक कानून बनाने की सिफारिश भी की है।

भावी दिशा

                                                  

  • जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा बढ़ानाः एमएसएमई क्षेत्र को गति देने के लिए विनिर्माण क्षेत्र को जीडीपी के 25 प्रतिशत तक के लक्ष्य पर लेकर जाने के लिए तेजी से कार्य करना होगा। बड़े उद्योग ही छोटे एवं मध्यम उद्यमों के बाजार हैं, जब बड़े उद्योगों में माँग बढ़ेगी तो एमएसएमई क्षेत्र भी अधिक लोगों को उसकी उत्पादक गतिविधियों में नियोजित किया जा सकेगा।
  • वित एवं ऋण तक पहुँच को सुनिशिचत करनाः यू0 के0 सिन्हा समिति के सुझाव के अनुरूप 10,000 करोड़ रूपये के ‘फंड ऑफ फंड्स’ का निर्माण किया जाना चाहिए। सरकार के द्वारा प्रायोजित यह फंड एमएसएमई में निवेश करने वाली उद्यम पूँजी और निजी इक्विटी फर्मों का समर्थन करेगा। एमएसएमई क्षेत्र के लिए बुनियादी ढाँचे का निर्माण, शोध एव्र विकास आदि के लिए संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ानें में भी सहायता प्राप्त होगी।
  • सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) की परिभाषा में किए गए बदलाव से इस क्षेत्र को बड़ी राहत मिलेगी, परिभाषा में बदलाव से वस्त्र उद्योग को काफी लाभ होगा और इस क्षेत्र के कुछ निर्यातकों को एमएसएमई के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है और उन्हें ब्याज वार्षिक योजना के तहत 5 प्रतिशत तक की छूट मिल सकती है। इससे भारतीय वस्त्र उद्योग वैविक बाजार में विस्तारित हो सकेगा और भारतीय वस्त्रों के निर्यात को बढ़ावा मिलेगा।
  • उचित नीति निर्माणः वर्तमान में भारत में एक ऐसी नीति का अभाव है कि जो एमएसएमई क्षेत्र के लिए एक उचित पारितंत्र का निर्माण करती हों। सरकार के द्वारा एमएसएमई क्षेत्र से खरीद के सम्बन्ध में नीतियों की घोषणा तो की गई है परन्तु यह अपर्याप्त है। अतः इसके लिए लिए सरकार को ऐसी नीतियों का निर्माण करना चाहिए जो कि एमएसएमई क्षेत्र की आवश्यकता एवं उनकी आकांक्षा के अनुरूप हो।
  • पर्यावरण अनुकूल तकनीक अपनाने पर बल देनाः जलवायु परिवर्तन एवं सतत विकास की जटिलताओं को देखते हुए यह अनिवार्य है कि एमएसएमई क्षेत्र को इसी के अनुरूप तैयार किया जाए। इसके लिए एमएसएमई क्षेत्र के लिए एक विशेष कोष की स्थापना की जा सकती है जो इन्हें पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए उन्हें प्रेरित कर सकें।

अंततः

                                                            

    कोविड-19 महामारी के पश्चात् सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम को बढ़ावा देने के लिए सरकार के द्वारा आत्मनिर्भर भारत पैकेज की घोषणा की गई है। इसके साथ ही ‘मेक इन इण्डिया’ जैसी महत्वकाँक्षी योजना तथा ‘मेक फॉर इण्डिया’, ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसे लक्ष्यों को भी निर्धारित किया गया है।

  • ऐसे में आशा की जाती है कि यह अब अर्थव्यवस्था के नियंत्रित क्षेत्रों तक ही सीमित नही रहेगा, बल्कि मुक्त बाजार का प्रतिस्पर्धात्मक दबाव को झेलने के लिए तैयार होगा। भारत का एमएसएमई क्षेत्र एक नए व्यापार वातावरण में रूपान्तरित होगा, जो कि राष्ट्रीय तथा वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के अभिन्न अंग के रूप में उभर कर सामने आयेगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वद्यिालय के कृषि महाविद्यालय के प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागागध्यक्ष हैं।