कैसी हो एक स्वस्थ बहस

                                                                  कैसी हो एक स्वस्थ बहस

                                                            

    कई बार ऐसा होता है कि बहस से माहौल अधिक गरमा जाता है, जिससे भावनाएं एवं रिश्तें दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसलिए बहस करने से पहले यह जरूर सोचना चाहिए कि आप समस्याओं का हल चाहते हैं अथवा हल्ला।

    प्रख्यात अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन अपनी किताब ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में लिखते हैं कि वेद भजन एवं धार्मिक प्राथनाओं के बारे में बातें की जाए तो वे कहानियाँ भी कहते हैं, दुनिया के बारें में अटकलें भी लगाते हैं और हमारी बहस करने की प्रवृत्ति के कारण मुश्किल सवालों को भी उठाते हैं। जैसे कि यह दुनिया किसने बनाई?, क्या यह अचानक ही बनी? वाद-विवाद का यह विषय वर्तमान में केवल स्कूली प्रतियोगिताओं राजनीति तक ही सीमित नही रह गया है। युवा अब रोजमर्रा के जीवन में भी बहस कर रहें हैं और अपनी राय या बात को व्यक्त करने का प्रयास कर रहें हैं। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि एक ऐसी स्वस्थ्य बहस की जाए, जिसका उद्देश्य जीत न होकर सीखना हो।

जानकारी विषय के सम्बन्ध मेंः- एक स्वस्थ्य बहस के लिए यह आवश्यक है कि आपको उस विषय के परिचय के साथ उसके बारें में पूरी और सही जानकारी भी हो। किसी भी बहस शुरू करते समय आपको उसके बारे में परिचय देना भी आवश्यक होता है। किसी भी गतिरोध के प्रति सदैव चिंतनशील एवं डेटा-संचालित दृष्टिकोण रहे, इस बात की ध्यान रखना बेहद जरूरी है।

                                                    

एक पेशेवर बहसः- किसी भी बहस का अर्थ यह होता है कि आप अपने विचार रखें और उन्हें साबित करते हुए विजय प्राप्त करें। यदि आप किसी पेशेवर बहस का हिस्सा बनने जा रहें हैं तो इसमें जीत आपका निश्चित् लक्ष्य होना ही चाहिए। वाद-विवाद का अर्थ जानकारी को फैलाना और नई जानकारियों को प्राप्त करना ही होता है। इसके लिए आपको यह भी समझनें की आवश्यकता है कि प्रत्येक बार आप ही सही नही हो सकते हैं। यदि आप ऐसा ही मानकर चलेंगे तो उसके बाद ही आप नई जानकारियों को ग्रहण करने में सक्षम हो सकेंगे।

सहनशीलता एक जरूरी गुणः- बहस के दौरान आपमें सुनने की क्षमता का होना भी आवश्यक गुण है। सुनने के कौशल का होने का अर्थ होता है कि आप में सहनशीलता का गुण मौजूद होना। यह व्यक्तियों को वास्तव में उन विचारों को सुनना सिखाता है, जो आपकी राय से भिन्न होते हैं और उन मतभेदों के स्रोतों को समझते हैं। बहस में हारने से भी पता चलता है कि किसी मामले पर अपने विचारो में समय के अनुसार परिवर्तन करना भी अच्छा रहेगा।

व्यक्तिगत न लेंः- कई बार बहस के दौरान विषय से भटककर लोग व्यक्तिगत हमले करने लगते हैं। लेकिन, बहस के दौरान चीजों को व्यक्तिगत लेने से बचना चाहिए और घटनाओं को व्यक्तिगत रूप से न लें। कभी-कभी किसी करीबी दोस्त के साथ बहस करते समय उसके अनुभवों को सामने लाना भी एक आम बात भी हो सकती है, लेकिन यह हमेशा अच्छा विकल्प नही होता हैं।

विरोध के साथ सम्मान भीः- हमें सभी मतों को भी शान्ति से सुनना चाहिए और उनका भी सम्मान को बनाए रखते हुए अपने तर्कों को देना चाहिए। किसी को उनके विचारों और राय के लिए बहस के दौरान अपमानित दृष्टिकोण से देखना उचित नही हैं।

    आपको यह भी समझने की आवश्यकता हैं कि कुछ चीजों में लोगों के निजी विचार भी हो सकते हैं और उनके विचारों एवं आपके विचारों में भिन्नता भी हो सकती हैं।

सीखने-समझने की इच्छा- बातचीत के दौरान जब आप लोगों की बात बात सुनें तो उनका पक्ष भी समझने की कोशिश करें। खुद को उनके स्थान पर रखकर देखेंगे तो समव है कि आप उनके दृष्टिकोण से सहमत हो जाएं और आपको ऐसा लगने लगे कि वे सही हैं और इसके बारे में आपको ही गलत जानकरी थी या फिर आपने इस एंगल से तो सोचा ही नही था। इसलिए अपने सीखने की इच्छा को सदैव बनाए रखें। बहस में हमेशा जीतने की इच्छा नही रखें।

सामने वाला व्यक्ति दुश्मन नही होता

                                                                

    यदि सामने वाले किसी व्यक्ति के विचार आप से मेल नही खाते या फिर उनके विचार आपके विचारों से एकदम विपरीत हैं तो इसका अर्थ यह नही हुआ कि वह आपका दुश्मन है। उनके विचारों के कारण उनसे नफरत करना गलत है। ऐसे में अपने आपको बार-बार याद दिलाएं कि सामने वाला एक अच्छा इन्सान हैं, करीबी है और आपके सुख-दुःख में हमेशा आपके साथ खड़ा रहा है।

    बस इस समय आपके और उनके विचार मेल नही खा रहे हैं। यदि आप इस बात को याद रखेंगे तो आपकी बातचीत कभी बहस में परिवर्तित नही होगी।

                                                                    जीवन को बनाएं एक उत्सव

                                                           

    मिश्र के कुछ भू-भागों को छोड़कर सम्पूर्ण विश्व में केवल भारत में ही इतने त्यौहार, उत्सव चिरकाल तक स्थाई बने रहने वाली संस्कृति और कहीं नही है। दूसरी अन्य समस्त  संस्कृतियाँ अकाल, युद्व एवं महामारी आदि विपत्तियों की ठोकरें खाकर छिन्न-भिन्न होती रही। केवल भारत के लोगों हजारों वर्षों से सभ्यता, स्वास्थ्य, आध्यात्म आदि में बेरोक-टोक प्रगति की। भारत के लोगों ने ही यह अनुभव किया कि जीवन स्वयं एक उत्सव है।

    भारत में पिछले तीन सौ वर्षों में अन्य सम्यताओं की घुसपैठ के चलते देश की अर्थव्यवस्था के क्षीण हो जाने से उत्सव कम हुए तो अनेक त्यौहार भी सुप्तावस्था में चले गए। जिस देश में दो बैलों के लिए भी त्यौहार मनाए जाते थे, वहां आ मानव अपनी जीवंतता को भूलता जा रहा है, इस तथ्य पर ध्यान दिए बिना कि व स्वयं दो बैलों की तरह ही खट रहा है।

    वर्तमान समय में आपने गौर किया होगा कि अब से कुछ समय पूर्व त्यौहारों के आने पर घर के सभी लोग टेलीविजन के सामने आकर बैठ जाते थे, तो आज लोग स्मार्ट फोन में इतने मशगूल हैं कि लोग अब यदि एक साथ बैठे भी हैं तो वे आपस बात नही करते बल्कि अपने फोन में ही व्यस्त रहते हैं। इस सब का नाम उत्सव नही है। हमारे देश में एक बार फिर से उसी पुरानी संस्कृति के फलने-फूलने की आवश्यकता है। हमें भाषा, प्रान्त और धार्मिक विश्वास आदि से परे होर सम्पूर्ण जीवन को ही उसव के रूप में देखना चाहिए।

                                                                        

    जेम्स जॉयूस नाम के एक अंग्रेज लेखक एक बार अपनी पत्नि के साथ हंगरी की गलियों में घूम रहे थे, तो उन्होंने एक लड़के के उस कड़ाके की ठण्ड़ में सड़क के किनारे चित्र बनाते हुए देखा। उस लड़के ने ठण्ड़ से बचने के लिए अपने हाथों में दस्ताने नही पहन रखे थे। जेम्स ने अचरज के साथ उस लड़के से इसका कारण पूछा, तो लड़के ने उत्तर दिया, कि दस्ताने पहनने के बाद पेंसिल पर पकड़ ठीक नही बन पाती है। उसके बाद उस लड़के ने जेम्स की पत्नि के खूबसूरत चेहरे की तस्वीर बनाकर उस तस्वीर को उन्हें भेट किया। इसी समय जेम्स का ध्यान एक और बात पर गया कि न तो वह लड़का और न ही वे स्वयं एक दूसरे की भाषा नही जानते थे, फिर भी 15 मिनट से अधिक समय तक वे दोनों ही बिना किसी खास भाषा का उपयोग किए बिना, केवल इशारों, हाव-भाव और मुस्कान के माध्यम से हीं बाते करते रहें थें। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ खुशियाँ बांटने की मनोदशा में हो, तो वहाँ किसी भाषा का कोई विशेष महव नही होता है। इस बात को भाषा-विज्ञान के उस विशेषज्ञ लेखक ने अच्छी तर से समझ लिया था।

    त्योहार एवं उत्सवी समारोहों के अवसर पर लोगों के द्वारा किसी भी किस्म की की भिन्नता का अनुभव किए बिना आपस में मिलकर आह्लादित होना इसलिए सम्भव हो पाता है कि वे लोग उस समय इसी मनोदशा में पँहुच चुके होते हैं। अतः भले ही सालभर में चार-पाँच त्योहार ही क्यों न मनाएं, सब लोगों को मिलकर एक विशाल परिवार के सदस्य की तरह उसे एक सम्पूर्ण उत्सव के रूप में लेकर मनाएं।