कटहल का सरकारी बंगलों से सीधा रिश्ता.

                                              कटहल का सरकारी बंगलों से सीधा रिश्ता.

                                                                                                         डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

कटहल होगा तो सरकारी बंगला होगा और सरकारी बंगला होगा तो कटहल होगा। जितना बडा सरकारी बंगला होगा उतनी ही अधिक तादाद मे कटहल के पेड़ होंगे और जितना बडा अफसर होगा उसके बंगले पर लगे कटहल भी उतने ही अधिक ज़ायक़ेदार होंगे।

 

कटहल की उपस्थिति बताती है कि कोई सरकारी आदमी आसपास पाया जाता है। कटहल या तो किसान पैदा करता है या फिर अफसर। कटहल का मालिकाना हक बस इन दोनो के पासही होता है। अंतर केवल इतना भर कि कटहल उगाने के लिए किसान पसीना बहाता है और इस पर फल आने का इंतज़ार करता है और अफसर लगे लगाए कटहल के पेड़ पाता है और जब मन हो कटहल खाता है।

                                                        

साहब के भर पेट खाने के बाद बचे सरकारी कटहलों का इस्तेमाल मेलजोल बढ़ाने के लिए होता है। साहब आमतौर पर अपने दोस्तों को ही कटहल भेजता है और यदा कदा ही किसी मुँह.लगे जूनियर को भी मिल जाते हैंे और फिर वह अपने साथियों से हफ्तों उनके स्वादए गुण और दिव्यता की चर्चा ही करता रहता है।

 

साहब और कटहल से याद आया कि नरसिंहपुर की पोस्टिंग के दौरान मुझे मिले सरकारी बंगले मे भी एक कटहल का पेड़ मौजूद था। जब तक रहे कटहल खाए गएए जब ट्रांसफ़र हुआए उस वक्त भी यह पेड़ कटहलों से लदा था।

दरियादिली के आलम मेए घर मे काम करने वाले बंदों को कहा गया कि वे लोग आपस मे बाँट लें कटहल। बाद मे पता चलाए कटहलों का बँटवारा करते वक्त उन लोगों के बीच भारी तकरार हुई। खून खच्चर हुआ और कुछ एक लोगों के सर भी फूटे।

ग्वालियर के सरकारी घर मे भी कटहल का पेड़ मिला था। पर पता नही क्योंए शायद किसी कंजूस अफसर के हाथों लगे होने के कारण वह पेड़ कटहल देने को तैयार था नहीए सो हम लोग वहां इसका एक और पौधा रोप आए ताकि आने वाले भविष्य में वहां भी अमन.चैन कायम रहे।

 

कटहल के बारे मे सबसे मज़ेदार बात जो सुनी गई वह अपने आप को शाकाहारी कहने वालों की तरफ से हैए जो उन्हें नानवेज वाला लुत्फ़ देता है। ऐसे जहीन लोगों को मेरी सलाह यही कि ऐसी बातें करने से बचे।

                                                              

आपके ऐसा कहने सेए वतन पर जान फ़िदा करने वाले मुर्गों और बकरों का मन खराब होता हैए और मछलियाँ डूब कर मर जाना चाहती हैं। इसलिए बेहतर यह होगा कि वे सुनी.सुनाई बातों पर यकीन न करें। केवल शक्ल पर न जाएं कटहल की सब्जी की। पहले मटन चिकन का भोग लगाएं फिर कटहल के बारे मे अपन राय जाहिर करें।

 

यह कटहल चर्चा इसलिए क्योंकि कल घर बैठे कटहल मूवी देख ली। फिल्म ठीक ठीक लगी। परन्तु गलती शायद मेरी ही थीए मुझे कुछ ज्यादा ही उम्मीद थी इस फ़िल्म से। व्यवस्था की विसंगतियों पर व्यंग्य करने की कोशिश है ये फ़िल्म।

                                                                          

सान्या मल्होत्राए विजय राज और रघुवीर यादव ने पूरी कोशिश की कि इसमें स्वाद आ जाए पर वो पूरी तरह कामयाब होते दिखे नही मुझे। बहरहाल मै तो यही कहूँगा किए कटहल कब तोड़ा जाएए कौन से मिर्च मसाले डाल कर कितनी देर पकाया जाए यह भी अपने आप में एक कलाकारी ही है। यह फिल्मए कहानीए निर्देशन के स्तर पर थोडे और जतन से पकाई जाती तो और भी बेहतर हो सकती थी।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वद्यिालय के कृषि महा विद्यालय के प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।