कृषि के विकास हेतु उपयोगी तकनीकी

                                                                              कृषि के विकास हेतु उपयोगी तकनीकी

                                                                                                                                     डॉ0 आर. एस. सेगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

  ‘‘कम उपजाऊ तथा बारानी क्षेत्रों में कृषि विकास, गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाने और गरीबी दूर करने अर्थात दोनों ही दृष्टियों से आवश्यक हैं। हालांकि यह एक चुनौति है जिसका समाना हमारे कुशल वैज्ञानिक सफलतापूर्वक कर सकते हैं, क्योंकि कृषि अनुसंधान प्रणाली ने हमें बहुत उत्तम परिणाम दिये हैं। अतः समयानुकूल यही है कि हमारे कृषि-अर्थशस्त्री तथा वैज्ञानिक एक उपयुक्त कृषि टेक्नोलॉजी को विकसित करने के लिए एक साथ मिलकर कार्य करें’’-

  भारत में पिछले दशकों में हरित क्राँति के फलस्वरूप खाद्यान्न के मामले में देश की आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने में विज्ञान तथा तकनीकी की सफलता की कहानी छिपी हुई है। परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में अभी तक प्राप्त की गयी यह उपलब्धियाँ हमारी कृषि अनुसंधान प्रणाली की पूर्ण दक्षताओं का प्रदर्शन नही करती हैं।

पिछले वर्षों के दौरान भिन्न-भिन्न जलवायु एवं सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में भारतीय कृषि की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में इस इस प्रणाली की क्षमतओं में आशातीत वृद्वि हुई है।

इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह भी हुई है कि भारत में यहां तक कि दूर-दराज के क्षेत्रों में छोटे-बड़े और मध्यम किसानों को विस्तार कार्यों और अनुभव के माध्यम से नई तथा बेहतर कृषि तकनीकों के उपयोग, विज्ञान एवं तकनीकी के लाभों की अच्छी जानकारी प्राप्त हो चुकी है।

कृषि कार्यों में काम आने वाली आधुनिक वस्तुओं के लिए उनकी माँग तथा नए तरीकों को जानने की इच्छा भी बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप गांवों में विज्ञान तथा तकनीकी पर आधारित कृषि जो हमें आज दिखाई पड़ रही है, वह हमारी परम्परागत कृषि से बिलकुल भिन्न हैं।

हमारी कृषि अनुसंधान प्रणाली और उसके प्रति किसानों की रचनात्मक प्रतिक्रिया, इन दोनों बातों को देखकर प्रतीत होता है कि निकट भविष्य में कृषि क्षेत्र में तेजी से प्रगति होगी।

  कृषि उत्पादन को बढ़ानें और नई तकनीकों के उपयोग के लाभों के समान एवं व्यापक वितरण को सुनिचित् में इसकी भूमिका को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय कृषि में विज्ञान एवं तकनीकी के उपयोग की व्यापक समीक्षा की जाए। हरित क्राँति का प्रभाव अब तक मुख्य रूप से गेहूँ और चावल तक ही सीमित रहा है।

जलवायु तथा सामाजिक-आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से समरूप क्षेत्रों में कम अथवा अधिक पैदा होते रहे हैं। जिन स्थानों पर सिंचाई की निश्चित व्यवस्था है और किसान भी अधिक मेहनती एवं समृद्व हैं, उन स्थानों पर कुछ विशेष फसलों की पैदावार में पर्याप्त वृद्वि दर्ज की गई है। वहीं दूसरी ओर उन क्षेत्रों में अधिक फसलें लेने की दिशा में कोई विशेष प्रगति नही हुई है जहाँ भूमि जल के स्रोत अधिक हैं और कृषि श्रमिक भी बहुतायत में उपलब्ध हैं।

  हरित क्राँति के सीमित प्रभाव का कारण एक तो उपलब्ध तकनीकी का अपना स्वरूप है तो दूसरा भौतिक एवं संस्थागत दोनों ही प्रकार की बुनियादी सुविधाओं का असमान विकास एवं वितरण है, जबकि ये सुविधाएं नए कृषि उपायों को अपनाने की प्रथम एवं अनिवार्य शर्त हैं।

योजना कार्य-नीति

  भारत में कृषि के लिए योजना कार्य नीति का लक्ष्य है गांवों में निर्धनता तथा विकास की क्षेत्रीय एवं फसल सम्बन्धी असमानताओं में कमी लाना, बारानी खेती का विकास, उत्पादकता को स्थायित्व प्रदान करना तथा वानिकी एवं फसलों की पैदावार के मध्य एक बेहतर तालमेल स्थापित करना। ये समस्त उद्देश्य गहराई से एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं और एक दूसरे के पूरक हैं।

कम विकसित एवं बारानी इलाकों में कृषि विज्ञान से रोजगार के अवसर जुटाने तथा गांवों की गरीबी को दूर करने के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक बड़ी सहायता मिल सकती है। तिलहन एवं दलहन जैसी फसलें, जिनकी माँग एवं आपूर्ति में बहुत अधिक अंतर है, जो कि मुख्य रूप से बारानी क्षेत्रों में ही उगाई जाती हैं।

सार्वजनिक सिंचाई व्यवस्था और सूखे तथा कीटों का मुकाबला कर सकने वाली किस्मों उत्तम बीज तैयार करने जैसे स्थायित्व प्रदान करने वाले उपायों से कम संसाधनों वाले क्षेत्रों और किसानों का बहुत भला हो सकता है। वानिकी के विकास से मृदा एवं नमी के संरक्षण के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और साथ ही ईंधन एवं चारे आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति भी होती है।  

  कृषि अन्य सभी चीजों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि कृषि उत्पादन ही आर्थिक विकास में सामजस्य स्थापित करता है। कृषि से ही प्रगति के साधन उपलब्ध होते हैं।

- पं0 जवाहरलाल नेहरू

  यह लक्ष्य भूमि-विज्ञान तथा तकनीकी के समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी पेश करते ह्रैं। वैज्ञानिकों को कम संसाधनों वाले तथा पर्यावरण की दृष्टि से कठिन दोनों, वहाँ कम तथा घठती-बढ़ती वर्षा के कारण नमी की कमी रहती है और उन निचले क्षेत्रों, जहाँ आमतौर पर बाढ़ आती है, की ओर अधिक ध्यान देना होगा। उन्हें तिलहन जैसी अधिक ऊर्जा की आवश्यकता वाली फसलों की समस्या पर भी ध्यान देना होगा, जो कि कीटों और रोगों से शीघ्र ही ग्रसित हो जाती है। सामाजिक-आर्थिक संयंत्रों में कृषि अनुसंधान में छोटे एव सीमान्त किसानों और जनजातीय क्षेत्रों के किसानों की कम धन व्यय करने और जोखिम नही उठा पाने की क्षमता पर भी ध्यान देना होगा।

  इन विषम कृषि जलवायु की परिस्थितियों एवं सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए स्थान विशेष के अनुरूप ही खेती-बाड़ी के संशोणित उपाय अपनाने का सुझाव देने की आवश्यकता है।

  इन चुनौतियों का सामना करने के लिए निम्नलिखित कार्य-नीतियों को अपनाना भी आवश्यक होगा। इनमें से पहला है कि हमें अपने अनुसंधान के आधार को अधिक व्यापक बनाना होगा जिससे भिन्न-भिन्न कृषि जलवायु की स्थितियों में उगाई जाने वाली अनेक नई फसलों को उसमें शामिल किया जा सकें। इसके लिए बड़े पैमाने पर परिवर्तनीय अनुसंधान करना होगा जिससे ज्ञात क्षमता तथा उसके वास्तविक परिणामों में वर्तमान में जो व्यापक अन्तर मौजूद है, उसे दूर करने के लिए सार्थक प्रयास करने होंगे।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमारे कृषि वैज्ञानिकों को किसानों के खेतों तक जाना होगा जिससे कि प्रयोगशाला से खेत तक की संचार व्यवस्था सचमुच कारगर बन सकें। पैदावार को बढ़ानें के उपाय के बजाय किसी कृषि वर्ष में उगाई जाने वाली समस्त फसलों से समूची आय बढ़ाने पर बल दिया जाना चाहिए।

इसके लिए पूरे वर्ष के दौरान विविध कृषि जलवायु के अनुकूल फसलो की अदल-बदल कर करने के सहित विभिन्न फसल प्रणालियों में भी अनुसंधान करने की आवश्यकता होगी जिससे भूमि, श्रम आदि जैसे किसानों के अपने संसाधनों का भरपूर लाभ उठाया जा सके साथ भमि जल और धूंप जैसे प्राकृतिक संसाधनों का भी पूरा उपयोग उनकी पूरी क्षमता के साथ किया जा सके।

  तीसरी कार्यनीति यह है कि खेती के काम में आने वाली वस्तुओं के संरक्षण एवं बचत के लिए अनुसंधान पर भी पर्याप्त बल देना होगा। पानी प्राप्त करने की तकनीकों सहित जल प्रबन्धन, नाइट्रोजन का जैविक निर्धारण, रासायनिक खादों की बरबादी कम करने, कीटों एवं रोगों का मुकाबला कर सकने और प्रतिकूल पर्यावरण में अधिक उपज दंेने वाले बीजों के विकास जैसे क्षेत्रों का अनुसंधान भी इसी वर्ग के अंतर्गत आता है।

  इस प्रक्रिया के मूल रूप से दो भाग होते हैं। जिनमें से प्रथम है ऐसी कृषि अनुसंधान प्रणाली जिसमें वैज्ञानिक सुयोग्य होने के साथ ही साथ खेतों पर किसानों की समस्याओं को भी समझतें हों और द्वितीय ऐसी विस्तार प्रणााली जिसमें किसानों तक सभी उपयोगी तकनीकों की जानकारी पहुँचाने के साथ-साथ उन्हें विज्ञान तथा तकनीकी के प्रति निरंतर जागरूक बनाया जा सकें।

अनुभव

  यह मानना कदापि उचित नही है कि हरित क्राँति की तकनीकी मूल रूप से विकासशील देशों में ही वहाँ की परिस्थितियों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही विकसित हुई। इनमें से अनेक विधियाँ काफी हद तक विकसित देशों को भी हस्तांतरित की गई और उन्हे विकसित देशों की परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया गया, इसलिए उन तकनीकों के उन पहलुओं को समझना भी आवश्यक है जो कि विकसित देशों की परिस्थितियों से प्रभावित हैं। विकासशील देशों की उन परिस्थितियों को भी समझना आवश्यक है जिसके कारण ये विधियाँ लायी गयी और जो इन विधियों में आवश्यक परिवर्तनों के अनुरूप हैं।

  अनेक विकसित देशों जैसे कि रूस, अमेरिका एवं जापान आदि ने दूसरे द्वितीय विश्व युद्व के पश्चात् के पहले दो दशकों के दौरान पैदावार को बढ़ानें में बहुत प्रगति की। इन देशों में कृषि सम्बन्धी बुनियादी ढाँचा, विशेष रूप से जल प्रबन्धन बहुत अधिक विकसित था। अपेक्षाकृत समान जलवायु वाले वातावरण के लिए नई बीज-उर्वरक तकनीकी को विकसित किया गया। इसके अन्तर्गत एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि उस अवधि के दौरान कृषि उत्पादन में वृद्वि औद्योगिक उत्पादन के पश्चात् ही हो सकी।

उस समय जहाँ औद्योगिक उत्पाद उपलब्ध होने लगे थे, वहीं मजदूरी महंगी होने लगी थी। हालांकि कृषि क्षेत्र में यह प्रगति विपरीत परिस्थितियों में हुई, क्योंकि अमेरिका में तो कृषि भूमि काफी बड़े पैमाने पर उपलब्ध थी परन्तु जापान में खेती-बाड़ी के लिए जमीन उपलब्धता बहुत ही कम थी। इसलिए नई जैव-रासायनिक तकनीकी से कम जमीन और कम मजदूरी से तो काम चल सकता था परन्तु इस कार्य में पूँजी की आवश्यकता अधिक थी। 

इससे भी बढ़कर समूचा संस्थागत ढाँचा जिसमें किसानों की जागरूकता और प्रशासनिक योग्यताएं भी शामिल है इस नई तकनीकी को तेजी से अपनाने में सहायक था। इसी कारण से इन देशों में विकासशील देशों की तुलना में कुल कृषि उत्पादन के मूल्य में विस्तार सेवाओं पर किये गये व्यय का अनुपात काफी कम रहा।  

  युद्वोत्तर काल में विकासशील देशों को अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या और सीमित भूमि संसाधन के कारण विकसित देशों की अपेक्षा अधिक उपज देने वाली किस्मों को लेना पड़ा। इस प्रकार यह स्वाभाविक ही है कि भारत में हरित क्राँति के प्रथम चरण के दौरान भूमि की बचत वाली तकनीक उन क्षत्रों में व्यापक रूप से अपनाई गई, जहाँ भूमि की प्रति श्रमिक उपलब्धता राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक थी। दूसरी ओर, जिन क्षेत्रों में जमीन तो कम उपलब्ध थी परन्तु श्रमिक बल बहुतायत में उपलब्ध था, वे क्षेत्र भूमि को बचाने वाली तकनीक को अपनाने में कुछ वर्षों तक पिछड़े रहे।

  ऐसा लगता है कि नई तकनीकी की कृषि जलवायु सम्बन्धी अनुकूलता ही नई तकनीकी के प्रभाव में क्षेत्रीय विषमता सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक रहा। यह भी सही है कि अच्छी जलवायु एवं वातावरण वाले क्षेत्रों में पूँजी लगाने की क्षमता संस्थागत तैयारी से भी बेहतर होती है। जिन क्षेत्रों में न्यून से मध्यम स्तर की वर्षा होती है, साथ सिंचाई की समुचित सुविधा भी उपलब्ध है, वे नई बीज-उर्वरक तकनीकी के लाभदायक उपयोग के लिए अभी सर्वाधिक उपयुक्त सिद्व हुए हैं।

इन क्षेत्रों में खुली धूंप पड़ती है इस कारण कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है। यह एक मात्र संयोग ही नही है कि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से देश के चार अग्रणी राज्य, नई तकनीकी को अपनाने में भी आगे ही रहे। ये चारों राज्य हैं पंजाब एवं हरियाणा जहाँ पर सिंचाई की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है तथा महाराष्ट्र एवं गुजरात जो मुख्य रूप से वर्षा के ऊपर ही निर्भर करते हैं। किसानों की सम्पन्नता के साथ-साथ इन राज्यों की सरकारों के पास भी पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं और वहाँ की शासन व्यवस्था भी चुस्त-दुरूस्त है।

नई प्राथमिकताएं

    भारत में कृषि अनुसंधान में नई प्राथमिकताएं देखी जा रही हैं-

1. वर्षा सिंचित क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली प्रजातियों के बजाय अधिक स्थिरता वाली किस्मों को विकसित करना, जिसकी सहायता से पैदावार के घटने-बढ़नें वाली स्थिति को दूर किया जा सकेगा। इसके लिए ऐसी किस्मों को विकसित किया जाने की आवश्यकता है जो कि सूखें में भी अंकुरित हो सकें, जो कीटों का मुकाबला करने में सक्षम हो और इनके द्वारा मृदा की नमी का संरक्षण भी किया जा सके,

2. नाइट्रोजन के जैविक स्थिरीकरण सहित खेती के उपकरणों की बचत करने वाले विभिन्न उपयों के माध्यम से किसानों के ऊपर लागत के बोझ को कम करना और

3. किसानों की आय को बढ़ाने के लिए फसलों तथा खेती-बाड़ी की ऐसी प्रणालियों को विकसित करना, जिनके द्वारा अपने पास उपलब्ध संसाधनों का अधिक से अधिक उपयोग पूरे वर्ष कर सकें।

    इन प्राथमिकताओं पर काम करने के लिए अलग-अलग स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अनुसंधान कर अपने खेतों की वास्तविक स्थितियों को जानने के अधिक प्रयास करने होंगे क्योंकि प्रतिकूल वातावरण में असमान स्थितियों की अधिकता ही रहती है। इसके अतिरिक्त अनुसंधान का परीक्षण करने के लिए अधिक से अधिक किसानों को आगे आना चाहिए। मौजूदा प्रणालियों के बीच सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों को समझने के लिए कृषि वैज्ञानिकों तथा सामाजिक वैज्ञानिकों, विशेष रूप से कृषि-अर्थशास्त्रियों के मध्य अधिक से अधिक सहयोग और तालमेल का होना भी आवश्यक है। जिससे तकनीकी को किसानों के पास उपलब्ध संसाधनों एवं उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने में सहायता प्राप्त होगी।  

    चावल-तिलहन और दालों जैसी पिछड़ी हुई फसलों की उत्पादकता में पिछले दशकों में हुई वृद्वि में नई तकनीकी को विकसित करने से अधिक हाथ मौजूदा तकनीकी को विशष कार्यक्रमों के माध्यम से और अधिक क्षेत्रों तक पहुँचाने का रहा है। इस अनुभव से उन क्षेत्रों में विशेष कार्यक्रम चलाने और कृषि के काम आने वाली वस्तुओं के लिए सब्सिड़ी का महत्व सिद्व होता है, जहाँ प्रारम्भिक समय की हरित क्राँति से कृषि उत्पादों की तुलनात्मक मूल्यों में कमी आई है।

जहाँ पैदावार में बड़े पैमाने पर घटत-बढ़त होती है और जहाँ पर किसान भी गरीब हैं तथा जोखिम उठानें की स्थिति में नही हैं, किसानों को विशषरूप से तिलहन के उत्पादकों को उनके उत्पादों के लाभकारी मूल्य दिलाना भी काफी उपयोगी रहा है।

    भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के द्वारा तकनीक हस्तांतरण परियोजना के तहत ‘खेतों’ में किये गये राष्ट्रीय प्रदर्शनों के परिणामों से ज्ञात होता है कि प्रदर्शनों के दौरान प्राप्त की गई उत्पादकता और राष्ट्रीय औसत उत्पादकता में काफी अन्तर पाया गया है तथा सभी प्रमुख फसलों की उत्पादकता दो तीन गुना तक बढ़ सकती है।

परन्तु कृषि तथा जलवायु सम्बन्धी एक जैसी परिस्थितियों में वास्तविक पैदावार तथा पैदावार की क्षमताओं में अन्तर आमतौर पर 50-60 प्रतिषत से अधिक नही है। यह अन्तर वर्षा सिंचित क्षेत्रों तथा खरीफ मौसम में अधिक बढ़ जाता है, जिससे प्रकट होता है कि किसानों को वर्षा की अनिश्चित स्थितियों में कृषि आदानों का उपयोग कम करना चाहिए, क्योंकि ये प्रदर्शन किसी भी एक ही फसल के लिए किये जाते हैं। अतः यह कहना कठिन ही है कि ये नई किस्में किसानों की नई फसल प्रणालियों के कितना अनुकूल होंगी।

फसल लेने तथा बुआई प्रणालियों के बारे में अनुसधान में त्रुटियाँ एकदम स्पष्ट हैं जो कि सम्भवतः अनुसंधान का सबसे कठिन एवं जटिल क्षेत्र है, क्योंकि यह प्रक्रिया क्षेत्र आधारित है और इसके अंतर्गत एक से अधिक विषय विशेषज्ञों का सहयोग आवश्यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंचाई वाले क्षेत्र अथवा वर्षा आधारित क्षत्रों खरीफ फसलों में जबकि मृदा में पर्याप्त नमी होती है।

कृषि में निवेश पर प्रति व्यक्ति लाभ अधिक होता है। उत्पादकता के बढ़ने व उसके घटनें की प्रवृत्ति में कमी आने की सम्भावना के फलस्वरूप बारानी खेती की कार्य नीति में बीजों में आनुवांशिक सुधार लाने के काम को मृदा तथा नमी संरक्षण के साथ जोड़ने की प्रेरणा प्राप्त हुई है। जल प्राप्त करने के एक मुख्य उद्देश्य के साथ वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए चलाए गए राष्ट्रीय जल विभाजक विकास कार्यक्रम वर्षों के परीक्षण के बाद अब व्यवस्थित रूप से लाया गया है और आशा है कि आने वाले वर्षों में यह अच्छे परिणाम देने लगेगा।

नीतियों में नई दिशा

      जैव तकनीक उत्पादकता को बढ़ाने तथा उत्पादकता में घटत-बढ़त के सिलसिले को कम करने के मामले में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की उपलब्धियाँ प्रतिकूल जलवायु वाले क्षेत्रों में उतनी उत्साहजनक नही रही है, जितनी कि हरित क्राँति के प्रारम्भिक वर्षों में अनुकूल जलवायु वाले क्षेत्रों में रही। अनुवांशिकी इंजीनियरिंग, टिश्यू कल्चर आदि जैसी जैव तकनीकी से इन बाधाओं को दूर किये जाने की एक आशा बंधी है।

    पौधों में अनुवांशिक परिवर्तन किये जाने से कीटों एवं रोगों का मुकाबला करने में सक्षम प्रणालियाँ विकसित हो जाने के कारण सम्भावित उत्पादकता तथा वास्तविक उत्पादकता के बीच अन्तर कम किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त पौधों में अनुवांशिक परिवर्तनों से उन्हें मृदा और जलवायु की प्रतिकूल परिस्थितियों में जैव दबावों का मुकाबला करने योग्य बनाया जा सकेगा। इस प्रकार फसल को दुगुना करने के लिए पर्यावरण सम्बन्धी दबावों के प्रति पौधों की भौतिक प्रतिक्रिया तथा उनकी बनावट में संशोधन करने की उत्पादक प्रणालियों पूरक सहभागी के रूप में सहयोगी बनाया जा सकता है।

    जैव तकनीकी की सम्भवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण विश्ेषता, जो उसे हरित क्राँति अथवा बीज-उर्वरक तकनीक से बेहतर बनाती है, वह है नाइट्रोजन का जैविक स्थिरीकरण, जैव उर्वरक तथा कीटों का मुकाबला करने की क्षमता के कारण कीटनाशक दवाओं और उर्वरकों जैसी वस्तुओं की बचत। जैव तकनीक के लागू हो जाने से हरित क्राँति तकनीक से जुड़े ‘‘रसानीकरण’’ का स्थान ‘‘अनुवांशिक इंजीनियरिंग’’ ले लेगी। जैव तकनीक में बीज का स्थान केन्द्रीय होता है।

    जैव तकनीक नए पौधों को जैव तथा गैर-जैव दशाओं का सामना करेन में अधिक सक्षम बनाने के अतिरिक्त फसलों की उत्पादकता को भी स्थायित्व प्रदान करती है। फसलों में होने वाली हानियों को कम करके सम्भवित तथा वास्तविक पैदावार के अन्तर को भी कम करती है और हरित क्राँति की तुलना में अधिक व्यापक क्षेत्र में उपयोगी हो सकती है, क्योंकि हरित क्राँति तकनीकी का उपयोग केवल अनुकूल जलवायु वाले क्षेत्रों में ही किया गया।

बीज तैयार करने की परम्परागत विधियों की तुलना में इसके अन्तर्गत नए बीज विकसित करने में अधिक कार्य-कुशलता तथा समय की बचत के कारण तकनीक में प्रगति की दर अधिक रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। जैव तकनीक से यद्यपि कृषि में काम आने वाले रासायनिक पदार्थों की बचत होगी, परन्तु इसके उपयोग के लिए अधिक जानकारी एवं कौशल की आवश्यकता भी होगी, जिसके लिए अनुसंधान तथा किसानों की क्षमता बढ़ाने के प्रयासों में अधिक निवेश करने की आवश्यकता होगी।

    जैव तकनीकी निर्धन किसानों के लिए हितकारी है जिसके अनेक कारण है। पहला कारण तो बीज-उर्वरक तकनीकी तरह ही खेत के छोटा अथवा बड़ा होने पर इसकी उपयोगिता पर कोई प्रभाव नही पड़ता है। इसके द्वारा रासायनिक आदानों की बचत होती है, उत्पादकता में स्थिरता आती है और प्रतिकूल परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में उगाये जाने वाली फसलों में इसके उपयोग की सम्भावनाएं काफी बेहतर हैं।

निर्धनों के हित में इसकी क्षमताओं का उपयोग अनुसंधान के लिए प्राथमिकताओ के निर्धारण पर निर्भर करता है। इसका कारण यह है कि तकनीक के माध्यम से अनेक प्रकार के वैकल्पिक अवसर प्राप्त होते हैं जिन्हें निर्धनों के हित के विरूद्व भी बनाया जा सकता है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है कीटों का मुकाबला कर सकने और कीटनाशक दवाओं का मुकाबला सकने वाली किस्मों में से चयन करना।

पहले प्रकार के बीज निर्धन लोगों के लिए हितकारी तथा पर्यावरण संरक्षण में सहायक होते हैं। अतः इनके द्वारा कीटनाषक दवाओं की बचत की जा सकती है जबकि दूसरे प्रकार के बीजों से कीटनाशक दवाओं का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ हो सकता है। विकसित देशों की उन्नत तकनीकी की मददसे उन वस्तुओं के स्थान पर भारतीय वस्तुएं तैयार की जा सकती हैं, जिन्हें अल्प-विकसित देशों से आयात कर गरीबी की समस्या को अधिक गम्भीर बनाया जा सकता है।

    जैव तकनीकी में लचीलेपन की पर्याप्त सम्भावना के कारण इसमें अनुसंधान की कार्यनीति तथा नीति की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। जैव तकनीकी में अनुसंधान तथा अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने के लिए सही प्राथमिकताओं का निर्धारण करने में विकासशील देशों की सरकारों की भूमिका हरित क्राँति तकनीक के अनुसंधान में निभाई गई भूमिका से कहीं अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है, क्योंकि कृषि क्षेत्र में अधिक हिस्सा प्रतिकूल परिस्थितियों वाले क्षेत्रों का है।

अतः प्रगति और न्ल्यायिक दोनों ही दृष्टियों से इन परिस्थितियों के अनुरूप तकनीकी पर निवेश करना समाचीन होगा। आधुनिक जैव तकनीक से सम्भावनाओं के जो नए द्वार खुले हैं, उन्हे देखते हुए देखते हुए कृषि में निवेश की लाभप्रदता बढ़ गई हैं क्योंकि पुर्वी भारत जैसे प्रतिकूल परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में सम्भावित एवं वास्तविक पैदावार में बहुत अंतर है।

    जैव तकनीकी में अनेक प्रकार के विकल्प उपलब्ध होने के फलस्वरूप अर्थशास्त्रियों और समाजिक वैज्ञानिकों के लिए भी नई तकनीकी के विकास में योगदान प्रदान करने की सम्भावना भी काफी हद तक बढ़ गई है। अर्थशस्त्री अभी तक नई बीज-उर्वरक तकनीकी को अपनाये जाने के बाद के परिणामों का ही विश्लेषण करते रहे हैं। कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से उचित तकनीकी के विकास में तथा नीति निर्धारण स्तर पर उनका योगदान बहुत ही कम रहा है।

अतः नई तकनीकी विकसित करने तथा कृषि तकनीकी की नीति तय करने के लिए कृषि अर्थशास्त्री एवं कृषि वैज्ञानिकों के सामुहिक योगदान की दिशा में प्रयास करना अब आवश्यक हो गया है।

लेखकः डॉ0 सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वद्यिालय, मेरठ के कृषि महाविद्यालय में प्रोफेसर तथा कृषि जैव प्रोद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष हैं।