बदलता मौसम पर्यावरण के लिए खतरा

                                                                                         बदलता मौसम पर्यावरण के लिए खतरा

                                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

अब साल के हर महीने में बारिश देखने को मिल रही है ऐसा आमतौर पर नहीं होता था, मौसम का पूरा चक्र ही अनियमित हो गया है। पहले मनुष्य ने अपनी गतिविधियों से पर्यावरण प्रकृति को नुकसान पहुंचाया और अब पर्यावरण के बदलाव से मनुष्य को नुकसान पहुंचाने की बारी आ गई है। यह बदलता मौसम भोजन, स्वास्थ्य और प्रकृति तीनों को ही नुकसान पहुंचा रहा है।

भोजन यानी की खेती पर दुष्प्रभाव तो स्पष्ट दिख ही रहा है, खेतों में खड़ी फसलें भी बर्बाद हो रही है जिससे किसान परेशान है। स्वास्थ्य की बातें करें तो तापमान में अचानक हो रहे उतार-चढ़ाव से संक्रमण की चपेट में आने का खतरा बढ़ गया है। इससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली भी कमजोर होती है। इसी तरह मौसम का यह बदलाव प्रकृति पर अन्य तरीकों से भी दिखता है यह एक चक्रीय प्रक्रिया है।

पहले मनुष्य प्रकृति को नुकसान पहुंचाता था और आपदा जैसी स्थिति बढ़ती थी, फिर ऐसी आपदाओं से प्राकृतिक संतुलन और बिगड़ता है, जिससे मनुष्य को और भी ज्यादा नुकसान होता है इस तरह तबाही का यह क्रम चलता रहता है। बदलते मौसम के कारणों और उसके दुष्परिणामों और दुष्प्रभावों से बचने के लिए हम सभी को मिलकर कदम उठाने होंगे तभी हम बदलते मौसम के दुष्प्रभाव से बच सकेंगे।

वर्ष 2023 अप्रैल के महीने में गर्मी तब आ रही थी और 44 वर्ष पहले का रिकॉर्ड तोड़ा था, 100 से ज्यादा वर्षों में सबसे गर्म फरवरी के बाद अब सबसे ठंडा मई चल रहा है। जब अचानक किसी भी हिस्से में बारिश का दौर दिख रहा है ऐसा आमतौर पर नहीं होता था मौसम का पूरा चक्र अनियमित लग रहा है इसके पीछे विकास और मनुष्य की गतिविधियां ही जिम्मेदार है।

अमेरिका की रिपोर्ट के अनुसार हर दूसरे हफ्ते आएंगे चक्रवात

                                             

अमेरिका की यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग विभाग ने जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात की घटनाएं बढ़ने की आशंका जताई है। शोधकर्ताओं ने कहा है कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर और जलवायु परिवर्तन के कारण अगले कुछ दशकों में तटीय क्षेत्रों में भीषण चक्रवात एवं तूफान की घटनाओं के बीच समय अंतराल कम हो जाएगा। अभी कई साल में एक बार आने वाली ऐसी प्राकृतिक आपदाएं हर दूसरे-तीसरे साल आने लगेंगी अगर इससे निपटने के लिए गंभीरता से कदम नहीं उठाए गए तो इस सदी के आखिर तक हर 15 दिन में कोई ना कोई भीषण चक्रवात उठ सकता है।

बाढ़ जैसी आपदाओं का लगातार बढ़ रहा है खतरा

कम्युनिकेशन अर्थ एंड एनवायरमेंट जनरल में प्रकाशित शोध के अनुसार भारत में पिछले तीन दशकों में बाढ़ के 70 प्रतिशत बड़े मामलों का कारण वायुमंडलीय नदियां रही है। जमीन की तरह ही वायुमण्डल मे वाष्प कणों के जमीन से ऊपर बादलों में भी जलधारा बन जाती है, जिसे वायुमंडलीय नदी कहा जाता है। इस बाढ़ के पीछे भी जलवायु परिवर्तन की मुख्य भूमिका है औसत तापमान बढ़ने से कणों के जमने में अतिरिक्त समय लग रहा है, इससे बादलों में पहले की तुलना में ज्यादा वाष्प संचित होने लगी है और इन वायुमंडलीय नदियों की जल धारण क्षमता बढ़ रही है जब पानी का दबाव बहुत बढ़ जाता है तो इसका परिणाम बादल फटने और बाढ़ के रूप में सामने आता है।

जीवन का कोई भी पक्ष दुष्प्रभावों से अछूता नहीं है

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान और बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण मौसम में अप्रत्याशित बदलाव का दुष्प्रभाव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। इससे हमारे भोजन, पानी, रहन-सहन और स्वास्थ्य संबंधी सभी पर स्पष्ट रूप से प्रभाव देखा जा सकता है। अगर अभी नहीं चे तो यह संकट लगातार गहराता रहने का अनुमान है।

पहले कराड़ों साल तक तपते रहने के बाद धीरे-धीरे पृथ्वी ऐसी मौसम प्रणाली बन गई जिसमें जीवन संभव हो सका। इसके बाद तरह-तरह की जीवो से होते हुए करीब 20,00,000 साल पहले पृथ्वी पर मनुष्य आया। जिस मौसम प्रणाली पर्यावरण और प्रकृति को बनाने में पृथ्वी ने करोड़ों साल लगा दिए, उसे मनुष्य मात्र 20,00,000 वर्षों में ही ठुकरा कर देने की स्थिति में आ गया है।

इसमें भी पिछले करीब डेढ़ से दो सदी बहुत ही विध्वंस कार्य कर रहे हैं। पृथ्वी का नियम है कि जो भी होगा उसे जोड़ो भी लेकिन भोग वादी सभ्यता में इसकी अनदेखी हुई। सुविधाओं के लिए जन्मी औद्योगिक क्रांति के कारण आज दुनिया का एक भी कोना ऐसा नहीं है, जो जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से सीधे प्रभावित ना हो रहा हो। औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में औसत वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री तक बढ़ गया है, जो कोयला औद्योगिक क्रांति का आधार था आ वही कोयला इस तबाही का कारण बन रहा है। पेट्रोलियम पदार्थों ने पूरी तरह से मौसम को प्रभावित किया है।

आज स्थिति यह हो गई है कि जलते ग्लेशियर एक अलग तरह के संकट को जन्म देते दिख रहे हैं, सागर महासागर और ग्लेशियरों में हो रहा बदलाव जो शायद हमें दूर की बात लगे लेकिन अब वह खतरा बदलते मौसम के रूप में एकदम हमारे नजदीक आ गया है। मौसम प्रणाली अबूझ सी हो गई है और मौसम का अनुमान लगाना कठिन हो गया है। शीतकालीन वर्षा जो पश्चिमी विक्षोभ से आती है, वह फिर बिखर सी गई, इससे एक क्लाइमेट स्विफ्ट हुआ और हमें अप्रैल-मई में बारिश देखने को मिल रही है जो कि बहुत कम हुआ करती थी।

बदलते मौसम से घटती उत्पादकता और बढ़ती चिंता भारत में 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जो किसी न किसी प्रकार से Degrdation की शिकार है।

  • मौसम में अप्रत्याशित बदलाव के कारण किसानों के लिए खेती की लागत बढ़ती है।
  • तापमान ज्यादा होने से फसल जल्दी पड़ती है और उत्पादकता कम हो जाती है।
  • मौसम के कारण खेती पर लगातार दुष्प्रभाव की वजह से गांव में किसान पलायन बड़ा है।
  • भविष्य में गेहूं की उत्पादकता 22 प्रतिशत और धान की 15 प्रतिशत कम हो सकती है।
  • कहीं सूखा और कहीं बाढ़ की स्थिति के कारण पशुओं के चारे की समस्या पैदा हो सकती है।

गर्मियों में लू गायब हो सकती है

पश्चिमी विक्षोभ से बदला मौसम का गणित

पिछली बार वर्ष 2019 में पश्चिमी विक्षोभ पूरी ताकत से भारत में आए थे तब से उनके आने में या तो देरी हुई या फिर वे कमजोर हुए है। पश्चिमी विक्षोभ से बदलते मौसम पर प्रतिक्रिया देते हुए, रिव्यूज आफ जियोफिजिक्स में प्रकाशित वेस्टर्न डिस्टरबेंस ए रिव्यू के अनुसार, भारत दिसंबर से मार्च के बीच और स्थान हर महीने 4 से 6 बार तेज पश्चिमी विक्षोभ का सामना करता है। यानी इस पूरी अवधि के दौरान 16 से 24 पश्चिमी विक्षोभ की घटनाएं होती हैं। इस बार सर्दी में केवल 3 तेज पश्चिमी विक्षोभ आए जो भी एक चिंता का विषय है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ स्थित कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर में प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष हैं तथा लेख में प्रस्तुत विचार उनके स्वयं के हैं ।