सामाजिक-आर्थिक विकास अवधारणाएं एवं पहल

                                                                 सामाजिक-आर्थिक विकास अवधारणाएं एवं पहल

                                                                                                                                                         डॉ0 आर. एस. सेंगर, वर्षा रानी एवं मुकेश शर्मा

’विकास’ शब्द आमतौर पर आर्थिक प्रगति का सूचक है। परन्तु यह राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी प्रगति पर भी समान रूप से लागू होता है। इसमें समाज के विभिन्न क्षेत्र इस प्रकार से जुड़े होते हैं कि इसे अलग ढंग से स्पष्ट करना कठिन है। विकास शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक अर्थ में किया जाता है।

किसी भी वर्तमान स्थिति में कोई भी बदलाव ’विकास’ कहलाता है। विकास शब्द परिवर्तन की उस गति को दर्शाता है जिसके अन्तर्गत एक अवस्था दूसरी अवस्था का स्थान लेती हुई आगे बढ़ती जाती है। विकास एक बहुआयामी अवधारणा है जिसमें अनेक चीजें सम्मिलित है जैसेः कृषि, व्यापार, उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि।

    डॉ. ओम प्रकाश गाबा के द्वारा विकास को इस प्रकार परिभाषित किया गया है ‘‘विकास वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई प्रणाली या संस्था अधिक सुदृढ़, विशाल, व्यवस्थित, कार्यकुशल, प्रभावशाली तथा संतोषजनक रूप धारण कर लेती है। इनमें से कुछ लक्षण या इससे मिलते-जुलते लक्षण विकास की संकल्पना सम्पूर्ण मानव जीवन की गुणवत्ता को उन्नत करने की प्रक्रिया का संकेत देती है। इसकी तीन मुख्य विशेषताएं मानी जाती है।

(i) लोगों के रहन-सहन के स्तर का उन्नयन जैसे कि आय में वृद्वि, उनके भोजन, चिकित्सा सेवाओं और शिक्षा के स्तर में सुधार।

(ii) किसी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली एवं संस्थाओं की स्थापना, जो मानव गरमा और सम्मान को बढ़ा दे ताकि लोगों में आत्म सम्मान की भावना विकसित हो सके।

(iii) उपभोक्ता, वस्तुओं और सेवाओं में विविधता का विस्तार ताकि उपयोग के क्षेत्र में लोगों के लिए चयन की क्षमता को बढ़ाया जा सकें।

प्रो. अमर्त्य सेन, विकास को मात्र राष्ट्रीय उत्पाद या तकनीकी प्रगति आदि में ही निहित नहीं मानते बल्कि वे वंचितों की वास्तविक मुक्ति की बात करते है, जो गरीबी, भूख, अशिक्षा, स्वास्थ्य, वंचना आदि सामाजिक बुराइयों से मुक्ति दिलाता है।

इस प्रकार अनेक विद्वान विकास को अपने अपने नजरिये से विश्लेषित करते है। कोई विद्वान उसे शुद्व आर्थिक दृष्टि में देखता है तो कोई उसके सामाजिक सरोकार को महत्वपूर्ण मानता है। यह निश्चित है कि विकास परिवर्तन की एक गतिशील प्रक्रिया है जो मानव जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता रहता है। इस प्रकार विकास एक ऐसा विचार है जिसमें निश्चित समाज, क्षेत्र तथा जनसमुदाय की सामाजिक सांस्कृतिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है। अनेक एवं कार्यक्रम-ग्रामीण लोगों, अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों महिलाओं, नगरवासियों, कृषि मजदूरों तथा औद्योगिक श्रमिकों आदि को ध्यान में रखते हुए प्रारंभ किए जाते है।

सामाजिक विकास

  • सामाजिक विकास एक ऐसी नियोजित संस्थात्मक प्रक्रिया है जो एक ओर मानवीय आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के बीच तथा दूसरी ओर सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों के बीच अच्छा स्वमंजस्य स्थापित करता है। इसके अन्तर्गत सभी मानव को अच्छा जीवन जीने की स्थितियां उपलब्ध कराना, गरीबी, निरक्षरता, असमानता, दमन एवं उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना ही नहीं बल्कि सभी नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता को सुधारना भी है।
  • “सामाजिक विकास का मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय एवं विकास के लाभों के समान वितरण से है- सामाजिक विकास का लक्ष्य एक अधिक मानवतावादी समाज की प्राप्ति करना है, जिसकी संस्थाएं और संगठन मानवीय आवश्यकताओं के प्रति अधिक उपयुक्त ढंग से प्रतिक्रिया करें“।

आर्थिक विकास

  • आर्थिक विकास एक व्यक्तिनिष्ठ संकल्पना है, जिसमें राष्ट्रीय आय एवं उत्पादन पर बल न देकर समग्र मानवीय विकास पर बल दिया जाता है, जिससे हमारी क्रय-क्षमता में वृद्वि हो तथा हमारे जीवन स्तर में सकारात्मक सुधार हो। अतः उत्पादन अथवा संवृद्धि का बढ़ाना विकास का एकमात्र पक्ष है जबकि आर्थिक विकास के लिए निवेश तथा संसाधनों का कुशलतम उपयोग बहुत आवश्यक है।
  • प्रो. अमर्त्य सेन आर्थिक विकास को अधिकारित तथा क्षमता विस्तार के रूप में परिभाषित करते हैं। उनका अधिकारिता का दृष्टिकोण जीवन पोषण आत्मसम्मान एवं अनाश्रित से सम्बन्धित है। जबकि क्षमता स्वतंत्रता प्रदान करने से सम्बन्धित है। अधिकारिता कुछ कार्यों को करने की क्षमता को जन्म देती है। यहाँ स्वतंत्रता से आशय आवश्यकता, अनभिज्ञता तथा गंदगी आदि दोषों की मुक्ति से है। जो व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में सामर्थ्यवान बनाती है एवं जिससे व्यक्ति में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों के प्रति चेतना का विकास होता है।

भारत में सामाजिक आर्थिक विकास की अवधारणा

  • भारतीय समाज प्राचीन काल से ही अनेक जातियों में बँटा है, जिससे यहाँ आपसी संघर्ष एवं टकराव के कारण सामाजिक एवं आर्थिक विषमता पर्याप्त रूप में देखने को मिलती है। अनुसूचित जामि/जनजाति, वृद्व, बच्चों एवं महिलाओं को अनेक तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। इनकी स्थिति के सुधार कर भारत में सामाजिक, आर्थिक विकास की बुनियाद रखी जा सकती है।
  • भारत में प्राचीन काल से ही सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए यहाँ शासकों द्वारा प्रयास किया जा रहा है चाहे वह सम्राट अशोक हों या फिर मुगल बादशाह अकबर। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक उपबंधों के द्वारा देश में सामाजिक-आर्थिक विकास का खाका प्रस्तुत किया गया और वर्तमान में भी विभिन्न सरकारों के द्वारा क्रियान्वयन किया जा रहा है।
  • पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश में उपलब्ध संसाधनों का प्राथमिकता के आधार पर वितरण, निवेश एवं दोहन कर गरीबी में कभी लायी गई शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अवसंरचनात्मक विकास को बेहतर बनयाय गया। विज्ञान एवं तकनीक में भारत दिन प्रति दिन प्रगति कर रहा है।
  • आर्थिक विकास के लिए भाारतीय संविधान में अनेक उपबन्ध किये गए है, जैसे अनुच्छेद-14 के तहत सभी को समता का अधिकार दिया गया, अनुच्छेद-17 के द्वारा अस्पृश्यता का अंत, अनुच्छेद-25 के तहत देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, अनुच्छेद 29 एवं 30 के द्वारा धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यको को शिक्षा एवं अपनी संस्कृति के संरक्षण हेतु अधिकार दिया गया है।

अनुच्छेद 39 (घ) में स्यिों एवं पुरुषों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो आदि उपबन्ध किये गए है। इसके अतिरिक्त देश में सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं भी चलाई जा रही है।

भारत में सामाजिक-आर्थिक असमानता के प्रमुख कारक

जाति प्रथा एवं धार्मिक कर्मकाँड- प्राकृतिक संसाधनों की कमी एवं असमान वितरण

निम्न प्रतिव्यक्ति आय- मानव संसाधनों कौशल विकास एवं व्यवसायिक शिक्षा का अभाव

धन निष्काषन एवं विऔद्योगिकरण का प्रभाव-प्रशासनिक उदासीनता एवं भ्रष्टाचार

कृषि पिछड़ापन और लघु एवं कुटीर उद्योग का पतन- जनसंख्या वृद्वि एवं निम्न स्वास्थ्य स्तर

                         

  • भारत की सामाजिक-आर्थिक असमानता का प्रमुख कारण प्राकृतिक संसाधनों का अभाव एवं उनका वितरण है। उदाहरणस्वरूप उत्तर प्रदेश एवं बिहार की अधिकांश आबादी अपनी के लिए अन्य राज्यों में जाते है, क्योंकि यहाँ प्राकृतिक संसाधन लगभग न्यून है। इन लोगों को दूसरे राज्यों में अनेक प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कई बार तो वहाँ के लोगों के साथ संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।
  • जति प्रथा एवं धार्मिक कर्मकांड देश में असमानता का एक प्रमुख कारण है। एक व्यक्ति के किसी व्यवसाय में दक्ष होने के बावजूद व्यवसाय इसलिए नहीं करता क्योंकि यह उसके परिवार के मर्यादा विरुद्ध या उस जाति पर पर किसी प्रकार की अयोग्यता निर्धारित की गयी है। 
  • निम्न प्रतिव्यक्ति आय के कारण व्यक्ति अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता। एक वर्ग है जिसके संपत्ति है जबकि वहीं समाज का दूसरा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष करता रहता है। 
  • भारत एक कृषि प्रधान देश है ऐसे में कृषि का पिछड़पन देश सामाजिक एवं आर्थिक असामानता का एक प्रमुख कारण है। लोागें की आय का मुख्य स्रोत होने के कारण कृषि का पिछड़पन जहाँ लेगों की गरीबी में वृद्वि कर रहा है वहीं दूसरी ओर किसानों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति असमानता को और अधिक बढ़ा रहा है। 
  • क्षेत्रीय असंतुलन ने क्षेत्रीय असमानता को बढ़ावा ही दिया है जैसे- 

(i) हरित क्रॉन्ति का प्रभाव कुछ ही राज्यों तक सीमित रहा।

-  गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं झारखण्ड़ जैसे राज्यों में जहाँ प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं वहाँ बड़े-बड़े उद्योगों संकेन्द्रन भी इन्हीं राज्यों में देखने को मिलता है, जिसके कारण सामाजिक-आर्थिक असमानता बढ़ती ही जा रही है।

सामाजिक आर्थिक विकास के लिए सरकार की पहल

- भारत में सामाजिक आर्थिक विकास के लिए समूह आधारित उपागम को स्वीकार किया गया है। हमने संविधान की रचना के दौरान ही समूह को लक्षित कर प्रावधानों की रचना की है। समाज के पिछड़े, वंचित तबके, महिलाओं एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं। सामाजिक-आर्थिक उन्नयन के लिए हमने उन्हें विभिन्न समूहों के रूप में चिन्हित किया और सकारात्मक कार्यवाही के रूप आरक्षण को अपनाया। नीति निर्माताओं ने माना कि जब शिक्षा एवं रोजगार में आरक्षण के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर पहुँचे लोगों को बराबरी पर लाया जायेगा तो बाकी समस्याएं अपने आप ही समाप्त हो जाएंगी। हालांकि एंसा नही हुआ और हमें दूसरे कानून भी बनाने पड़े जिसमें दलित उत्पीड़न पर रोक लगाने वाला कानून प्रमुख है।

वर्तमान में केन्द्र सरकार का दर्शन हैं ‘‘सबका साथ सबका विकास’’ अर्थात इसके जरिए प्रयास यह है कि समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक कल्याणकारी सुविधाओं को पहँुचा कर उसके जीवन को बेहतर बनाने का प्रयत्न करना। इससे पूर्व भी भारत में सामाजिक आर्थिक विकास के लिए अनेक संकल्पनाएं अपनायी गई थी जैसे कि सर्वोदय एवं अन्त्योदय आदि।

सरकारी पहल

    वित्तीय समावेशीकरणः-

(i)   जन-धन योजना के तहत प्रत्येक उस व्यक्ति का बैंक खोला गया जिसे सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता है।

(ii) उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए र्स्टाटअप, स्टैण्डअप, प्रधानमंत्री मुद्रा, डिजिटल इण्डिया एवं कौशल विकास जैसे कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है। 

महिलाओं एवं वरिष्ठ नागरिकों के सशक्तिकरण के सम्बन्ध में पहल

- भारत सरकार के द्वारा महिलाओं एवं वरिष्ठ नागरिकों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं जैसे कि ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं, सुकन्या समृद्वि योजना, इन्दिरा गाँधी वृद्वा पेशन योजना एवं राष्ट्रीय वयोश्री’’ आदि योजाओं की शुरूआत की है।

अन्य पहलें

- आयुष्मान भारत योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को पाँच लाख रूपये तक का मुफ्त ईलाज किसी भी सरकारी या सूचिबद्व निजी अस्पताल में हो सकेगा। 

-  छात्रों के लिए प्रीमैट्रिक एवं पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति को वितरित किया जा रहा है।

- स्वच्छ भारत योजना के तहत शौचालय विहीन आवासों के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा शौचालयों के निर्माण हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ, के कृषि महाविद्यालय मे स्थित कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।

डिस्कलेमरः उपरोक्त लेख में प्रकट विचार डॉ0 सेंगर के अपने और मौलिक विचार हैं।