औषधीय पौधे सर्पगन्धा की खेती और किसानों की आय

                                                     औषधीय पौधे सर्पगन्धा की खेती और किसानों की आय

                                                                                                                                               डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

    सर्पगन्धा का पौधा 30-75 सेन्टीमीटर तक की ऊंचाई में बढ़ता है, और कभी-कभी एक मीटर ऊंचा भी हो जाता है। इसका तना हरा होता है और एक स्थान से ही तीन या चार पत्तियाँ निकलती हैं। पत्तियाँ 4-18 सेमी0 तक लम्बी एवं 2.5-7.0 सेमी0 तक चौड़ी होती हैं।

पत्तियों का अग्रभाग नुकीला होता है, जो देखने में चमकीला और छूने में चिकनी होती है। ऊपर का रंग हरा होता है तथा नीचे का रंग हल्का पीला हरा होता है। पत्तियों में छोटी-छोटी शिराएं होती हैं।

     पुष्पक्रम शीर्षथ होता है, परन्तु कभी-कभी पत्तियों के कक्ष से भी यह निकलता है। पुष्पक्रम के ऊपरी भाग में छोटी-छोटी डंडियाँ होती है। और इनके ऊपर लगभग 2.5 सेन्टीमीटर लम्बे पुष्प आते हैं।

पंखुड़ियाँ बाहर की ओर गुलाबी, अन्दर से सफेद होती हैं और नीचे की ओर जुड़ती हुई एक नली जैसी रचना बनाती हैं, जो कि मध्य से मोटी होती है और वहीं नर भाग लगे होते हैं। नर भाग के नीचे बीच में नर-मादा एक साथ निकलती हैं।

जब गर्भाधान हो जाता है तो फल का निर्माण हो जाता है और पंखुड़ियाँ गिर जाती हैं। फल मटर के समान (07 मिमी) मोटे एवं गुठलीदार होते हैं। फल के अन्दर कभी-कभी एक अथवा दो गुठली पाई जाती हैं।

     जड़ इसका सर्वाधिक उपयोगी भाग होता है। इसकी जड़ मूसलादार होती हैं और जमीन के अंदर काफी गहराई तक जाती हैं। कभी-कभी तो ये जड़ें 3 या 4 मीटर की गहराई तक चली जाती है।

पहले तो जड़ें सीधी ही जाती हैं, 3 सेमी के बाद इससे शाखाएँ निकलती हैं, जो मूसला जड़ के बराबर की गहराई तक जाती हैं। यह भी देखने में आया है कि 1-1.5 मीटर की गहराई में ही सबसे अधिक पाशर्व जड़ें निकलती हैं। सबसे मोटी जड़ का भाग केवल पहले से ही 30 सेमी0 गहराई तक अवथित रहता है।

बाजार में मूसला जड़ के छोटे-छोटे टुकड़े बेचे जाते हैं, जो 3-4 वर्ष पुराने पौधों के होते हैं। सूखी जड़ों का रंग मटमैला सा रहता है। ऊपर की छाल आसानी से छिल जाती है वहीं अंदर की छाल कुछ पीलापन लिए होती हैं, इसमें कोई सुगंध विद्यमान नही होती है और चबाने में कड़वी होती है।

भारतीय महाद्वीप सर्पगन्धा के पौधें प्राकृतिक रूप से हिमालय की तलहटी से लेकर बंगाल, आसौम, मेघालय की सीमा, पूर्वी एवं पश्चिमी घाट, छोटा नागपुर, बिहार, तमिलनडू में अन्नामलाई पर्वत श्रंखला, केरल के दक्षिण-पश्चिम भाग से लेकर बस्तर (मध्य प्रदेश) तक पाई जाती है।

इसके अतिरिक्त म्यांमार (वर्मा), श्रीलंका एवं थाइलैण्ड में भी पाई जाती है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और हिमालय के तराई वाले क्षेत्रों देहरादून, ऋषिकेश, गढ़वाल एवं नैनीताल के अतिरिक्त गोरखपुर, वाराणसी, लखनऊ आदि में भी पाई जाती हैं। यह 1200 मीटर की ऊंचाई वाले स्थानों पर भी पाई जाती है। यह साल और बांस के जंगलों में वृक्षों से लगकर भली-भाँति उगती हैं।

                                                                 

सर्पगन्धा की खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, असौम, तमिलनाडू, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं सौराष्ट्र में भी की जा रही है, आजकल इसे मध्य प्रदेश में भी उगाया जा रहा है। उत्तराखण्ड़ के देहरादून में इसकी खेती की जा रही है।

औषधीय उपयोगः- सर्पगन्धा को आयुर्वेद में निद्राजनक के रूप में जाना जाता है। इसका प्रमुख तत्व जो पूरे विश्व में एक औषधीय बनाता है। इसकी जड़ से कई अन्य तत्व भी प्राप्त होते हैं। जिनमें क्षारोद रिसरपिन, सर्पेंन्टन, एजमेरीसिन आदि प्रमुख हैं जिनका उपयोग उच्च रक्तचॉप, अनिंद्रा, उन्माद, हिस्टीरिया आदि रोगों को रोकने वाली औषधियों के निर्माण में किया जाता है। इसमें 1.7-3.0 प्रति तक क्षारोद पाया जाता है, जिसके रिसरपिन प्रमुख हैं। इसके गुण रूक्ष, रस में तिक्त विपाक में कटु और इसका प्रभाव निंद्राजनक होता है।

सर्पगंधा के लाभ:

स्नेक रूट की प्रभावशीलता को पुष्टि करने के लिए और अधिक सबूतों की आवश्यकता है क्योंकि यह अभी भी शोधकर्ताओं के लिए अध्ययन का विषय है। लेकिन शुरुआती निष्कर्षों से पता चलता है कि सर्पगंधा कई स्वास्थ्य परेशानियों में प्रभावशाली परिणाम देने की क्षमता रखती है।

उच्च रक्तचाप (Hypertension) – प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि भारतीय सर्पगंधा में ऐसे रसायन होते हैं जो रक्तचाप को कम करते हैं। इसलिए यहां कई लोग उच्च रक्तचाप मतलब ब्लड प्रेशर से संबंधित समस्याओं के लिए सर्पगंधा का उपयोग करते हैं।

अनिद्रा (Insomnia) – कई प्रारंभिक अध्ययनों में पाया गया है कि जब सर्पगंधा को दो अन्य जड़ी बूटियों के साथ मिलाया जाता है, तो अनिद्रा की समस्या से जूझ रहे लोगों को राहत मिलती है।

चिंता (Anxiety) – सर्पगंधा के 20 दिनों के नियमित उपयोग से कुछ लोगों में चिंता कम करने के अच्छे परिणाम सामने आए।

लीवर के लिए उपयोगी (Liver Issues) – भारतीय सर्पगंधा में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो लिवर को फायदा पहुंचाते हैं। इसका उपयोग लीवर की बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता है।

मिर्गी का उपचारसर्पगंधा या स्नेक रूट का उपयोग मिर्गी जैसी खतरनाक बीमारी से जूझ रहे लोगों के उपचार के लिए किया जाता है।

मासिक धर्म सर्पगंधा का नियमित उपयोग महिलाओं के गर्भाशय को सिकोड़ता है और मासिक धर्म से जुड़ी समस्याओं को दूर करता है।

शीघ्र पतन सर्पगंधा का उपयोग शीघ्र पतन के उपचार में भी किया जाता है।

– इसकी पत्तियों के रस का उपयोग आंख के कॉर्नियल अपारदर्शिता को दूर कर सकता है।

– सर्प दंश अर्थात सांप के काटने पर सर्प दंश की जड़ का चूर्ण काटने वाले स्थान पर लगाने से सांप का जहर निष्क्रिय हो जाता है।

– इसका उपयोग एनोरेक्सिया, अपच, कृमि, पेट दर्द और अन्य गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल मुद्दों में भी किया जाता है।

– कब्ज

– सांप या जहरीले जीव के काटने पर यह उपयोगी है।

– जोड़ों के दर्द से छुटकारा

– खराब रक्त परिसंचरण करता है।

– गठिया के लिए उपयोगी

– मानसिक विकार के लिए उपयोगी

`हालांकि अभी भी इस क्षेत्र में अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। इस सदाबहार औषधीय पौधे की उचित प्रभावशीलता पर ठोस तथ्य और परिणाम प्राप्त करने के लिए अधिक रिसर्च की आवश्यकता होगी।

साइड इफेक्ट्स और सावधानियां

सर्पगंधा एक बेहद ही सुरक्षित औषधि है, जब आप इस औषधि का उपयोग किसी चिकित्सक की देखरेख में करते हैं तो बेहद ही लाभदायक और उपयुक्त परिणाम देने का कार्य करती है। मानकीकृत सर्पगंधा में दवा की एक निर्धारित मात्रा होती है।

यह कुछ रसायनों की मौजूदगी के कारण सेल्फ मेडिकेटेड के लिए असुरक्षित है, जो कि बहुत ही जहरीले हो सकते हैं, यदि इसे उचित खुराक में न लिया जाए तो इसके साइड इफेक्ट्स जैसे नाक की रुकावट, पार्किंसंस रोग, उल्टी और कोमा जैसे गंभीर लक्षण देखने को मिल सकते हैं। सर्पदंश का उपयोग सदैव एक चिकित्सा पेशेवर की देखरेख में किया जाना चाहिए।

मुंह से सेवन (Oral Consumed:) – मुंह से सीधा सेवन किया जाने पर सर्पगंधा असुरक्षित हो सकता है। इसमें ऐसे रसायन होते हैं, जो रक्तचाप और हृदय गति को कम कर सकते हैं। दीर्घकालिक उपयोग के मामले में अवसाद भी प्रमुख दुष्प्रभावों में से एक हो सकता है। भारतीय सर्पगंधा का मुंह से सीधा सेवन नाक की रुकावट, भूख, वजन में कमी और आलस्य जैसे साइड इफेक्ट दे सकता है।

मधुमेह (Diabetes) – यदि सर्पगंधा को अन्य मधुमेह की दवाओं के साथ लिया जाए, तो सर्पगंधा किसी के शुगर लेवल को कम कर सकता है और परिणाम घातक हो सकते हैं।

पित्ताशय की थैली (Gallbladder) – सर्पगंधा के पौधों या सर्पगंधा दवाओं में मौजूद कुछ रसायन पित्ताशय की बीमारी को गंभीर रूप से खराब कर सकते हैं।

पेट का अल्सर (Stomach Ulcers) – कुछ अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि भारतीय सर्पगंधा का सेवन उन लोगों को नहीं करना चाहिए जिनके पेट में अल्सर या अल्सरेटिव कोलाइटिस है। सर्पगंधा के पौधे में मौजूद रसायन इन बीमारियों को फिर से जीवित कर सकता है।

गर्भावस्था और स्तनपान (Pregnancy and Breastfeeding) – सर्पगंधा औषधि का उपयोग किसी भी गर्भस्थ या स्तनपान करवाने वाली महिलाओं को नहीं करना चाहिए। कुछ रिपोर्ट के अनुसार सर्पगंधा में मौजूद रसायन गर्भावस्था को प्रभावित की सकती हैं। इसके अलावा ये रसायन स्तनदूध तक पहुंच सकते हैं और शिशु को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तो ऐसे परिदृश्यों में सर्पगंधा के उपयोग से बचने की सलाह दी जाती है।

ड्राइविंग (Driving) – सर्पगंधा की प्रतिक्रिया का समय बेहद धीमा होता है, इसलिए यह सलाह दी जाती है कि वाहन चलाते समय या खतरनाक उपकरण का उपयोग करते समय इसका सेवन न करें।

सर्जरी (Surgery) – सर्पगंधा का उपयोग कम से कम सर्जरी के 2 सप्ताह पहले से 2 सप्ताह बात तक न करें क्योंकि यह रक्तचाप और हृदय गति को बढ़ाकर सर्जिकल हिस्से को प्रभावित कर सकती है।

अन्य (ECT) – इसका सेवन उन लोगों को नहीं करना चाहिए जो सदमे के उपचार से गुजर रहे हैं।

दवा के रूप में सर्पगंधा और सावधानियां:

एंटीसाइकोटिक दवाओं के साथ (Interaction with Antipsychotic drugs) – सर्पगंधा का प्रभाव शांत होता है, इसलिए जब कोई एंटीसाइकोटिक या इससे मिलती जुलती अन्य दवाओं के साथ लिया जाता है, तो इसके कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं।

अल्कोहल के साथ (Interaction with Alcohol) – सर्पगंधा का सेवन करने वाले लोगों को अल्कोहल से बचना चाहिए क्योंकि इससे अनिद्रा और अन्य अनचाहे लक्षण दे सकता है।

नींद की दवाइयां (Sleeping medications) – सर्पगंधा और नींद की गोलियां अगर एक साथ सेवन की जाती हैं, तो इससे गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

लैनोक्सिन और डिगॉक्सिन के साथ (Interaction with Lanoxin/Digoxin) – डिगॉक्सिन दिल की धड़कन को बढ़ाने में मदद करता है जबकि सर्पगंधा का पौधा दिल की धड़कन को कम करता है। यदि एक साथ लिया जाता है तो निश्चित रूप से लानॉक्सिन की प्रभावशीलता कम हो जाएगी।

लेवोडोपा के साथ (Interaction with Levodopa) – लेवोडोपा का उपयोग पार्किंसंस रोग के लिए एक दवा के रूप में किया जाता है। हालांकि साइड इफेक्ट दिखाने के कोई ठोस सबूत नहीं हैं, लेकिन यह सलाह दी जाती है कि सर्पगंधा और लेवोडोपा का एक साथ उपयोग न करें।

डिप्रेशन की दवाओं के साथ (Depression Medications)– फेनिलजीन, ट्रानिलिसिप्रोमाइन जैसी दवाओं का उपयोग अवसाद के ईलाज में किया जाता है, जो संभवतः सर्पगंधा में मौजूद रसायनों के साथ प्रतिक्रिया कर सकती हैं और रोगियों को अन्य दुष्प्रभाव दे सकती हैं।

प्रोप्रानोलोल (Propranolol)– प्रोप्रानोलोल और सर्पगंधा दोनों का उपयोग रक्तचाप को कम करने के लिए किया जाता है। जब दोनों का सेवन एक साथ किया जाता है तो रक्तचाप बहुत कम हो सकता है।

उत्तेजक औषधियां (Stimulant Drugs)– नर्वस सिस्टम को तेज करने के लिए डायथाइलप्रोपियन (टेनस), एपिनेफ्रीन, फेंटमाइन (आयनोमिन), स्यूडोफेड्राइन (सूडाफेड) जैसी दवाओं का सेवन किया जाता है। सर्पगंधा का प्रभाव भी कुछ ऐसा ही होता है। यदि दोनों का सेवन एक साथ किया जाए तो रक्तचाप और हृदय गति में वृद्धि जैसे गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं।

एफेड्रिन के साथ (Interaction with Ephedrine)– एफेड्रिन तंत्रिका तंत्र को गति देता है और आपको जलन महसूस कराता है जबकि सर्पगंधा का प्रभाव शांत होता है और आपको नींद आती है। इनका एक साथ सेवन या तो दोनों के प्रभावों को बेअसर कर सकता है या दुष्प्रभाव पैदा कर सकता है।

मूत्रवर्धक दवाओं के साथ (Interaction with Diuretic Drugs)– पानी की गोलियां जैसे क्लोरोथायजाइड शरीर में पोटेशियम को कम करते हैं जो हृदय को प्रभावित कर सकते हैं और दुष्प्रभाव की संभावना भी बढ़ा सकते हैं।

सर्पगंधा की खुराक

आयु, स्वास्थ्य, चिकित्सा स्थिति आदि जैसे कई कारक सर्पगंधा की सही खुराक निर्धारित करते हैं। सर्पगंधा पौधों पर पर्याप्त शोध नहीं किए गए है, जिससे उचित खुराक निर्धारित करना मुश्किल हो जाता है।

यह हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जब दवाओं की बात आती है, तो इसे एलोपैथिक या आयुर्वेदिक या प्राकृतिक घटक कहें, गलत खुराक लेना घातक या अनुपयोगी हो सकता है। हमेशा उत्पादों के लेबल पर मुद्रित उपयोग और खुराक के निर्देशों का पालन करें। हमेशा इसका उपयोग करने से पहले एक पेशेवर चिकित्सक से परामर्श करें।

जलवायुः- सर्पगन्धा गर्म एर्वं आद्र जलवायु में अच्छी उगती है। जिन स्थानों पर यह प्राकृतिक रूप से उगती है वहां पर इसे सुगमता से उगाया जा सकता है। इसे खुले खेतों और थोड़े छायादार स्थानों पर भी उगाया जा सकता है। जिन स्थानों पर सिंचाई की पर्याप्त नही हैं, वहां वृक्षों की छाया में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

भूमिः- सर्पगन्धा की जड़ों की समुचित वृद्वि के लिए उचित जल-निकास वाली बलुई या दोमट मिट्ठी सर्वोत्तम मानी जाती है क्योंकि चिकनी मिट्ठी में इसकी जड़े भली-भाँति विकसित नही हो पाती हैं। साराँश (पी0एच0 मान) 6.0-8.5 वाली भूमि सर्पगन्धा के उत्पादन के लिए अच्छी मानी जाती हैं। अतः अधिक अम्लीय मृदाओं में इसकी खेती को नही किया जाना चाहिए।

खेत की तैयारीः- इसकी खेती के लिए मई में खेत को जोतकर छोड़ देना चाहिए। 10 या 15 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट जुताई से पूर्व खेत में बिखेर देना चाहिए। बाद में दो या तीन बार कल्टीवेटर या हैरो से आर-पार जुताई करनी चाहिए। अन्तिम जुताई के उपरांत पाटा लगाना चाहिए ताकि मिट्ठी भुरभुरी व समतल हो जाए। खेत में क्यारियाँ और सिंचाई नालियों का निर्माण कर लेना चाहिए।

किस्मेंः- राउललिफिया सर्पेन्नाइट बेन्थ के पौधे छोटे एवं झाड़ीदार होते हैं, परन्तु कुछ पौधें वृक्षों के समान भी होते हैं, जैसे राउलफिलिया कैफरा, भारत में इस वर्ग के निम्नलिखित पौधें पाए जाते हैं-

रा.ऐलफेनोसोनिया, रा. वाईबेरीकुलेटा, रा. बेडोमी, रा. डिकरवा, रा. टरडफिला कनेसन्स, रा. डेन्सीफ्लोरा, रा. माईक्रेन्था, रा. नाईटोडा।

उन्नत किस्मेंः- सर्पगन्धा की किस्मों के विकास पर कोई विशेष कार्य नही किया गया है। इसकी एक किस्म का विकास इन्दौर मध्य प्रदेश में किया गया है और इनकी किस्म विकास सीमैप द्वारा किया गया है। जिनकी विशेषताओं का उल्लेख निम्न प्रकार से है-

आई0 आई-1:- इस किस्म का विकास जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के इन्दौर परिसर में किया गया है। यह एक से अधिक उपज देने वाली किस्म है, जिसके चलते सर्पगन्धा की यह किस्म किसानों के बीच दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती जा रही है।

सिमशीलः- इस किस्म का विकास केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) लखनऊ द्वारा भी किया गया है। प्रति हैक्टेयर 18-20 क्विंटल की पैदावार प्रदान करती है।

उर्वरकः- परीक्षणो के द्वारा ज्ञात हुआ है कि 30 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन, 60 कि0ग्रा0 फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से डालनें से इसकी जड़ों में क्षारोद की उपज में वृद्वि हो जाती है। 60-80 दिन बाद खड़ी फसल में 90 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर की दर से डालें।

प्रवर्धनः- सर्पगन्धा का प्रवर्धन निम्न चार प्रकार से किया जाता है-

1.   बीजों के द्वारा 2. तने की कलमों के द्वारा 3. जड़ों की कलमों के द्वारा 4. ऊतक सवर्धन से तैयार पौधों के द्वारा।

 बीजों के द्वाराः- जंगली स्त्रोतों से बीज सुगमता से प्राप्त नही होते हैं। अतः खेती द्वारा ही इसके बीज प्राप्त किए जा सकते हैं। बीज को सीधे बोने से अच्छे परिणाम प्राप्त नही होते हैं, इसलिए पहले पौधशाला में बीज बोकर इनसे पौधें तैयार किए जाते हैं।

     एक हैक्टेयर की पौध तैयार करने के लिए पांच कि0ग्रा0 बीज की आवश्यकता होती है। जब पौधें 10-15 सेमी0, ऊंचे हो जाते हैं तब वह रोपण के लिए उपयुक्त समझे जाते हैं। पौधशाला छायादार स्थान में बनाई जाती है। प्रत्येक क्यारी 1.5 चौड़ी तथा इसकी लम्बाई सुविधानुसार एवं ऊंचाई 15-20 सेमी0 रखते हैं, जिसमें एक तिहाई गोबर की खाद व दो-तिहाई मिट्ठी होती है। क्यारियाँ अप्रैल माह में बनाकर उसकी एक सिंचाई कर देते हैं।

मई के प्रथम सप्ताह में 8-10 सेमी0, दूरी पर पंक्तियों में समीप-समीप बीज बो देते हैं। 30-35 दिन में पौधें रोपाई योग्य हो जाते हैं। तैयार पौधों को 45 ग 30 सेमी0 की दूरी पर रोपाई कर दी जाती है।

तने की कलमों के द्वाराः- जून के महीने में तने के 15-22 सेमी0 लम्बे टुकड़े काटकर पौधशाला में लगाकर उन्हें नम स्थान पर रखा जाता है, ताकि उनमें जड़े निकल आएं। जड़ों के निकल आने पर इन्हें रोप दिया जाता है।

जड़ों की कलमों के द्वाराः- इसमें 3-5 सेमी0 जड़ों की कलमें काटकर गडढ़ों में केवल एक सेमी0 ऊपर रखकर रोपकर मिट्ठी में दबा दिया जाता है। तीन सप्ताह के बाद कल्लें निकलने लगते हैं। फिर इन कल्लों को रोप दिया जाता है। 100 कि0ग्रा0 कल्ले एक हैक्टेयर भूमि के लिए पर्याप्त होते हैं।

ऊतक सवर्धन (Tissue Culture) से तैयार पौधों के द्वाराः- आजकल सर्पगन्धा के पौधों का ऊतक संवधर्न के माध्यम से तैयार किए जाते हैं। इन्हें रोपकर सर्पगन्धा की खेती की जा सकती है।

रोपाईः- पौधों को जड़ सहित निकालकर बाविस्टिन के 0.1 प्रतिशत घोल में आधे घण्टे तक उपचारित करते हैं। फिर उनको 45 ग 30 सेमी0 की दूरी पर रोप दिया जाता है।

सिंचाईः- सर्पगन्धा की फसल को अधिक सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। मध्यम काली कपासीय भूमि में 18 माह में 15-16 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। गर्मियों में 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रणः- सर्पगन्धा के साथ अनेक खरपतवार भी उग आते हैं जो भूमि की नमी, पोषक तत्वों का अवशोषण कर लेते हैं। जिसके कारण पौधों के विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः इनकी रोकथाम के लिए आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।

फूल खिलनाः- जुलाई में रोपी गई फसल में नवंबर के अन्त तक फूल आने लगते हैं, जो दिसम्बर और जनवरी तक खिलते रहते हैं और फल जुलाई तक आ जाते हैं।

खुदाईः- सर्पगन्धा के पौधों में प्रारम्भ में एक ही जड़ बनती है। बाद में दो-तीन शाखाएं और विकसित हो जाती हैं। जब फसल 18 महीने की हो जाती है।

अतः इस अवधि पर 8-10 दिन पूर्व सिंचाई करके पौधों को जमीन की सतह के ऊपरी भाग को काटकर सबसोइलर का उपयोग कर जड़ें निकाल ली जाती हैं। जड़ों को बहते हुए पानी से धोकर छायादार स्थान पर सूखने के लिए फैला दिया जाता है जड़ों एवं बाहरी छाल में 80 प्रतिशत क्षारोद पाए जाते हैं।

उपजः- सर्पगन्धा की उपज भूमि की उर्वराशक्ति एवं फसल की देखभाल पर निर्भर करती है। आमतौर पर चार-पांच क्विंटल सूखी जड़ें प्रति हैक्टेयर प्राप्त हो जाती हैं। सिंचाई की सुविधा में बलुई मिट्ठी में दो वर्ष पुराने पौधों से 2200 कि0ग्रा0 प्रति हैक्टेयर और तीन वर्ष पुरानी फसल से 3500 कि0ग्रा0 तक जड़ें प्राप्त हो जाती हैं। इसकी जड़ें 50/- कि0ग्रा0 की दर से बिक जाती हैं।

जड़ों का भण्ड़ारणः- जड़ों की खुदाई के उपरांत उन्हें साफ किया जात और हवा में सुखाया जाता है। जब जड़ें सूख जाती हैं तब उन्हें बोरों में भरकर व्यापार के लिए भेजा जाता है। हवा में सुखाई गयी जड़ों में 12-20 प्रतिशत आर्द्रता होती है, लेकिन जिन जड़ों में 8 प्रतिशत से कम आर्द्रता होती है उनका भण्ड़ारण सरलता से किया जा सकता है। कृत्रिम साधनों के द्वारा जड़ों को इस प्रकार सुखाया जाता है कि उनका भण्ड़ारण सुगमता से किया जा सकता है।

जड़ों का छिलका सम्पूर्ण जड़ का लगभग 40-56 प्रतिशत भाग होता है। इसमें जड़ के काष्ठीय भागों की अपेक्षा अधिक क्षारोद पाए जाते हैं। अतः फस्ल की कटाई करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि छाल को किसी भी प्रकार की कोई हानि न हो।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ, के कृषि महाविद्यालय मे स्थित कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।

डिस्कलेमरः उपरोक्त लेख में प्रकट विचार डॉ0 सेंगर के अपने और मौलिक विचार हैं।