केला के अधिक उत्पादन के लिए गुच्छे में पोषक तत्वों का प्रयोग

                          केला के अधिक उत्पादन के लिए गुच्छे में पोषक तत्वों का प्रयोग

                                                        डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

केला एक बहुत लोकप्रिय फल है। यह अत्यंत लाभदायक और आसानी से अधिक उत्पादन प्राप्त होने के कारण यह किसानों के बीच में भी अत्यधिक लोकप्रिय है। परंतु, देश में केले को सभी किस्मों में गुच्छे के निचले भाग के फलों की कमजोर वृद्धि होना एक महत्वपूर्ण समस्या है, जिसका कोई निदान अभी तक उपलब्ध नहीं है। हर संभव प्रयास से कार्बनिक जैविक रासायनिक खाद और सूक्ष्म पोषक तत्वों के छिड़काव किए जाने के बावजूद गुच्छे के ऊपरी भाग के फलों का निचले भाग के फलों से प्रतिस्पर्धा होने से यह विपरीत परिस्थिति उत्पन्न होती है।

                                 

दक्षिण पूर्वी देशों में जहां समान आकार के फल ही बिकते है, वहां इसके निचले भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद निकाल देने की परंपरा है। हमारे यहां की परिस्थिति में यह न तो संभव ही है और न ही आवश्यक है। इस समस्या को हल करने का एक सरल और अत्यंत प्रभावशाली विधि बेंगलुर स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान ने विकसित की है।

इस विधि का प्रयोग, केले का गुच्छा मादा पेड़ से निकलकर सारे फलों के लगने के तुरंत बाद किया जाता है, लेकिन ध्यान दिया जाए कि फल अभी भी छोटा और बढ़वार की अवस्था में ही हो। केले की ’रोबस्टा’ किस्म के गुच्छे के नीचे से 6 इंच डंठल को काट दिया जाए। आधा कि.ग्रा. गाय के ताजे गोवर में 7.5 ग्राम यूरिया और 7.5 ग्राम सल्फेट ऑफ पोटाश (म्यूरेट ऑफ पोटाश नहीं) को 100-120 मिलीलीटर पानी के साथ मिलाकर, कटे हुए भाग को इस मिश्रण में डुबोया जाए और मिश्रण रखी हुई प्लास्टिक की थैली को कटे हुए भाग पर एक मजबूत डोरी से बांध दिया जाए।

’नेयपूवन’ किस्म के लिए गोबर में 2.5 ग्राम यूरिया और 2.5 ग्राम सल्फेट ऑफ पोटाश 100-120 मिलीलीटर पानी में मिलाकर कटे हुए भाग पर बांधना चाहिए। ’ग्रैन्ड नैन’ किस्म के लिए 10-10 ग्राम यूरिया और सल्फेट ऑफ पोटाश पर्याप्त है। इस विधि से ’नेयपूवन’ और ’रोबस्टा’/’ग्रैन्ड नैन’ में प्रति गुच्छे के वजन में क्रमशः 1-3 कि.ग्रा. और 2-5 कि.ग्रा. तक की बढ़ोत्तरी पाई गई।

इसके अलावा गुच्छे के निचले भाग के फल संपुष्ट हो गए, जिससे सारे गुच्छों की खूबसूरती भी बढ़ी। इस कारण इसे बेचने पर किसानों को अधिक कीमत भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार पांच अन्य केले के किस्मों में इस विधि के उत्तम परिणाम पाए गए, जैसा कि सारणी-1 में उल्लिखित है।

तालिका-1: केले की विभिन्न किस्मों के लिए यूरिया एवं सल्फेट ऑफ पोटाश की उचित मात्रा, प्रति गुच्छे पर आने वाली लागत और गुच्छे का अनुमानित वजन

किस्म:    यूरिया एवं सल्फेट ऑफ पोटाश की आवश्यक मात्रा (प्रति गुच्छा/ग्राम)

                          गुच्छे का वजन (कि.ग्रा.)   गूदा: छिलके का अनुपात

                        ग्रैन्ड नैन  10  3   3-5  2.70-2.84

                      ड्वार्फ कैवेन्डिश 7.5  2   2-4  2.84-3.74

                    रोबस्टा    7.5  2   2-4  2.57-3.22

                    नेन्द्रन    7.5  2   2-4  3.28-4.08

                नेयपूवन   2.5  1   1-3  4.44-6.09

नंजनगुड रसबाले 5   2   1-3  3.11-4.60

लाल केला 7.5  2   2-4  4.40-5.45

 इस विधि को अपनाने से किसान को प्रति गुच्छे के लिए मात्र 1-3 रुपए की लागत लगती है, लेकिन गुच्छे के वजन में 2-5 कि.ग्रा. तक की बढ़ोत्तरी और फलों की गुणवत्ता एवं फलों में पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होने से यह विधि अत्यंत लाभकारी है।

                    

गुच्छे के निचले भाग से गुच्छे के अंदर पोषक तत्वों का पहुंच जाना अस्वाभाविक सा लगता है, परंतु यह निश्चित है। समस्थानिक (आइसोटॉप) की सहायता से इस तथ्य की पुष्टि की गई है। 15-नाइट्रोजन समस्थानिक से संवर्धित यूरिया के प्रयोग से यह सिद्ध हुआ है कि ये पोषक तत्व आंतरिक रूप से फलों को प्राप्त होते हैं। शीघ्र विकसित होने वाले फलों से लदे गुच्छे केले के पेड़ के अत्यंत वृद्धिशील अंग हैं, जिनको पोषक तत्वों की भारी मात्रा में आवश्यकता होती है। इसलिए वे उपर्युक्त प्रकार से दिए हुए पोषक तत्वों का अवशोषण करते हैं। आधा कि.ग्रा. गाय के ताजे गोबर में 5.5 ग्राम नाइट्रोजन 3.5 ग्राम पोटाश और 1.6 ग्राम गंधक (सल्फर) और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों के अतिरिक्त जैव-रासायनिक भी होते हैं, जो फलों की वृद्धि के लिए अत्यंत सहायक होते हैं।

सारणी-2: केले की ‘नेयपूवन’ किस्म में जैविक और समकेतिक खेती तथा गुच्छों में पोषक तत्चों को सीधे देने के लिए गोबर में विभिन्न पदार्थों को घोलने का गुच्छों के वजन और गुणवत्ता पर होने वाला सकारात्मक प्रभाव

उपचार    गुच्छे का वजन (कि.ग्रा.)   गूदा: छिलके का अनुपात   कुल ठोस पदार्थ (प्रतिशत)

जैविक बनाम समकेतिक खेती

जैविक    8.641    5.5  24.87

समकेतिक 13.737   4.60 24.47

विभिन्न पदार्थों का घोल

स्वाभाविक 10.074   4.23 24.77

गोबर के साथ गोमूत्र का प्रयोग  11.140   4.67 24.75

गोबर के साथ पंचगव्य का प्रयोग 11.347   5.32 25.11

गोबर के साथ यूरिया एवं सल्फेट ऑफ पोटाश    12.194   6.05 24.05

’रोबस्टा’ और ’नेयपूवन’ किस्मों में यह भी पाया गया कि फलों में इस विधि से पोषक तत्वों की मात्रा में निश्चित रूप से वृद्धि हुई, जिससे केले के पौष्टिक मूल्य में बढ़ोत्तरी होकर ग्राहक की सेहत को भी लाभ मिलता है। यह उल्लेखनीय है कि इस विधि से केले के गूदे में फॉस्फोरस, पोटाश, चूना, लोहा और मैंगनीज आदि पोषक तत्वों की मात्राओं में विशेष सुधार होता है।

जैविक खेती की तुलना में समेकित खेती

आजकल जैविक खाद्य पदार्थों की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। अतः केले भी इससे अछूते नहीं हैं। केले की ’नेयपूवन’ किस्म पर किए गए प्रयोग से यह प्रतीत हुआ कि जैविक खेती के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर समेकित खेती करने से इस विधि से गुच्छे का वजन 7.805 कि.ग्रा. से 12.695 कि.ग्रा. तक बढ़ा, जो 58 प्रतिशत अधिक था (सारणी-2)। इसके साथ ही गाय के गोबर में 100 मिलीलीटर गोमूत्र मिलाने से गुच्छे के वजन में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। गोमूत्र के स्थान पर 100 मिलीलीटर ’पंचगव्य’ को गोबर में घोलने से यह बढ़त 13 प्रतिशत तक हुई, परंतु गोबर के साथ 2.5 ग्राम यूरिया और 2.5 ग्राम सल्फेट ऑफ पोटाश को घोलने से यह बढ़त 21 प्रतिशत तक पहुंची। इस प्रकार जो किसान जैविक खेती के माध्यम से केले का उत्पादन करना चाहते हैं वे इस विधि से लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

इस विधि का केले की गुणवत्ता पर प्रभाव

इस विधि से केले की सभी किस्मों में गूदा छिलके का अनुपात विशेष रूप से बढ़ा, पर कुल ठोस पदार्थ (टीएसएस) की मात्रा में खास बदलाव नहीं देखा गया। इससे यह प्रतीत होता है कि केले की गुणवत्ता में निश्चित रूप से वृद्धि होती है, जिससे किसानों को अधिक उपज के साथ ज्यादा लाभ भी प्राप्त होता है। यह भी पाया गया कि केले के गूदा में खनिज पोषक तत्व की मात्रा में भी सुधार आया, जो ग्राहक के सेहत के लिए लाभकारी है।

संस्थान के द्वारा इस विधि का प्रयोग भारत के विभिन्न राज्यों में और केले की अनेक किस्मों में बड़े पैमाने पर किसानों के लिए प्रदर्शित किया गया है, जिससे प्रभावित होकर अधिकांश किसान इसका लाभ पा रहे हैं।

इस विधि को अपनाने के लिए कुछ सावधानियां अपेक्षित हैं, जैसे (1) सल्फेट ऑफ पोटाश का ही प्रयोग करें, न कि म्यूरेट ऑफ पोटाश का (2) गाय के ही ताजे गोबर का उपयोग अनिवार्य है, क्योंकि  इसमें अन्य पशुओं के गोबर की तुलना में कृमिनाशक गुण अत्यधिक हैं, जो इस विधि में महत्वपूर्ण हैं। (3) गुच्छे के नीचे से लेकर प्लास्टिक की थैली के बीच तक कम से कम 3 इंच या 10 सें.मी. की दूरी होनी चाहिए। (4) थैली बांधने के पश्चात उसको गुच्छे की कटाई तक यथावत रखना चाहिए। लगभग 20 से 25 प्रतिशत थैलियां 5-6 सप्ताह बाद गिर सकती हैं, पर इससे इस विधि के परिणाम पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर में प्रोफेसर और कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख हैं।

डिस्कलेमरः उपरोक्त लेख में उल्लेखित विचार लेखक के मौलिक विचार हैं।