जैविक खेती एवं सतत कृषि विकास

                             जैविक खेती एवं सतत कृषि विकास

                                                                                                                            Dr. R. S. Sengar, Dr. Krishanu and Garima Sharma

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में ग्रामीण विकास के लिए कृषि का विकास आवश्यक है क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यह तय है कि भारत में कृषि विकास के बिना ग्रामीण विकास संभव ही नहीं है। इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह भी है कि देश की लगभग 2 तिहाई से अधिक आबादी आज भी गांव में निवास करती है और अधिकाँश लोगों की आजीविका का मुख्य आधार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि ही है।

                                                             

इस दशा में जैविक खेती को अपनाकर बहुत सी समस्याओं का सामना सफलतापूर्वक किया जा सकता है। हालांकि, कुछ लोग जैविक खेती की अक्सर कम पैदावार के लिए आलोचना भी करते हैं। उनके मतानुसार बढ़ती आबादी को यह खेती पर्याप्त मात्रा में खाद पदार्थ की आपूर्ति करने में सक्षम नहीं होगी। हालांकि सवाल यह नहीं है कि हम कल को पूरी दुनिया को जैविक खेती में बदल दें, लेकिन हमारी मौजूदा खाद्य प्रणाली से जुड़ी बड़ी चुनौतियों का सामना कैसे करेंगे जलवायु परिवर्तन जैव विविधता हानि, पानी की कमी, गरीबी और कुपोषण आदि कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जो दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही हैं। 

इन समस्याओं के समाधान में जैविक खेती महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अतः जैविक खेती से संबंधित प्रमुख पहलू एवं मिथकों पर विस्तार से चर्चा करना आवश्यक हो जाता है।

सारणी-1: भारत में जैविक खेती से सम्बन्धित कुछ आंकड़ें

वर्ष

2010-11

2011-12

2012-13

2013-14

2014-15

2015-16

2016-17

2017-18

कुल उत्पादन (लाख टन)

38.8

6.9

13.4

12.4

11़.0

13.5

11.8

17.0

कुल उत्पादन (लाख टन)

38.8

6.9

13.4

12.4

11़.0

13.5

11.8

17.0

कुल निर्यात की मात्रा (1000 टन)

69.8

147.8

165.2

194.1

285.6

263.7

309.8

458.0

कुल निर्यात का मूल्य (लाख अमेरीकन डॉलर)

157

358

374

403

327

298

370

515

प्रमाणीकरण के अन्तर्गत कुल कृषित क्षेत्र (लाख हेक्टेयर)

2.4

10.8

5.0

7.2

12.0

14.9

14.5

17.8

प्रमाणीकरण के अन्तर्गत कुल वन्य क्षेत्र (लाख हेक्टेयर)

41.9

44.7

47.1

39.9

37.0

42.2

30.0

17.8

प्रमाणीकरण के अन्तर्गत कुल (वन्य एवं कृषित क्षेत्र) क्षेत्र (लाख हेक्टेयर)

44.3

55.5

52.1

47.2

49.0

57.1

44.5

35.6

भारत में जैविक खेती के प्रसार की संभावनाएं

देश में वर्तमान समय में सीमित भूमि पर जैविक खेती की जा रही है। यह तो संभव ही नहीं है कि देश में समस्त खेती योग्य भूमि को जैविक खेती में परिवर्तित कर दिया जाए क्योंकि खाद्य-सुरक्षा की निरंतरता को बनाए रखने के लिए परंपरागत खेती भी बेहद आवश्यक है। विभिन्न राज्यों की चुनिंदा भूमियों और क्षेत्रों में जैविक खेती को अपनाया जा सकता है। विशषेरूप उन क्षेत्रों में जहां रसायनिक उर्वरकों और कृतिम कीटनाशकों का खेती में पहले से ही न्यूनतम प्रयोग किया जा रहा है।

दूसरी तरफ सिंचित क्षेत्रों में भी जहां रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत अधिक होता है और भूमि की उपजाऊ क्षमता में भी अपेक्षाकृत कमी आ चुकी है, जैविक खेती को अपनाकर मृदा एवं पर्यावरण स्वास्थ्य में वृद्धि की जा सकती है। फसल उत्पादन (कृषि) अतिरिक्त पशुपालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, मछली पालन, एवं डेयरी, आदि को भी जैविक विधियों के माध्यम से सफलतापूर्वक किया जा सकता है। इससे कृषकों की आय वृद्धि से भरपूर संभावनाएं उपलब्ध हैं।

जैविक उत्पादन में प्रमाणीकरण एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें किसानों को काफी धन का व्यय करना पड़ता है। अतः प्रमाणीकरण में आने वाले व्यय को कम करने की नितांत आवश्यकता है जिससे कि लघु एवं सीमांत किसान भी जैविक उत्पादन की ओर आकर्षित हो सके। इससे जैविक खेती को प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही आरंभ के कुछ वर्षों में, विशेषकर परिवर्तन अथवा रूपांतरण काल में, जैविक खेती से कम उपज प्राप्त होती है। अतः इस प्रारंभिक अवधि के दौरान किसानों को उचित मुआवजा का दिया जाना भी उचित रहेगा।

फसल उत्पादकता

विश्व और भारत में किए गए अनेक कृषि अनुसंधान परिणामों के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि परम्परागत खेती की तुलना में जैविक खेती से उत्पादन में लगभग 10-35 प्रतिशत तक की गिरावट आती है, विशेषकर आरम्भ में दो से तीन रूपांतरण वर्षों में। वर्षा आधारित (बारानी) क्षेत्रों में सिंचित क्षेत्रों की तुलना में जैविक उत्पादन में बहुत ही कम कमी आती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बारानी क्षेत्रों में पहले से ही आधुनिक निवेशो, कृतिम उर्वरक एवं रसायन का प्रयोग न के बराबर होता रहा है और साथ ही, जैविक खेती अपनाने से मृदा में जैव-पदार्थ में भी उल्लेखनीय वृद्वि है जिससे फसलों की सूखा सहने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है और फसल उत्पादन प्रभावित नहीं होता।

कुछ ऐसी भी रिपोर्ट्स है कि दीर्घकाल में यह उत्पादन अंतर और कम हो जाता है। बहुत से अनुसंधान परिणामों में परम्परागत और जैविक कृषि की पैदावार में कोई विशेष अंतर नहीं पाया गया है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली में जैविक खेती पर बासमती धान-गेहूँ फसल चक्र पर दीर्घकालिक अनुसंधान किए गए हैं और परिणामों में पाया गया कि जैविक विधि से उगाए गए बासमती धान की 10 वर्ष की औसत उपज 4.5 टन प्रति हेक्टेयर थी, जबकि परंपरागत विधि से बासमती धान उगाने पर लगभग इतनी ही उपज होती है। इसके तहत मुख्य रूप से निम्नलिखित परिणाम प्राप्त किए गए हैं-

  • बासमती धान सोयाबीन, लहसुन, मूंगफली, फूल गोभी और टमाटर फसलों की जैविक खेती से प्राप्त उपज परंपरागत खेती से प्राप्त उपज में 4 से 6 प्रतिशत अधिक थी।
  • मूंग, प्याज, मिर्च, बन्दगोभी और हल्दी फसलों की जैविक खेती से फ्री आप तो बजे परंपरागत खेती में प्राप्त परंपरागत खेती से प्राप्त उपज से 7 से 14 प्रतिशत अधिक थी।
  • गेहूं, सरसों, मसूर ,आलू और राजमा की फसलों की जैविक खेती से प्राप्त उपज परंपरागत खेती से प्राप्त उपज से लगभग 5 से 8 प्रतिशत कम थी।
  • 6 वर्षों में जैव-कार्बन की मात्रा जैविक खेती करने से 22 प्रतिशत तक बढ़ गई।
  • जैविक खेती करने से परियोजनाओं के सभी केंद्रों पर सूक्ष्म-जीवों की संख्या में वृद्धि पाई गई।

जैविक उत्पादों की गुणवत्ता

अनुसंधानों के माध्यम से यह सिद्ध हो चुका है कि परम्परागत खेती से प्राप्त उत्पादों की तुलना में जैविक उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर होती है। कुछ अनुसंधान परिणामों के आंकड़े उपलब्ध है जैविक खेती से पर्याप्त उत्पादों की गुणवत्ता का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

  • जैविक पदार्थ में अधिक शुष्क पदार्थ, खनिज और ऑक्सीकारक विरोधी तत्व पाए जाते हैं।
  • जैविक पशु उत्पादों एवं उनसे प्राप्त मूल्य-संवर्धित उत्पादों ने संतृप्त वसीय अम्लों की तुलना में अतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता होती है, जबकि परंपरागत विधि से पशु उत्पादों में संतृप्त वसीय अम्लों की तुलना में असंतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता होती है। अच्छा जैविक पशु उत्पाद मानव स्वास्थ्य के लिए अत्याधिक लाभकारी है।
  • 94-100 प्रतिशत जैविक उत्पाद पीड़कनाशी रहित (सुरक्षित खाद्य पदार्थ) पाए गए हैं।
  • जैविक सब्जियों में नाइट्रेट की मात्रा 50 प्रतिशत तक कम होती है जो मानव स्वास्थ्य के लिए हितकर होती है।
  • कई अनुसंधान परिणाम सिद्ध करते हैं कि परम्परागत कृषि से प्राप्त उत्पादों की तुलना में जैविक उत्पाद अधिक स्वादिष्ट होते हैं।
  • ऑक्सीकारक-विरोधी (एंटी-ऑक्सीडेंट्स) तत्वों का मानव स्वास्थ्य को बनाए रखनें में अपूर्व सहयोग होता है। परंपरागत कृषि से प्राप्त उत्पादों की तुलना में जैविक उत्पादों में औसतन ऑक्सीकारक-विरोधी तत्वों की मात्रा में 50 प्रतिशत अधिक होती है।

जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण सुरक्षा एवं मृदा उर्वरता

यदि सूखे यानी अनावृष्टि की स्थिति आती है तो निसंदेह परंपरागत खेती की तुलना में जैविक खेती द्वारा अधिक उत्पादन प्राप्त होगा। क्योंकि जैविक खेती के अंतर्गत मृदा में जैव (कार्बनिक) पदार्थ एवं मृदा स्वास्थ्य बेहतर होता है जिसके परिणामस्वरूप मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ती है जो फसल को सूखा-सहन करने में सहायक सिद्ध होता है। विस्कॉन्सिन समेकित की फसल प्रणाली जांच (अमेरिका) के अनुसार सूखे की स्थिति वाले वर्षों में जैविक खेती से अधिक पैदावार तथा सामान्य वर्षा वाले वर्षों में जैविक एवं परंपरागत खेती दोनों में बराबर पैदावार प्राप्त हुई।

अनुसंधान के परिणाम दर्शाते हैं कि जैविक खेती प्रणाली में जल का भी दक्ष उपयोग होता है। जैविक खेती अपनाने में मृदा में जैव पदार्थ की मात्रा में वृद्धि होती है जिससे परिणाम स्वरूप उसकी जलधारण क्षमता में वृद्धि होती है और अंततः फसल की सूखे को सहन करने की क्षमता में वृद्धि होती है।

जैविक खेती पर्यावरण सुरक्षा एवं मृदा उर्वरता वृद्धि में निम्न प्रकार से योगदान दे सकती है-

  • जैविक खेती से हरित गृह गैसों (मीथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड) आदि का उत्सर्जन कम होता है।
  • मृदा में नाइट्टेट लीचिंग (निक्षालन) में कमी आती है जिससे भूमिगत जल की गुणवत्ता में सुधार आता है।
  • मृदा में कार्बन का दीर्घकालीन संचयन होता है जो जलवायु में होने वाले परिवर्तन के प्रभावों को कम करता है।
  • जैविक खेती में मृदा के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणधर्मों में सुधार होता है।

जैविक विविधता एवं जैविक खेती

जैविक खेती से जैव-विविधता का चहुंमुखी विकास होता है। जैविक खेती में पोषण तत्व एवं पीड़क प्रबंधन के लिए फसल विविधीकरण और फसल चक्र पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो मृदा के ऊपर एवं अंदर जैवविधिता को बढ़ाते हैं। मृदा के अंदर एवं बाहर रहने वाले मित्र कीटों एवं अन्य लाभदायक जीवों की संख्या में वृद्धि होती है, जबकि फसल के लिए हानिकारक जीवो की संख्या में कमी आती है। एक अनुसंधान में परंपरागत फार्म की तुलना में जैविक फार्म पर चमगादडों की अधिक संख्या पाई गई है।

जैविक खेती की फसल-चक्र पर विशेष बल दिया जाता है। फसल-चक्र में दलहनी और फलियों वाली फसलों को शामिल किया जाना चाहिए साथ ही समय-समय पर हरित खाद वाली फसलों को भी शामिल किया जाना चाहिए। फसल-चक्र में ऐसी फसलों को शामिल किया जाए जिनके लिए पर्याप्त विपणन सुविधा भी उपलब्ध हो। लगातार एक ही प्रकार की फसलों को उगाने से मृदा की उर्वरा शक्ति में गिरावट आ जाती है। साथ ही कीड़े-मकोड़ों, बीमारियों और खरपतवारों का नियंत्रण भी एक गंभीर समस्या बन जाता है।

उदाहरण के लिए लगातार धान-गेहूँ फसल चक्र अपनाने से गेहूँसा (गुल्ली-डंडा) नामक खरपतवार की बढ़वार अधिक होती है जो गेहूँ की पैदावार पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। धान के कुछ कीट गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचा सकते हैं। अतः ऐसी परिस्थिति में इस फसल-चक्र (धान-गेहूँ) का विविधीकरण करके उपरोक्त समस्याओं का निवारण किया जा सकता है।

यदि सम्भव हो तो फसल-चक्र में हरित-खाद को शामिल किया जा सकता है। हरी खाद लगाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है और अगली फसल के उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है। यदि हरी खाद का फसल-चक्र में समावेश सम्भव न हो तो युग्म-उद्देशीय दलहनी फसलें जैसे मूँग, लोबिया, उड़द, मटर और गवार आदि को उगाया जा सकता है। उक्त फसलों से फलियों को अलग करने के बाद इनके अवशेषों को मिट्टी में मिलाया जा सकता है।

इस प्रकार इन युग्म-उद्देश्यीय फसलों को फसल-चक्र में शामिल करने से किसानों की आमदनी और मिट्टी की उर्वरा शक्ति दोनों में बढ़ोतरी होती है। फसल-चक्र बनाते समय एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि फसलोत्पादन के साधनों का वर्ष भर क्षमता पूर्ण ढंग से उपयोग हो सके फसल चक्र बनाते समय उसमें ऐसी फसलों का समावेश ऐसा होना चाहिए कि सिंचाई, बीज, मजदूर और यंत्र आदि जो भी अपने पास उपलब्ध हो, उनका पूर्ण उपयोग हो और साथ ही, घरेलू आवश्यकताओं की सभी वस्तुएं, जैसे अनाज, दाल, सब्जी, चारा रेशा तथा धन भी वर्षभर उपलब्ध होती रहे।

फसल-चक्र में फसलों का चयन जल, वायु, मृदा प्रबंधन और किसान के आर्थिक पक्ष पर निर्भर करता है। केवल अनुकूल परिस्थितियों में ही फसलों का उत्पादन लाभदायक होता है। फसल अनुकूलन का सबसे अच्छा प्रमाण फसल की सामान्य वृद्धि तथा सामान्य से अधिक उपज देने की क्षमता है।

इसके अलावा फसल चक्र में ऐसी फसलों को शामिल किया जाए जिन को बेचने की पर्याप्त सुविधा हो, अर्थात उत्पादन की बाजार में अच्छी मांग हो और कृषक को उसे बेचकर अधिक लाभ की प्राप्ति कर सके। फसल-चक्र अपनाने से जोखिम में कमी आती है वर्ष भर रोजगार मिलता है, संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है, फसल सुरक्षा बनी रहती है, मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है और सबसे महत्वपूर्ण है जैव-विविधता में वृद्धि।

जैविक खेती में पोषक-तत्व प्रबंधन

जैविक खेती में पोषक-तत्व प्रबंधन के लिए किसानों को निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए-

  • किसी भी कृत्रिम अथवा संश्लेषित उर्वरकों का प्रयोग सर्वथा वर्जित होता है।
  • फसल-चक्र में दलहनी एवं हरी खाद फसलों को शामिल करके।
  • पोषक-तत्वों की हानियों (मृदाक्षरण) को कम किया जाए।
  • मृदा में भारी धातु यथा पारा, कैडियम और आर्सेनिक आदि की पहुँच न हो।
  • मृदा के पीएच मान को सही बनाकर रखा जाए।
  • अकृत्रिम अथवा प्राकृतिक खनिज उर्वरकों का प्रयोग (जिप्सम, रॉक, फास्फेट) किया जा सकता है।
  • कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट (केंचुआ खाद), गोबर की खाद आदि का प्रयोग लाभकारी होता है।
  • फसल अवशेषों का प्रयोग।
  • जैव उर्वरक (राइजोबियम, एजोस्पिरिलम, एजोटोबेक्टर, एजोटोमोनास, माइकोराईजा, पी.एस.बी., धान में नील-हरित शैवाल आदि)।

पोषक तत्वों के मुख्य स्रोतों के बारे में संक्षेप में जानकारी इस प्रकार है-

हरी खादः हरी खाद के लिए मुख्य रूप से दलहनी फसलें उगाई जाती हैं। इनकी जड़ों में गांठे होती है। ग्रंथियों में विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु रहते हैं जो वायुमंडल में पाई जाने वाली नाइट्रोजन का योगीकीकरण करके मृदा में नाइट्रोजन की पूर्ति करते हैं। दलहनी फसलें मृदा की भौतिक दशा को सुधारने के अलावा उसने जीवांश पदार्थ की मात्रा भी बढ़ाती है। दलहनी फसलें खरपतवारों को नियंत्रित करने में भी सहायक है। हरी खाद को दो प्रकार से तैयार किया जा सकता है।

(1) हरी पत्तियों वाली हरी खाद- इसमें अन्यत्र स्थानों पेड़ पौधों और झाड़ियों की हरी पत्तियों को एकत्र करके खेत में सामान्य रूप से फैला देना चाहिए और हैरो अथवा मिट्टी पलटने वाले हल से मिट्टी में दबा दिया जाता है यह कार्य मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी और मध्य भाग में होता है।

(2) फसल को खेत में उगा कर पलटना- इस विधि में जिस खेत में हरी खाद वाली फसलें उगाई जाती है उसी खेत में उपयुक्त नमी में उस पुष्पावस्था-पूर्व मिट्टी पलटने वाले हल से मृदा में दबा दिया जाता है। कभी-कभी हरी खाद को व्यवसायिक फसलों के बीच में उगाकर भी खाद के रूप में प्रयोग किया जाता हैं। हरी खाद की फसलों में ढैंचा, सनई, लोबिया तथा ग्वार इत्यादि मुख्य हैं।

सबसे जल्दी और कम समय में नाइट्रोजन योगिकीकरण करने वाली मुख्य फसल ढैंचा है। इसे धान की रोपाई से पूर्व ऊंचे एवं नीचे स्थानों पर उगाया जा सकता हैं। ताजा हरी खाद की फसल मृदा में मिट्टी पलट हल से दबाने पर सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता तीव्र हो जाती है जिससे हरी खाद वाली फसल जल्दी सड़-गल जाती है और अगली फसल को नाइट्रोजन की आपूर्ति हो जाती है। मृदा में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता, मृदा में नाइट्रोजन, कार्बन अनुपात, मृदा तापक्रम, मृदा में नमी और पौधों की आयु एवं प्रकार पर निर्भर करती है।

इस प्रकार, हरी खाद वाली फसल को गलाने-सड़ाने में तीव्रता लाने के लिए मृदा में जैविक पदार्थ और कार्बन; नाइट्रोजन का अनुपात 15:1 और 25:1 के मध्य होना अति आवश्यक है। हरी खाद के उपयोग से मृदा में भौतिक गुणों जैसे मृदा संरचना एवं नमी-धारण क्षमता में पर्याप्त सुधार होता है।

जैविक खेती में रोजगार के अवसर

  • जैसा कि हम सब जानते हैं कि जैविक बीज की उपलब्धता काफी कम है, इसलिए कृषक जैविक बीज की खेती कर इनकी उपलब्धता को बढ़ाने में सहयोग कर सकते हैं जिससे कृषकों की आय में वृद्वि के साथ-साथ जैविक खेती के उत्पादन के क्षेत्र में भी वृद्वि होगी।
  • जैविक खेती से प्राप्त कच्चे पदार्थों का ग्रामीण-स्तर पर मूल्य-संवर्धन किया जा सकता है। किसान अपने जैविक उत्पादों का प्राथमिक खाद्य प्रसंस्करण करके अधिक लाीा अर्जन कर सकते हैं। फल, सब्जियों और दालों आदि से सम्बन्धित प्रसंस्करण इकाईयों को स्थापित करके रोजगार के अवसरों एवं आय में पुनःवृद्वि की जा सकती है।
  • जैविक खेती के अन्तर्गत अनेक आदानों का उपयोग किया जाता हैं। उदाहरण के लिए जैविक खेती में कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, गोबर गैस स्लरी, जैव-पीड़कनाशियों, जैव-उर्वराकों आदि की आवश्यकता रहती है। अतः उपरोक्त आदानों का उत्पादन एवं विपणन ग्रामीणों के द्वारा स्वयं किया जा सकता है जिससे काफी ग्रामीण युवकों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।
  • यदि कृषकों को जैविक खेती पर उपयुक्त प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है तो इससे उनके कौशल का विकास होगाजिससे अंततः उनके आत्मविश्वास में वृद्वि होगी और वे रोजगार के अवसरों का सृजन कर सकेंगे। 
  • ग्रामीण उत्पादक अपने उत्पादों का विपणन स्वयं करके भी रोजगार की प्राप्ति कर सकते हैं।
  • जैविक प्रमाणीकरण में भी रोजगार की काफी सम्भावनाएं उपलब्ध हैं।
  • चूँकि जैविक खेती में फसल-विविधिकरण एवं फसल-चक्रों पर विशेष बल दिया जाता है, इस प्रकार इसके अन्दर पूरे वर्षभर रोजगार के अवसरों की उपलब्धता रहती है।  

फसल अवशेषः जैविक उत्पादन में फसल अवशेषों का विशेष योगदान हो सकता है। जैविक खेती में इन फसल अवशेषों का पुर्नचक्रीकरण करके लाभ प्राप्त किया जा सकता है। जैविक खेती से प्राप्त विभिन्न फसल अवशेषों जैसे गेहूँ का भूसा, कपास के डंठल, गन्ने की सूखी पत्तियाँ तथा धान का भूसा इत्यादि की कुछ मात्रा का खेत में पुन-चक्रण किया जा सकता है। कई प्रयोगो व अनुसंधान के माध्यम यह सिद्ध हुआ है कि गेहूं एवं धान का भूसा डालने से उत्पादन बढ़े अथवा नहीं परन्तु भूमि उर्वरता पर अवश्य ही धनात्मक प्रभाव होता है।

यद्यपि धान व गेहूं का भूसा डालने पर शुरू में पोषक तत्वों के स्थरीकरण के कारण इनकी कमी हो जाती है परंतु इसके साथ किसी दलहनी फसल के भूसे को मिलाकर इस घटक को दूर किया जा सकता है। अतः फसल अवशेषों का प्रयोग सें मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता को बढ़ाकर संधारित उत्पादन के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।

जैव उर्वरकः जैव उर्वरक विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों जीवीयों (जीवाणु, कवक, एक्टिनोमाइसिटिस आदि) की जीवित कोशिकाएं होती हैं। कुछ जैव-एर्वरकों में नाइट्रोजन योगिकरण व फास्फोरस को घोलने की क्षमता होती है जिससे मृदा में पोषक तत्वों को पौधों के लिए उपलब्ध कराया जाता है। पादप पोषक में पूरक, नवीकरणीय और पर्यावरणीय स्रोतों के रूप में यह एक महत्वपूर्ण घटक है तथा जैविक पादप पोषण प्रबंधन का आवश्यक अंग है। भारत में इस समय इनके उत्पादन व प्रयोग पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। देश में अनेक जैव-उर्वरक उत्पादन इकाइयाँ स्थापित की जा चुकी है जो इस क्षेत्र में काफी योगदान दे रही है।

साथ ही, किसानों ने भी इनके उपयोग को समझा है। जैव-उर्वरकों के बढ़ते हुए उपयोग को देखकर इनकी उत्पादन तकनीक, संरक्षण व उपयोग की विधियों का मानकीकरण तथा विभिन्न कृषि भौगोलिक परिस्थितियों में विविध उपयोग के लिए उपयुक्त जानकारी की आवश्यकता है।

विभिन्न जैव-उर्वरकों में फली वाली फसलों के लिए राइजोबियम का सबसे अधिक उपयोग हुआ है। इसके अपेक्षित परिणाम के लिए मृदा अथवा बीज में इनका सही प्रकार से उपयोग आवश्यक है। यद्यपि जैव-उर्वराकों परिणाम बहुत अनिश्चित होते हैं क्योंकि उनका स्वभाव जैविक तथा अजैविक वातावरण के प्रति बहुत ही संवेदनशील होता है। अतः इनसे पोषक तत्वों की पूर्ति को बढ़ाने के लिए अधिक प्रभावी, प्रतियोगी तथा प्रतिबल प्रतिरोधी किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है।

फास्फोरस घुलनकारी जीवाणु तथा आजाद आरबसकुलर माइकोराइजा कवकों का सूक्ष्म तत्वों एवं फास्फोरस की उपलब्धता में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

भारत में जैविक खेती के विकास में बाधाएं

  • जैविक बीजों में कमी।
  • किसान से उपभोक्ता तक कुशल विपणन प्रणाली का अभाव। अक्सर किसानों को कम मूल्य मिलता है और उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
  • कुछ मामलों में फसल की पैदावार में कमी आ जाती है, विशेषरूप से जैविक खेती अपनाने के आरंभ में कुछ वर्षों में। कई बार कम पैदावार मिलने से किसानों में जैविक खेती के प्रति मोहभंग हो सकता है हालांकि सर्वथ ऐसा नहीं है। उपयुक्त प्रशिक्षण प्राप्त करके एवं जैविक खेती को वैज्ञानिक विधियों को अपनाकर फसल उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।
  • रूपांतर अवधि के दौरान कम आय जैविक खेती का प्रसार में बाधा बनती है।
  • किसानों को जैविक उत्पादों की प्रीमीयम कीमतों की अनुपलब्धता।
  • फसल, मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों के लिए प्रौद्योगिकी पैकेजों का अभव। जैविक उत्पादन प्रणालियों में खरपतवार, कीटनाशक और रोगो के प्रबंधन के लिए पर्यावरण-अनुकूल तकनीकी को विकसित करने के लिए और अधिक शोधों की आवश्यकता है।
  • जैविक खाद और जैव-उर्वरकों की सीमित उपलब्धता।
  • प्रमाणीकरण प्रक्रियाओं में जटिलताएं एवं अधिक व्यय।
  • जैविक क्षेत्र में संगठनों के बीच कमजोर सम्बन्ध।
  • बुनियादी सुविधाओं का अभाव।
  • कुछ आदानों की उच्च लागत।

जैविक खेती में कीटो, रोगों और खरपतवारों का प्रबंधन

जैविक खेती में पोषक तत्व प्रबंधन के लिए किसानों को निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए।

  • कृत्रिम पीड़कनाशियों कीटनाशियों (कवकनाशी), कवकनाशी, जीवाणुनाशी, शाकनाशी का प्रयोग सर्वथा वर्जित रहता है।
  • कृत्रिम वृद्वि नियामकों एवं रंगों का प्रयोग सर्वथा वर्जित है।
  • आनुवांशिक रूप से निर्मित जीवो तथा उत्पादों का प्रयोग भी वर्जित है।
  • निवारक एवं सस्य विधियों का प्रयोग (बुवाई का समय एवं विधि, पादप संख्या, सिंचाई, फसल-चक्र आदि)।
  • कीटो एवं रोगों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या बढ़ाने पर ध्यान।
  • चिड़ियों का घोसले को नष्ट किया न जाए।
  • अनुमत यांत्रिक एवं भौतिक विधियों (प्रकाश प्रपंच) विधियों का समुचित प्रयोग।
  • शत्रु कीटों के जीव-चक्र में बाधा उत्पन्न करना।
  • आवश्यकतानुसार नीम के तेल का प्रयोग।
  • कीटो अथवा खरपतवारों के परजीवी शिकारियों का प्रयोग।
  • आवश्यकतानुसार सिरका, चूना, गंधक, हल्के खनिज तेल का प्रयोग।
  • मशरूम और क्लोरेला के अर्क का प्रयोग।
  • विषाणु विनिर्मित पदार्थ (एनपीवी); कवक विनिर्मित पदार्थ (ट्राईकोडर्मा); जीवाणु विनिर्मित पदार्थ (बेसिलस), परजीवी और परभक्षी आदि का आवश्यकतानुसार उपयोग।

सारांशः

     सधारणतया जैविक खेती में बाह्म फार्म निवेशें पर निर्भरता में कमी आती है, ऊर्जा के उपयोग में कमी आती है और कृषि आय में वृद्वि होती है। साथ ही मृदा, जल, वायु और पर्यावरण स्वस्थ्य में भी वृद्वि होती है। जैविक खेती अपनाने से मृदा की ऊपरी एवं आंतरिक जैव-विविधता में वृद्वि होती है जिससे मृदा स्वास्थ्य में बढ़ोत्तरी होती है। जहाँ तक फसल उत्पादकता की बात है तो आरम्भ के कुछ वर्षों में यह कम मिलती है।    यदि जैविक खेती में उपयुक्त फसल पद्वतियों एवं समुचित फसल प्रबन्धन को अपनाया जाए तो परम्परागत खेती के बराबर अथवा उससे अधिक फसल उपज की प्राप्ति की जा सकती है। अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए उचित फसल-चक्रों एवं फसल-विविधीकरण को अपनाना आवश्यक है। साथ ही, उपयुक्त पोषक तत्व, कीट एवं रोग प्रबन्धन भी आवश्यक है।

 लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।