जैविक खेती के माध्यम से फल उत्पादन

                        जैविक खेती के माध्यम से फल उत्पादन

                                                                                                                                                             डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृषाणु

                                                          

जैविक फल उत्पादन से तात्पर्य कृषि की एक ऐसी प्रणाली से है जिसमें अकार्बनिक उपचार रासायनिक या जैव-तकनीकी एवं आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवो के हस्तक्षेप के बिना सहायक जैविक प्रक्रियाओं में शामिल किया जाता है। हरित-क्रांति के समय में भारत के कृषि उत्पादन में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई, लेकिन इस में प्रयोग होने वाली तकनीकों की रसायनिक उर्वरकों एवं पादप सुरक्षा रसायनों पर निर्भरता इस प्रक्रिया का मुख्य दोष रहा।

इसने मृदा-क्षरण, भू-जलस्तर में कमी, मृदा लवणता, नदियों एवं भू-जल प्रदूषण, अनुवांशिक क्षरण, फलों की गुणवत्ता में निरंतर हृास और दिनोंदिन बढ़ती उत्पादन लागत जैसी गंभीर समस्याओं को जन्म दिया है।

व्यापारिक रूप से जैविक फलों के उत्पादन में, आसानी से घुलनशील खनिज और प्राकृतिक उर्वरकों (खाद, धोल) हरी खाद, गीली घास, विभिन्न फसल-चक्रों और मिट्टी की सावधानीपूर्वक खेती से है। खरपतवारनाशी रसायनों को यांत्रिक या थर्मल साथी फसल नियंत्रण और कवर फसल प्रबंधन से एवं कृत्रिम रसायनिक कीटनाशकों को मृदा स्वास्थ्य में सुधार, स्थान विशिष्ट प्रजातियों का चयन, प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करके और प्राकृतिक सक्रिय एजेंटों का उपयोग करके विस्थापित कर सकते हैं।

                                                                  

सामान्य तौर पर बायो-डायनेमिक खेती और कार्बनिक खेती जैविक खेती की 2 दिशाएं हैं।एक जर्मन दार्शनिक और वैज्ञानिक डॉ0 रूडोल्फ स्टीनर के द्वारा प्रस्तावित बायो-डायनेमिक खेती कृषि का एक आत्मनिर्भर रूप है, जो अस्तित्व के सबसे सूक्ष्म-स्तर पर काम कर रही सभी सर्वोत्कृष्ट शक्तियों को ध्यान में रखती है। मृदा क्रियाओं में कॉस्मिक नक्षत्रों को भी ध्यान में रखा जाता है। कार्बनिक जैविक खेती, स्विस कृषि विशेषज्ञ डॉ0 हंस मूलर के द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए दी गई एक अवधारणा के अनुसार, एक स्वस्थ मिट्टी, स्वास्थ्य पौधों और जानवरों के लिए आवश्यक पूर्व शर्त है, और परिणाम स्वरुप स्वस्थ मनुष्य के लिए भी।

इस विधि में फसलों की एक विस्तृत विविधता और लाभकारी प्रजातियों के लिए अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के साथ फसल चक्रीकरण (रोटेशन) की तकनीक द्वारा कृतिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम कर करने का प्रयास किया जाता है।

भारत में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों में, बागानी फसलें मानव आहार का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनमें स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों की उच्च सांद्रता की उपस्थिति के कारण, फलों को सुरक्षात्मक भोजन के रूप में भी जाना जाता है। विभिन्न प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि जैविक खेती के माध्यम से पैदा किए गए बेर, लीची, अंगूर, आम, संतरा और अनानास आदि रंग, मिठास, खटास तथा वसष्प्शील यौगिकों की उपलब्धता के दृष्टिकोण से, अन्य विधि के द्वारा पैदा किए गए फलों की तुलना में अधिक उत्तम पाए गए हैं।

इसके अलावा, बागवानी क्षेत्र में कृषि निर्यात और कृषि जीडीपी का एक प्रमुख योगदानकर्ता है। इसलिए, फलों की बेहतर गुणवत्ता की वैश्विक मांग को पूरा करने और भारतीय अर्थव्यवस्था में फल की फसलों के योगदान को बेहतर बनाए रखने के लिए भारतीय फल उत्पादन प्रणाली को लंबे समय तक टिकाऊ बनाना आवश्यक है। जैविक फल उत्पादन स्वच्छ प्रौद्योगिकी का पर्याय बन चुका है। इस विधि में कम सिंचाई के साथ मृदा से कार्बन का हृास भी कम होता है एवं जैव विविधता में भी पर्याप्त रूप से वृद्धि होती है, किंतु कम उत्पादन इस विधि का एक नकारात्मक पहलू है।

लेकिन उपभोक्ताओं का यह विश्वास चूँकि जैविक फल उत्पादन स्वास्थ्य एवं गुणवत्ता के दृष्टिकोण से उत्तम है, इन उत्पादों की मांग एवं कीमत को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

यूरोपीय संघ के विनियमन 2092/91 तक के तहत, जैविक उत्पादन में उपयोग की जाने वाली सामग्री में 5 प्रतिशत अधिक से अधिक (प्रसंस्करण के समय वजन के प्रतिशत के रूप में) सामग्री गैर-कार्बनिक मूल की नहीं होनी चाहिए। एक कार्बनिक प्रबंधन प्रणाली की स्थापना और मिट्टी की उर्वरता के निर्माण के लिए रूपांतरण अवधि की आवश्यकता होती है। फल वृक्षों के मामले में, पहली तुड़ाई इन मानकों के तहत निर्धारित आवश्यकताओं के अनुसार कम से कम छत्तीस (36) महीनों के जैविक प्रबंधन के बाद ही जैविक उत्पाद के रूप में प्रमाणित हो सकती है।

प्राकृतिक रूप से आगे जंगली फल पौधे और भागों के संग्रह को जैविक उत्पाद के रूप में प्रमाणित किया जा सकता है, बशर्ते कि संग्रहीत किये गये क्षेत्रों को किसी रसायनिक रसायन से उपचारित न किया गया हो। उदाहरण के तौर पर कई उत्पाद जैसे कि अनारदाना, अखरोट आदि हमारे देश में ऐसे स्रोतों से ही संग्रहित किए जाते हैं।

भारत में वर्तमान स्थिति

जैविक प्रमाणीकरण प्रक्रिया (ऑर्गेनिक उत्पादन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत पंजीकृत) के तहत जैविक उत्पादन का कुल क्षेत्रफल 3.56 मिलियन हेक्टेयर (2017-18) है। इसमें 1.78 मिलीयन हेक्टेयर (50 प्रतिशत) खेती-योग्य क्षेत्र और दूसरा 11.7878 मिलियन हेक्टेयर (50 प्रतिशत) जंगली फसल के संग्रहण हेतु शामिल है। सभी राज्यों में मध्यप्रदेश ने राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के बाद जैविक प्रमाणीकरण के तहत सबसे बड़ा क्षेत्र शामिल किया है। वर्ष 2016 के दौरान, सिक्किम ने जैविक प्रमाणीकरण के तहत अपनी पूरी खेती योग्य भूमि (76,000 हेक्टेयर से अधिक) को परिवर्तित करने का उल्लेखनीय गौरव प्राप्त किया है।

                                                                    

भारत ने प्रमाणित जैविक उत्पादों का लगभग 1.70 मिलियन मीट्रिक टन (2017-18) उत्पादन किया था। वर्ष 2017-18 के दौरान जैविक उत्पाद के निर्यात की कुल मात्रा 4.58 लाख मैट्रिक टन थी जिसकी कीमत लगभग 3453.48 करोड (515.44 मिलियन अमेरिकी डॉलर) रूपए थी। भारत के द्वारा जैविक उत्पादों का निर्यात संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, इसराइल, दक्षिणी कोरिया, वियतनाम, न्यूजीलैंड और जापान आदि देशों को किया जाता है।

निर्यात किए जाने वाले बागानी उत्पादों में आम, केला, काजू, अनानास, पेंशनफल, अखरोट, चाय कॉफी, आदि शामिल हैं। विश्व की जैविक कृषि भूमि के मामले में भारत का स्थन नौवां है और कुल उत्पादकों की संख्या 2018 के आंकड़ों के अनुसार पहला है (आईबीएल और आईएफओएम ईयर बुक 2018)।

भारत से जैविक निर्यात के लिए संस्थागत समर्थन का सृजन किसी और प्रसंस्कृत खाद्य निर्यात विकास प्राधिकरण (APDA) वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जैविक उत्पादन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (NPOP) के शुभारंभ के तहत किया गया था। एनपीओपी प्रोत्साहन पहल, निरीक्षण और प्रमाणन एजेंसी द्वारा मान्यता का समर्थन करता है, और निर्यात की सुविधा के लिए कृषि-व्यवसाय उद्यमों को समर्थन प्रदान करता है। भारत में उत्पादकों के प्रमाणीकरण की सुविधा के लिए अब 26 मान्यता प्राप्त प्रमाणन एजेंसियां हैं।

राष्ट्रीय कार्यक्रम में प्रमाणन निकायों के लिए मान्यता कार्यक्रम, जैविक उत्पादन के लिए मानक, जैविक खेती को बढ़ावा देना आदि शामिल हैं। उत्पादन और मान्यता प्रणाली के लिए एनपीओपी मानकों को यूरोपीय आयोग और स्विट्जरलैंड द्वारा असंसाघित पादप उत्पादों के लिए उनके देश के मानकों के बराबर मान्यता दी गई है। इसी प्रकार यूएसडीए ने मान्यता के अनुसार एनपीओपी अनुरूपता मूल्यांकन प्रतिक्रियाओं को अमेरिका के समक्ष माना है।

इन मान्यताओं के साथ, भारतीय जैविक उत्पादों को भारत के मान्यता प्राप्त प्रमाणन निकायों द्वारा विधिवत प्रमाणित किया जाता है, जो कि आयात करने वाले देशों के द्वारा स्वीकार किए जाते हैं। संस्थागत सहायता प्रदान करने और उपयुक्त रसद प्रदान करके किसानों को जैविक फसल उत्पादन में सुविधा प्रदान करने के लिए गाजियाबाद में कृषि मंत्रालय के तहत जैविक खेती के लिए केंद्र की स्थापना की गई थी। भारत के कृषि और सहकारिता विभाग द्वारा शुरू किया गया राष्ट्रीय बागवानी मिशन, बागवानी फसलों की जैविक खेती के लिए किसानों को सहायता प्रदान करता है। इन हस्तक्षेपों के परिणामस्वरूप, जैविक कृषि में अप्रत्याशित रूप से उच्च वृद्धि देखी गई है ।

भारत मैं जैविक खाद्य उपभोग का पैटर्न विकसित देशों की तुलना में बहुत अलग है। भारत में उपभोक्ता जैविक उत्पादों को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि ऐसे कई उपभोक्ता हैं जो प्राकृतिक और जैविक उत्पादों के बीच के अंतर से अनजान हैं। कई लोग ‘‘प्राकृतिक’’ लेबल वाले उत्पादों को यह सोचकर खरीदते हैं कि वे जैविक है। हालांकि उपभोक्ताओं को प्रमाणन प्रणाली के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, क्योंकि भारत में घरेलू खुदरा बाजार के लिए प्रमाणीकरण अनिवार्य नहीं है।

जैविक फल उत्पादन, स्थान, फसल और फसल-किस्म चयन

जैविक फलों को सफलतापूर्वक पैदा करने के लिए स्थानीय पर्यावरणीय कारकों को ध्यान में रखना बहुत महत्वपूर्ण है। प्रस्तावित स्थान को ध्यान को देखें और इसकी इसकी मिट्टी, ढलान और पहलू, जल-रिसाव-स्तर और जल निकासी, पाले का प्रकोप, अधिकतम और न्यूनतम तापमान, बढ़वार हेतु मौसम की लंबाई, हवा और हवा परिसंचरण पैटर्न, वार्षिक वर्षा का वितरण, सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता एवं पानी की निकटता आदि को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। इनमें से अधिकांश मानव नियंत्रण से परे हैं, अतः रोपाण योजना स्थान की प्राकृतिक स्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए।

                                                                 

किसान समय के साथ मिट्टी की दशा को सुधारने में सक्षम हो सकते हैं, तथा तापमान को किसी भी महत्वपूर्ण सीमा तक संशोधित कर सकते हैं। जैविक फल उत्पादन का अर्थशास्त्र काफी हद तक सही स्थान के चुनाव पर निर्भर करता है। क्योंकि जैविक फल उत्पादन में रोग और कीटों को नियंत्रित करने के लिए रसायनों का बहुत सीमित उपयोग करना ही संभव हो पाता है, इसलिए पौधों की सुरक्षा के लिए निवारक उपाय के रूप में सही स्थान के चुनाव का विकल्प महत्वपूर्ण है। समशीतोष्ण फल उत्पादन में कुछ ठंड की चोट के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। इन स्थानों से बचा जाना चाहिए, निचले स्थानों पर ढलान की तुलना में ठंड का अधिक खतरा होता है।

एक अंगूठे के नियम के रूप में, दक्षिण की ओर ढलान कार्बनिक समशीतोष्ण फल उत्पादन के लिए अनुकूल है। कम ऊंचाई वाले फल वृक्षों के लिए अधिक प्रकाशयुक्त स्थान का चयन करना उत्तम रहता है।

समस्त पाठक बन्धुओं से अपील है कि खेती-बाड़ी एवं नई तकनीकी से खेती करने हेतु समस्त जानकारी के लिए हमारी वेबसाईट किसान जागरण डॉट कॉम को देखें। कृषि संबंधी समस्याओं के समाधान एवं हेल्थ से संबंधित जानकारी हासिल करने के लिए अपने सवाल भी उपरोक्त वेबसाइट पर अपलोड कर सकते हैं। विषय विशेषज्ञों द्वारा आपकी कृषि संबंधी जानकारी दी जाएगी और साथ ही हेल्थ से संबंधित सभी समस्याओं को आप लिखकर भेज सकते हैं, जिनका जवाब हमारे डॉक्टरों के द्वारा दिया जाएगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।