गेंहूँ के भूसे से ईको-प्लास्टिक की उपयोगिता

                           गेंहूँ के भूसे से ईको-प्लास्टिक की उपयोगिता

                                                                                                                                        डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं आकांक्षा सिंह

‘‘फसल की कटाई के उपरांत फसल के बचे हुए अवशेष को फसल अपशिष्ट कहते हैं। गेंहूँ की फसल के अवशेष ‘भूसा’ का उपयोग प्लास्टिक बनाने में किया जाता है, जो पर्यावरण की दृष्टि से एक अच्छा विकल्प है। इसे खाद्य एवं औषधि प्रशासन से अनुमोदन (एफडीए)’ प्राप्त है और इसे एक प्रीमियम खाद्य-ग्रेड सामग्री के रूप में भी देखा जाता है। यह पूरी तरह से बिसफेनोल-ए (बीपीए) से मुक्त होता है।

                                                                        

यह तो हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि पर्यावरण पर प्लास्टिक के प्रभाव बहुत विनाशकारी होते हैं, अतः गेहूँ के भूसे से बनाया गया प्लास्टिक आजकल प्रयोग किए जा रहे प्लास्टिक का एक बहुत अच्छा विकल्प हो सकता है। यह प्लास्टिक गेंहूँ के उप-उत्पाद, अर्थात गेंहूँ के भूसे से बनाया जाता है। गेंहूँ के भूसे से बने प्लास्टिक से कंटेनर, स्ट्रॉ, प्लास्टिक प्लेट्स और कॉफी के कप आदि के जैसे विभिन्न उपयोगी चीजों को बनाया जा सकता है।’’

गेंहूँ का उपयोग आटा, ब्रेड के अलावा गेंहूँ प्राप्त होने वाले उत्पाद जैसे कि पास्ता आदि को बनाने के लिए भी किया जाता है। गेंहूँ का भूसा, इसका एक उप-उत्पाद होता है, जो गेंहूँ की कटाई करने बाद शेष बचा रह जाता है और इसका उपयोग प्लास्टिक जैसे उपयोगी पदार्थ को बनाने में किया जा सकता है। यह एक आदर्श शून्य-अपशिष्ट विकल्प है। गेंहूँ के भूसे में सेल्यूलॉज विद्यमान होता है और इसे पुनः उपयोग कर एक नया उत्पाद बनाया जा सकता है।

यह विभिन्न प्रकार के पॉलीमर बनाने का अवसर प्रदान करता है। प्राकृतिक बहुलक मानव शरीर में भी पाए जाते हैं, जैसे कि मानव के बाल एव ंनाखून इत्यादि। जिस प्लास्टिक का प्रयोग वर्तमान में किया जा रहा है वह कृत्रिम पॉलीमर के माध्यम से बनाया जाता है, जबकि गेंहूँ के भूसे से निर्मित पॉलीमर पूर्णतया प्राकृतिक होते हैं।

गेंहूँ के भूसे से प्लास्टिक का निर्माण

                                                         

    गेंहूँ की फसल के अवशेष में लिग्निन उपस्थित रहता है और यह लिग्निन पौधे का वह भाग होता है जो पौधे के खड़े रहने में सहायता प्रदान करता है और चीनी के साथ इसका मिश्रण कर बॉयो-प्लास्टिक बनाया जा सकता है। बसे पहले प्लास्टिक को बनाने के लिए लिग्निन को तोड़ा जाता है, जिसे रोडोकोकस जेस्टी नामक एक बैक्टीरिया के माध्यम से ताड़ा जाता है, जो कि मिट्टी में उपस्थित पाया जाता है।

चूँकि बैक्टीरिया, एसिड का उत्पादन करने में सक्षम होते हैं और यह कृत्रिम उत्पादों का उपयोग किए बिना ही लिग्निन को तोड़ देते हैं, जो कि पर्यावरण के लिए बेहतर होता है। लिग्निन के टूट जाने के बाद ही इसे चीनी के साथ मिलाकर एक प्लास्टिक के जैसे पदार्थ का निर्माण किया जा सकता है, और इसके बाद इस तैयार प्लास्टिक से प्लेट, कप और स्टोरेज कंटेनर जैसे अनेक पदार्थो को बनाना सम्भव हो जाता है। गेंहूँ के भूसे का उपयोग कागज के जैसे पदार्थों को बनाने में भी किया जाता है।

इसमें कुछ रसायनों को मिलाकर गेंहूँ की पुआल को लुगदी में बदल दिया जाता है और इसके बाद इस लुगदी को एक प्लेट में दबा दिया जाता है और इसमें ग्लूटेन भी उपलब्ध नही होता है। यह प्रक्रिया केवल गेंहूँ के भूसे तक ही सीमित नही होती है, बल्कि इसमें अन्य विभिन्न कृषि अपशिष्टों जैसे घास, पत्तियाँ और लकड़ी आदि का उपयोग भी करना सम्भव है और इसी से प्राकृतिक प्लास्टिक का निर्माण किया जाता है।

गेंहूँ के भूसे से निर्मित प्लास्टिक का पर्यावरण पर पभाव

                                                                        

  • गेंहूँ के भूसे से बना पलास्टिक बहुमुखी होता है जिसका उपयोग विभन्न प्रकार से वर्तमान में प्रयोग किए जा रहे प्लास्टिक के स्थान पर किया जा सकता है। 100 डिग्री सेल्सियस अर्थात 220 डिग्री फारेनहाइट तक के तापमान को सहन करने के चलते इसका पुनः उपयोग भी किया जा सकता है। अतः सिंगल यूज प्लास्टिक को प्रतिस्थापित करने में यह कारगर भूमिका निभा सकता है।
  • गेंहूँ का भूसा बायोडिग्रेडेबल होता है, अतः यह प्राकृतिक रूप से कम समय में विघटित हो जाता है।
  • प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से, गेंहूँ को पैदा करने के दौरान, यह वायु के द्वारा जितना कार्बन डाई-ऑक्साइड (CO2) उत्सर्जित करता है, उससे अधिक (CO2) को अवशोषित भी कर लेता है। इसके साथ ही बायोप्लास्टिक का उत्पादन करने में ऊर्जा की खपत भी कम होती है और यह सिंथेटिक प्लास्टिक के उत्पादन की अपेक्षा कम मात्रा में (CO2) का उत्सर्जन करता है, जो कि पोट्रोलियम से प्राप्त होता है।
  • परम्परागत रूप से गेंहूँ की कटाई के उपरांत इसके पुआल को जला दिया जाता है, इस प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्बन डाई-आक्साईड (ब्व्2) अधिक मात्रा में उत्सर्जित होती है, जिसके कारण अब अधिकाश देशों में पुआल को जलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है भारत भी इन देशों में से एक है। हालांकि किसानों के द्वारा इस प्रतिबन्ध का विरोध भी किया गया, परन्तु इस प्रतिबन्ध के उपरांत भी दक्षिण अमेरिका जैसे विभिन्न देशों में इसे आज भी जलाया ही जा रहा है।

गेंहूँ के भूसे से बने प्लास्टिक के अनुप्रयोग

                                                          

  • गेंहूँ से बना यह प्लास्टिक माइक्रोवेव और फ्रीजर आदि के लिए भी सुरक्षित होता है।
  • यह प्लास्टिक गंधहीन होता है और इसमें फँफंूदी भी नही लगती है।
  • गेंहूँ के भूसे से बना प्लास्टिक 100 उिग्री सेल्सियस / 220 डिग्री फारेनहाईट तक के ताप वाले पदार्थों को समाहित करने में सक्षम होता है।
  • यह यूएस फेड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) के दिशा-निर्देशों के अनुकूल है।
  • गेंहूँ के भूसे से प्लास्टिक के जैसे पदार्थ को बनाने में अपेक्षाकृत कम ऊर्जा की खपत होती है, जबकि कृत्रिम प्लास्टिक के उत्पादन में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है और इसको बनाने में कार्बन डाई-आक्साइड आदि गैसों का उत्सर्जन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है। चूँकि गेंहूँ का भूसा एक प्राकृतिक पदार्थ है अतः इसके द्वारा प्लास्टिक का उत्पादन करने से बहुत कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  • विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रेशों और तेल के जैसे विााक्त पदार्थों का प्रयोग किए बिना ही यह अपनी इस सामगी को सुदृढ़ता प्रदान करता है।
  • गेंहूँ का उत्पादन करने वाले किसानों के लिए यह आमदनी का एक नया स्रोत साबित होगा क्योंकि वह अपने इस गेंहूँ के उपोत्पाद को उचित मूल्यों पर बेच सकेंगे।
  • अपशिष्ट के निपटान की समस्या तो अपने आप ही कम हो जाएगी और गेंहूँ के पुआल को जलाने की भी कोई आवश्यकता नही होगी और यह हमारे पर्यावरण के लिए भी लाभदायक ही रहेगा।
  • डिस्पोजेबल प्लास्टिक और विभिन्न प्रकार के पेपर उत्पादों जैसे प्लेट्स और कप इत्यादि को बनाने में गेंहूँ के भूसे का उपयोग कर कृत्रिम प्लास्टिक से बने उत्पादों को प्रतिस्थापित करना आसान होगा और आवश्यक सामगी के लिए हमारे जंगलों का कटान भी कम होगा। इस प्रकार से देखा जाए तो आमतौर पर फसल अवशेष के तौर पर देखे जाने वाले कृषि उपोत्पादों का सदुपयोग भी किया जा सकेगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।