कीवीफल उत्पादन की बढ़ती संभावनाएं

                       कीवीफल उत्पादन की बढ़ती संभावनाएं

                                                                                                                                                 डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं हिबिस्का दत्त्

कीवी या कीवीफल एक प्रकार से पहाड़ी फल है जो पर्णपाती बेल पर लगता है। इसको चाइनीज गूजबेरी भी कहते हैं। बाहर से चीकू जैसे-भूरे रंग वाला और अंदर से गहरे हरे रंग के गूदे वाला यह रोएंदार फल अपने आप में कई पोषक तत्वों का समाहित किए हुए है। कीवीफल में मुख्यतः फाइबर, विटामिन ’सी’, कैरोटिनायड्स, एंटीऑक्सीडेंट और विभिन्न प्रकार के खनिज पाए जाते हैं।

                                                                 

यह सभी हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी गुणकारी होते हैं। आज के समय में हिमाचल प्रदेश के किसान पारंपरिक सेब की बागवानी को छोड़कर कीवीफल की खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस बदलाव का प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है, जो कि कीवीफल की खेती को एक नगदी फसल के रूप में स्थापित करने में लाभकारी साबित हो रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में कीवीफल के काफी 1 बगीचे देश के अन्य पर्वतीय राज्यों जैसे-उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय एवं नगालैंड आदि में भी लगाये जा रहे हैं। हमारे देश में इसका व्यावसायिक उत्पादन हिमाचल प्रदेश से शुरू हुआ, लेकिन वर्तमान समय में अरुणाचल प्रदेश, भारत का कीवीफल उत्पादन करने वाला अग्रणी राज्य बन गया है। यह राज्य देश के कुल उत्पादन का 60 प्रतिशत भाग कीवीफल पैदा कर रहा है (राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड 2017 के अनुसार)।

भारत में 4000 हैक्टर क्षेत्रफल में 12000 मिलियन टन कीवी का उत्पादन किया जाता रहा है। इसमें हिमाचल 123 हैक्टर क्षेत्रफल पर 322 मिलियन टन उत्पादन कर रहा है (बागवानी विभाग, हिमाचल प्रदेश, 2017) के अनुसार।

कीवीफल का उद्गम स्थान चीन है। जबकि इसका आर्थिक दृष्टि से उपयोग न्यूजीलैंड द्वारा किया जाता रहा है। इसके निर्यात को बढ़ाने के लिए न्यूजीलैंड ने इस फल का नाम अपने राष्ट्रीय पक्षी के नाम पर रखा गया है। भारत में सर्वप्रथम कीवीफल को 1960 में लाल बाग उद्यान, बेंगलुरू में लगाया गया, परन्तु पौधे की सुषुप्तावस्था के कारण, यह फलन की स्थिति में आने में कामयाब नही रहा। कीवीफल के पौधे की शीतकाल की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1963 में, इसे भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के उपकेन्द्र फागली एवं शिमला में लगाया गया।

फल की गुणवत्ता एवं उपलब्ध पौष्टिक तत्व

कीवीफल प्रोटीन और विटामिन ’सी’ का अच्छा स्रोत माना जाता है। इसका फल रेशा, फॉस्फोरस, कैल्शियम एवं पोटेशियम से भरपूर होता है।

कीवीफल की बागवानी

                                                         

कवीफल की बागवानी के लिए ऐसे स्थान का चयन करना चाहिए, जहां उपोष्ण एवं उपशीतोष्ण जलवायु पाई जाती हो और जिसकी समुद्रतल से ऊंचाई 900-1800 मीटर के मध्य हो एवं जहां फलन हेतु 600-800 घंटे शीतलन (चिलिंग) को आवश्यकता पूर्ण होती हो। कीवीफल की खेती के लिए बलुई दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। अधिक चिकनी मिट्टी या जिसमें जल जमाव हो, कीवीफल के उत्पादन के लिए ठीक नहीं रहती है।

कीवीफल की किस्में

कीवीफल एक लिगांश्रयी पौधा है। पौधे को फलन की स्थिति में लाने के लिए नर एवं मादा किस्मों के पौधे लगाने की आवश्यकता होती है। परन्तु यह किस्में केवल फूलों के आधार पर ही पहचानी जा सकती है। शाखाओं एवं टहनियों आदि से इनकी पहचान करना कठिन होता है।

                                                     

नर किस्में          मादा किस्में

एलिसन                हेवर्ड

त्मूरी                 एलिसन

एबॉट

मौंटी                

ब्रूनो

पौध प्रसारण

कीवीफल के पौधे कलम विधि (तना कर्तन), ग्राफिं्टग एवं कलिकायन विधियों से तैयार किये जा सकते हैं। इनमें से कलम विधि सबसे सरल व उपयुक्त रहती है।

एक आदर्श कलमः 0.5-1.0 सें.मी. मोटी. 10-15 सें.मी. लंबी तथा 3-5 गांठों से युक्त होना आवश्यक है। कठोर कलमें जनवरी माह तथा कोमल कलमें जून-जुलाई माह में तैयार की जाती हैं। कलमों को लगाने से पूर्व इन्हें 4000 पीपीएम इंडोल ब्यूटारिक अम्ल अम्ल (आईबीए) के घोल में डुबों लिया जाता है, इससे कलमों की वृद्वि पूर्ण रूप से होती है।

परागण एवं विरलन

                                                             

कीवीफल एक लिंगाश्रयी पौधा होने के कारण इसमें परागण की क्रिया का अपना एक अलग महत्व है। पौधे को फलन की स्थिति में लाने के लिए परागण आवश्यक क्रिया होती है। एक नर पौधा 6-10 मादा पौधों के लिए उचित माना जाता है। एक सफल एवं पूर्ण परागण के लिए नर एवं मादा पुष्पों का एक साथ ही फलों का खिलना अनिवार्य होता है। एलिसन की मादा किस्में. एबॉट, ब्रूनो एवं मोंटी में परागण के लिए एलिसन की नर किस्म उपयुक्त पाई गई है।

हेवर्ड किस्म में परागण के लिए तमूरी किस्म को उपयुक्त पाया गया है। हेवर्ड की शीत अवस्था लंबी होने के कारण इसमें पुष्प देरी से आते हैं। कीवीफल के फूलों में मधुमक्खियों के कम विचरण की क्षमता के कारण हाथ से ही परागकणों को नर पुष्पों से मादा पुष्पों तक पहुंचाया जाता है। नर पुष्प खिलने के 2-3 दिनों बाद तक सक्रिय अवस्था में रहते हैं. जबकि मादा पुष्पों में परागकणों को ग्रहण करने की क्षमता 7-9 दिनों बाद तक रहती है।

पौधा रोपण

पौध का रोपण करने से पूर्व दिसंबर माह में 1-1 घन मीटर के गड्ढे तैयार किये जाते हैं। इनको भरते समय 40 कि.ग्रा. गोबर की खाद तथा 1 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट मृदा में मिलाना चाहिए। दीमक के प्रकोप से बचाने के लिए डरमट या क्लोरपायरीफॉस 1 मि.ली./लीटर का घोल बनाकर प्रयोग करना चाहिए। इसके अलावा गोबर की पूर्ण रूप से सड़ी-गली खाद पौध रोपण से पूर्व दिसंबर में एक-एक प्रयोग की जानी चाहिए अन्यथा दीमक लगने का भय बना रहता है।

पौध रोपण मुख्य रूप से जनवरी-फरवरी

फल वृद्धि एवं विकास

                                                         

कीवीफल औसतन 250-280 दिनों की फसल होती है। आमतौर पर इसमें अप्रैल के अंतिम सप्ताह से मई के प्रथम सप्ताह तक फूलों की आवक शुरू हो जाती है। मई के प्रथम सप्ताह के अंत तक कीवी में फलन की शुरूआत हो जाती है। दवाओं का 5 पीपीएम घोल फलों के बढ़ाने में सहायक साबित होता हैं। इस घोल का उपयोग फलों को मटर के दाने के आकार का फल हो जाने के बाद किया जाता है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।