संरक्षित खेती (Protected Cultivation)

                                        संरक्षित खेती (Protected Cultivation)

                                                                                                                                              डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 कृषाणु एवं आकांक्षा सिंह

संरक्षित खेती से तात्पर्य है ग्रीन हाउस या एग्रोशेड नेट के नीचे फसल को उगाना। अधिक महंगी तथा कोमल पंखुड़ियों वाली पुष्प फसलों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि इनकी क्वालिटी को खराब होने से बचाने के लिए किसी प्रकार की सुरक्षा में लगाया जाए। यह बात किसानों की आर्थिक दशा पर भी निर्भर करता है। बांस के बने हुए साधारण ढांचे से लेकर पूरी तरह से कम्प्यूटर नियन्त्रित ग्रीन हाउस बनाए जा सकते हैं। इनमें पौधों की वृद्धि पर भी कुछ हद तक नियन्त्रण किया जा सकता है।

यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि अनेक विभाग इस दिशा में क्रियाशील हैं तथा कम दरों पर कर्ज भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। कुछ स्थानों पर पॉली हाउस बनाने के लिए विशेष छूट भी दी जा रही है।

बाजार घेरेबन्दी तथा उत्तेजित प्रचार/विज्ञापन का अभाव

आज के जमाने में अपने माल को बाजार में उतारने से पहले हर छोटी बड़ी कम्पनी विज्ञापनों का सहारा लेती है। इन्टरनेट के बढ़ते प्रचलन ने तो यह काम और भी आसान कर दिया है। जिससे उत्पादक भी अपनी फसलों के गुणों का बखान सुरूची पूर्ण ढंग से कर सकते हैं।

इसका एक फायदा यह है कि क्रेता उनसे सीधा सम्पर्क कर मूलय आदि के विषय में माल-भाव भी तय कर सकते हैं। इसी संदर्भ में यह कहाना भी उचित रहेगा कि किसी व्यापार में ग्राहक का विश्वास जीतना अत्यन्त आवश्यक है तथा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण ईमानदारी से ही अपनी वस्तुओं का प्रचार करना चाहिए, ताकि उसी श्रेणी का माल सप्लाई हो जिसके विषय में विज्ञापन दिया गया हो।

स्वदेशी परन्तु कुछ श्रेणियों के फूलों का स्थानीकरण तथा प्रचार

भारत विभिन्न भौगोलिक भूखण्डों का ऐसा देश है जिसमें प्राकृतिक भिन्नता मुखर होती है। इस कारण पशु-पक्षी तथ पेड़-पौधों की अनेक स्थानीय किस्में भी है जिनके ज्ञान कुछ गिने चुने क्षेत्रों, परिवार तक ही सीमित हैं। यदि इनकी ध्यानपूर्वक छांटकर कुछ विशिष्ट फूलों का चुनाव कर उनको वैज्ञानिक ढंग से जिसमें ऊतक सम्वर्धक विधि भी शामिल है, प्रवर्धित किया जाए तथा जन-जन तक पहुँचाने का कार्य युक्तिबद्ध तरीके से किया जाए तो हम बढ़ती प्रतिस्पर्धा के इस दौर में फूलों की कुछ मौलिक किस्मों को अधिक धन अर्जित करने के लिए उपयोग में ला सकते हैं।

सन् 1960 में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक जी॰ मोरल ने ऊतक संवर्धन विधि का सर्वप्रथम प्रयोग कर सिम्बिडियम प्रजाति के आर्किड को विषाणु युक्त करने में सफलता पाई। उसके बाद से फूलों के व्यापार में इस विधि का प्रचुर उपयोग किया जा रहा है। थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, इन्डोनेशिया जैसे छोटे-छोटे देशों में महिलाओं ने फूलों के इस व्यापार को कुटीर उद्योग की तरह स्थापित कर एक अहम भूमिका निभाई है तथा अपने-अपने देश की आर्थिक प्रगति में योगदान दिया है। जैव तकनीकी का भी इसमें महत्वपूर्ण अंश रहा है तथा इसके अन्तर्गत ऊतक सम्वर्धन, कायिकी संकरण एक गुणसूत्री पौधे ;भ्ंचसवपकेद्ध तथा पुनर्सयोजी डी.एम.ए. (Recombination D. N. A.) का वर्णन भी इस लेख में प्रस्तुत है।

अधिकतर फूलों को कलमों द्वारा (गुलाब, कार्नेशन, गुलदाऊदी आदि) ही वर्धित किया जा सकता है, परन्तु कुछ ऐसे भी हैं (ग्लोडियालस, लिलि, आईरिस, रजनीगंधा आदि) जिन को जमीन में बोएं जाने वाले कंद, बल्ब या घनकंद द्वारा लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त आर्किड प्रजाति के फूलदार पौधे हैं जिसकी एक धीमी प्रक्रिया है तथा बीज से पूरा पौधा विकसित होने में 6-8 वर्ष लग सकते हैं। इन सभी प्रकार के पौधों का प्रजनन यदि ऊतक संवर्धन विधि द्वारा जिया जाए तो निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं:

1. सभी पौधे समान रूप व गुण वाले होते हैं तथा रोग रहित रहने की सम्भावनाएं भी अधिक होती हैं।

2. पौधों का वयर्धन अति तीव्र गति से हो पाना।

3. पौधों के वर्धन हेतु मौसम पर निर्भरता नहीं।

4. यदि आवश्यकता हो तो कृत्रिम रूप से नई किस्मों का विकास सम्भव।

5. ऐसे पौधों का निर्यात बंद शीशियों में भी किया जा सकता है।

6. आर्किड जैसे पौधों में बिना फफूंद के लगभग शत प्रतिशत बीजों का अंकुरित होना।

7. संकरित पौधों के अधपके भू्रणों का प्रयोग कर नई किस्मों का विकास।

8. नए प्रकार के पौधों का विकास एवं प्रसार थोडे समय में ही किया जा सकता है।

9. जीव मूलद्रव्य कम से कम तापमान पर भंडारण सम्भव।

10. एक गुणसूत्रीय (Haploid) पौधों का पंुकेसर या स्त्री केसर के प्रयोग द्वारा विकास किया जा सकना।

11. आनुवांशिक अभियान्त्रिकी द्वारा ट्रान्सजेनिक पौधों का निर्माण।

12. जीव द्रव्य यानी भित्ती विहीन कोसिकाओं (प्रोटोप्लाज्म) द्वारा संकरण। आजकल अनेक अनुसंधान प्रयोगशालाएँ तथा व्यावसायिक कम्पनियाँ इस विधि से तैयार उन्नत पौधों के प्रजनन, विकास तथा व्यापारीकरण में लगी हैं। इस विषय में निम्न तकनीक अधिक महत्व रखती हैं।

क्लोनल प्रवर्धन

इस विधि में विभज्योतक की वृद्धि का एक समरूपता कायम रखने के लिए उपयोग किया जाता है और एक ही कांेपल से अनेक कोपलें बनाई जा सकती हैं जिनमें बाद में जड़ों का विकास कर उन पौधों को कठाकरण कर उन्हें पॉलीहाउस या ग्रीनहाउस में लगाया जाता है। इस प्रकार से तैयार पौधों की गुणवत्ता में कोई विशेष भिन्नता नहीं आती।

दूसरी विधि कैलस (Callus) निर्माण द्वारा पौधों का विकास है जिससे यह पूरी सम्भावना है कि कुछेक गुणों में परिवर्तन आ जाएँ जो कि पुष्प व्यापार में लाभकारी भी सिद्ध हो सकते हैं। तीसरे ढंग से कायिकी भू्रण द्वारा यानी वानस्पतिक कोशिकाओं को भू्रणों में परिवर्तित किया जाना। इन भू्रणों में यह विशेषता होती है कि उनमें जड़ तथा ऊपर के विभज्योतक पूरी तरह से विकसित हो चुके होते हें जिसके कारण उनकी वृद्धि एवं विकास से जड़ सहित पौधों का निर्माण एक ही बार में सम्भव हो पाता है।

रोगमुक्त पौधों का विकास

                                                                   

जैसा कि पहले भी वर्णन किया जा चुका है कि ऊतक सम्वर्धन का सबसे बड़ा योगदान रोगमुक्त पौधों का विकास करना है जिससे पौधों का व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर सके।

पौधों की बीमारियों जैसे कि फफूंदी, बैक्टीरिया या कीड़ों के आक्रमण का मुकाबला क्रमशः फफूंदी, बैक्टीरिया तथा कीटनाशक दवाईयों का प्रयोग करके किया जा सकता है परन्त्ु एक अन्य प्राकर के रोग यानि विषणु संक्रमण को केवल ऊतक सम्वर्धन द्वारा ही काबू किया जा सकता है और द्वितीय की सम्भावनाओं को अच्छी तथा साफ सुथरी कार्यप्रणाली के द्वारा कम किया जा सकता है।

वैसे भी विषाणुओं से ग्रसित पौधों के विभज्योतकों से भी रोगमुक्त पौध बनाना अब एक साधारण कार्य बन गया है। कुछ प्रमुख नाम जैसे आर्किड्स, एन्थ्यूरियम, जरबेरा, बिगोनिया, ग्लेडियोलस, गुलदाऊदी आदि गिनाए जा सकते हैं। जिनका प्रवर्धन इसी विधि द्वारा किया जाता है।

जीवद्रव्य संयुग्मन तथा कायिक संकरण विभिन्न पौधों के प्रोटोप्लास्ट यानि जीवद्रव्य का उपयोग कर या मिलाकर नई किस्मों का विकास कायिक संकरण कहलाता है। इसमें अप्राकृतिक जोड़-तोड़ भी सम्भव हैं जैसे सन् 1972 में कार्लसन नामक वैज्ञानिक ने टमाटर तथा आलू का मिश्रित रूप पोमैटो तैयार किया, जिसकी जड़ों में आलू तथा शाखाओं में टमाटर लगते थे। इसके अतिरिक्त गुलाब, पिटुनिया, पिलारगोनिया, अफ्रीकन वायलेट पौधों में इस विधि की सफलता को वैज्ञानिकों ने दर्शाया है परन्तु अभी अन्य पौधों पर कार्य होना बाकी है।

परागकोश एवं परागकणों का एक गुणसूत्रीय पौधे बनाने के लिए प्रयोग

हेप्लाईड पौधे यानी एक गुणसूत्रीय पौधों का संकरित पौधों तथा समरूपी शृंखला बनाने में इस्तेमाल करते हैं। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि इस विधि का विकास सर्वप्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय के दो वैज्ञानिकों सुश्री शिप्रा गुहा मुखर्जी तथा एस. सी. महेश्वरी ने सन् 1964 में धतूरे के पौधों में किया था।

चीन ने इसी का उपयोग कर धान की कई नई किस्मों का विकास कर लिया है। फूलों के पौधों में पिटूनिया, पिलारगोनियम तथा अफ्रीकन वॉयलेट आदि में सफलता मिल चुकी है।

भू्रण संवर्धन

अक्सर अंतर्जातीय, अंतआनुवंशकीय तथा अंतर्विशिष्ट संकरण में भू्रण तो बन जाता है परन्तु भूणपोष के न बनने की वजह से इनका आगे का विकास रूक जाता है। यदि भू्रण को इसी अवस्था में ध्यानपूर्वक निकाल कर कृत्रिम माध्यम में रखा जाए तो उनसे पूर्ण तथा नए संकरित पौधों का विकास सम्भव है। गुलदाऊदी, इम्पेशेन्स, आईरिस, पिटुनिया, लिली आदि में इस तकनीक का उपयोग किया जा चुका है।

आनुवांशिक अभियांत्रिकी (Genetic Engeering)

पौधों का आनुवांशिक रूपान्तरण बाहरी DNA को सीधे कोशिकाओं में डालने से या फिर भित्ती विहीन कोशिकाओं द्वारा अपने अन्दर समाने से किया जा रहा है। एक चौंका देने वाली खबर यह है कि कोलोन पैसेफिक लिमिटेड नामक कम्पनी ने एग्रोबैक्टीरियम के माध्यम से नीला गुलाब बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। इसके लिए उन्होने पिटूनिया से नीले रंग का जीन निकाल कर उसे गुलाब में प्रत्यापित कर दिया।

इसी प्रकार एन्थ्यूरियम, कार्नेशन आदि पौधों में भी फूलों का रंग बदलने हेतु प्रयोग किये जा रहे हैं। उपरोक्त बातों से यह सिद्ध हो जाता है कि जैव तकनीक का प्रयोग विषाणु मुक्त पौधे पैदा करने, नई किस्मों का निरन्तर विकास करने हेतु लाभकारी ढंग से किया जा सकता है तथा भारत में इसकी सफलता की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।

पुष्प उत्पादन एक उपयोगी कार्य है जिसमें यदि आधुनिक तकनीक का समावेश किया जाए तथा किसानों को उपयुक्त प्रशिक्षण उपलब्ध करवाया जाए तो भारत की भौगोलिक विविधता का भरपूर सदुपयोग कर गाँवों का भी आर्थिक उत्थान हो सकेगा।

फसलों में समन्वित कीट प्रबन्धन

पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण का मुख्य कारण रासायनिक उर्वरकों का असन्तुलित एवं कीटनाशकों का अनियोजित प्रयोग है। नाइट्रोजन वाले उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग से हवा, पानी एवं मिट्टी में नाइट्रेट की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो जाती है। पौधों की वृद्धि अधिक होती है, जिससे उन पर कीटों का प्रकोप अधिक होता है। कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से कीटों में निरोधन क्षमता बढ़ने लगी है, जिन्हें नष्ट करने के लिए अधिक मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है। ऐसी दशा से प्रदूषण की समस्या एक विकराल रूप धारण कर रही है।

कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग कृषि के मित्र जीवों को भी नष्ट करता है, जैसे कि केंचुआ, केकड़ा, चीटियां, चिड़िया, मेंढ़क, मछली आदि। पर्यावरण एवं खाद्य पदार्थों में प्रदूषण को कम करने के लिये समन्वित कीट प्रबन्धन ही एकमात्र उपाय है, जिससे मानव, पशु एवं अन्य लाभदायक जीवों का स्वास्थ्य सुरक्षित रह सके।

समन्वित कीट प्रबन्धन तकनीक में विभिन्न प्रकार की सस्य एवं यान्त्रिक क्रियायें तथा जैविक नियंत्रण आदि विधियां अपनाई जाती हैं और जब इन विधियों को अपनाने के बावजूद भी कीटों का नियन्त्रण नहीं होता, तभी आवश्यकतानुसार कीटनाशक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। प्रायः एक खेत में बार-बार एक ही फसल लेने से उस फसल के कीट खेत में प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते हैं और उनमें लगातार वृद्धि के लिये उस खेत की स्थित अनुकूल हो जाती है।

नाइट्रोजन वाले उर्वरकों के अधिक प्रयोग से फसलों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा उनमें हरे रंग का बाहुल्य हो जाता है, जोकि कीट व्याधियों के आक्रमण को बढ़ावा देता है। इसी प्रकार फसल से अधिक पानी लगाने से भी वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है, पौधे कमजोर रह जाते हैं तथा कीटों का आक्रमण होता है। विभिन्न फसलों में हानिकारक कीटों के नियन्त्रण के लिये निम्नलिखित उपाय करने चाहिये:

1.   सस्य क्रियायें

2.   यान्त्रिक क्रियायें

3.   जैविक विधियां

4.   अन्य अरासायनिक विधियां

5.   रासायनिक नियन्त्रण

सस्य क्रियायें:-

ग्रीष्म ऋतु की जुताई: खाली खेत में ग्रीष्म ऋतु की जुताई करने से उपस्थित घास तथा फसलों की जड़ें एवं ठूंठ आदि मिट्टी में दब जाते हैं एवं इनमें पलने वाले कीटों के अण्डे जैसे तना छेदक, कटुआ कीट आदि की झिल्लियां आदि या तो नष्ट हो जाती हैं या पक्षियों द्वारा खा ली जाती हैं।

सौरीकरण: पौधशाला द्वारा उगाई जाने वाली फसलों के लिए सौरीकरण विधि कीटों के अण्डे, बच्चों को मारने के लिये सक्षम है। इस विधि में खेत में पानी लगाकर उस पर पारदर्शी प्लास्टिक की शीट बिछा देते हैं और 10-15 डिग्री सेंटीग्रेड या उससे भी अधिक हो जाता है, जिसके कारण अधिकांश कीट एवं उनके अण्डे बच्चे नष्ट हो जाते हैं।

फसल अवशेषों को नष्ट करना: फसलों की कटाई के बाद खेत में विभिन्न फसलों के अवशेष एवं घास आदि केा निकाल कर गड्ढ़े में गहराई में दबा दे या जला दें। इस क्रिया से हानिकारक कीट के अण्डे, झिल्लियां, बच्चे आदि नष्ट हो जायेंगे।

प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन: विभिन्न फसलों में वैज्ञानिकों द्वारा कुछ कीट निरोधक किस्मों का विकास किया गया है। इन किस्मों का चयन कीट प्रबन्धन का एक उचित माध्यम है। कीट निरोधक जातियों की खेती करके कीट-नाशकों के बढ़ते प्रयोग को कम किया जा सकता है।

समय पर बीजाई: प्रायः वर्षा ऋतु में अधिकांश कीटों का प्रकोप फसलों पर देखा जाता है। अतः मानसून प्रारम्भ होते समय ही बुआई कर देनी चाहिये। जहां तक सम्भव हो, कम अवधि वाली फसलों की खेती करें, जिससे हानिकारक कीटों को पनपने के कम अवसर मिलें। विश्वस्त संस्थाओं से ही बीज खरीदें। बीज बुवाई के पूर्व उसके अंकुरण की जांच अवश्य करें।

वैज्ञानिक फसल चक्र: खेत में लगातार एक ही फसल उगाने से उस फसल में उगने वाले कीटों की संख्या निरन्तर बढ़ती जाती है। अतः फसल बदल-बदल कर लेना कीट-नियंत्रण में लाभदायक है। यदि हो सके, तो धान्य फसलों के बाद दलहनी फसलें या तिलहनी फसलें लें।

संतुलित उर्वरक प्रयोग: वैज्ञानिकों द्वारा अनुशंसित या मिट्टी परीक्ष्ज्ञण पर आधारित उर्वरकों की मात्रा का प्रयोग करें। आवश्यकता होने पर जिंक का प्रयोग अवश्य करें। किसी भी दशा में नाइट्रोजन का प्रयोग आवश्यकता से अधिक नहीं करें।

खरपतवार नियन्त्रण: खेत में पनपने वाले खरपतवार कुछ हानिकारक कीटों को आकर्षित करते हैं, जहां इन्हें छिपने की पर्याप्त जगह मिलती है। अतः खेत में खरपतवारों को न उगने दें तथा खेत को साफ रखें।

निरीक्षण पट्टी: विभिन्न फसलों में लगभग तीन मीटन के पश्चात् 30 संेटीमीटर स्थान खाली रखें। इस खाली पट्टी में चल कर फसल के कीटों का निरीक्षण कर सकते हैं इस निरीक्षण पट्टी में उर्वरकों एवं कीटनाशकों के छिड़काव एवं भुरकाव में भी सुविधा होती है।

मिश्रित खेती: विभिन्न प्रकार के कीटों को आकर्षित करने के लिए प्रपंची फसलें अपनाना लाभकारी है। धब्बेदार इल्ली के लिये भिंडी, तम्बाकू की इल्ली के लिये अरंडी जैसी फसलें लगाई जा सकती हैं।

यान्त्रिक क्रियायें:-

प्रकाश प्रपंच: फसलों को नुकासान पहुंचाने वाले अधिकतर कीट रात में प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं। इसी कारण प्रकाश प्रपंच यंत्र बनाये गये हैं। इसके द्वारा 45 से 50 प्रतिशत कीटों के आक्रमण को कम किया जा सकता है। प्रकाश प्रपंच का एक यन्त्र लगभग 5 एकड़ खेत में कीट नियन्त्रण कर सकता है। इस यन्त्र के पास इकट्ठे कीटों को देखकर पता लगा सतके हैं कि किस प्रकार के कीटों का प्रकोप फसल पर है मित्र या शत्रु कीटों का अनुपात भी ज्ञात किया जाता है।

अण्डों एवं इल्लियों को नष्ट करना: खेत में फसल उगाने के बाद प्रतिदिन उसका निरीक्षण करते रहना चाहिये। फसल की बुवाई से कटाई तक लगातार निगरानी करने से खेत में लगने वाले शत्रु व मित्र कीटों की उपस्थिति के विषय में जानकारी मिलती रहती है। जिन पौधों एवं पत्तियों पर शत्रु कीटों के अण्डे एवं बच्चे अधिक दिखायी दें, उन्हें तोड़कर नष्ट कर देना चाहिये।

फैरोमेन ट्रैप: फैरोमेन वे रसायन है, जो नर या मादा कीटों द्वारा प्रजनन के लिये एक दूसरों को आकर्षित करने के लिये श्रवित किये जाते हैं। प्रयोगशाला में विकसित इसी प्रकार के रसायनों के प्रयोग से ट्रैप में फंसे कीटों को नष्ट कर सकते हैं तथा शत्रु कीटों की संख्या अधिक होने पर आवश्यक कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकते हैं। इन रसायनों से मित्र कीटों का नुकसान नहीं होता है।

                                                                     

चिड़ियों को आकर्षित करना: फसलों के बीच मं 5 से 10 मीटर की दूरी पर शाखा वाले एक से डेढ़ मीटर ऊँची बांस की टहनियां मिट्टी में गाड़ देनी चाहिये। इन बांस की टहनियपों पर कीटों को खाने के लिये विभिन्न प्रकार की चिड़ियां आकर बैठती हैं तथा सूण्डियों आदि को खा जाती हैं।

खेतों की मेड़ों पर कीटों को आकर्षित करना: प्रायः धान्य फसलों वाले खेतों की मेड़ों पर ऐसी फसल लगा देते हैं, जिन पर शत्रु तथा मित्र कीट आकर्षित होते हैं, जैसे तिल, अरहर आदि। मेड़ों पर लगाये गये पौधों पर परभक्षी एवं परजीवी भी उत्पन्न होते हैं, जो शत्रु कीटों के अण्डों एवं इल्लियों को नष्ट करते हैं।

जैविक विधियां: विभिन्न फसलों में शत्रु कीटों पर नियन्त्रण रखने के लिये प्रकृति भी विभिन्न प्रकार के मित्र कीटों को जन्म देती है, जो हानिकारक कीटों की वृद्धि पर अंकुश लगाती है। इस प्रकार के नियंत्रण को जैविक नियंत्रण कहते हैं। मित्र जीवों को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

1.   परभक्षी जीव - इस श्रेणी में मकड़ियां, भिरोड बग, हमेनिया, मिनोर्चलस, वाटर ट्रीडर, बिटल्स तथा ग्रास हापर, श्रंगी भंृग, माइक्रोवेलिया, ड्रगन-फ्लाई, किशोरी पतंगा प्रमुख है। जिन खेतों में इनकी संख्या पर्याप्त होती है, वहां हानिकारक कीटों की संख्या नियन्त्रित रहती है।

2.   परजीवी रोगाणु -  परजीवी रोगाणुओं में ट्राइकोग्रामा, टिलोनोमस, टेट्रास्टिकम, चिराप्स आदि प्रमुख हैं। ये नम मौसम में काफी सक्रिय रहते हैं और इल्लियां तथा तना छेदक कीटों के नियन्त्रण हेतु प्रयुक्त होते हैं। ट्राइकोग्रामा तथा क्रायसोपा के अण्डे 40 से 50 हजार प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में लगायें।

3.   एन.पी.वी. वायरस - इल्लियों को नष्ट करने के लिये न्यूक्लियर पालीहेड्रोसिस वायरस का प्रयोग कर सकते हैं। ये वायरस इल्लियों को नष्ट करने के लिये काफी प्रभावकारी होते हैं।

4.   अन्य अरासायनिक विधियां - हानिकारक कीटों के नियंत्रण में नीम का प्रयोग पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाए बिना किया जा सकता है। खेतों में नीम की पत्ती या गिरी मिलाने से हानिकारक कीट नष्ट हो जाते हैं तथा केंचुओं की संख्या बढ़ती है। नीम की पत्ती ा छाल उबालकर उसमें पानी या नीम की खली का पानी मिट्टी में डालने से सूत्रकृमि (निमेटोड) की संख्या में कमी आती है। नीम की खली एवं यूरिया का मिश्रण 5: 1 के अनुपात में डालने से तना छेदक पर नियंत्रण होता है। 5 किग्रा. नीमगिरि पाऊडर रात को पानी में भिगो दें तथा 100 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़कें तो शत्रु कीटों पर नियंत्रण कर सकते हैं इस घोल में टिपाल मिलाने से अधिक लाभ होता है।

यह घोल आधा एकड़ के लिये पर्याप्त है। करीब 12 लीटर पानी में तीन चम्मच कपड़े धाने का सोड़ा तथा तीन चम्मच नीम का तेल बूंद-बूंद कर मिलाएं और इस मिश्रण का छिड़काव करें तो सफेद मक्खी, जैसिड के अण्डे, माहू तथा बगस पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

5.   रासायनिक नियंत्रण - रासायनिक कीट नियंत्रण के अंतिम उपाय के रूप में अपनाना चाहिये। जब ऊपरलिखित तरीकों से शत्रु कीटों पर नियन्त्रण नहीं हो सके, तभी रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिये। अपनी फसल का लगातार निरीक्ष्ज्ञण करते रहें और शत्रु व मित्र कीटों की संख्या की जानकारी लेते रहें। शत्रु कीटों की संख्या, जब आर्थिक कगार या सीमा से अधिक हो जाये, तभी रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करें। कीटनाशक आजकल कई स्वरूपों में जैसे - तरल, दानेदार, चूर्ण, घुलनशील पाऊडर तथा गैस के रूप में भी उपलब्ध हैं। कुछ कीटनाशक अधिक प्रचलित हैं और वातावरण के लिये उपयुक्त है।

इन्हें आर्गेनोफास्फेट कीटनाशक कहते हैं। रस चूसने वाले कीटों के लिये मिथइल डेमोटोन तथा डाईमिथोएट, फोरेट, फास्फोमिडान आदि का प्रयोग करना चाहिये, जिन्हें सिस्टेमिक कीटनाशक कहा जाता है। इसी प्रकार पत्ती खाने वाले कीटों को मारने के लिये मैलाथियान, एण्डोसल्फान, क्विनालफास, मोनोक्रोटोफास, ट्राइजोफास, ऐसीफेट आदि का प्रयोग कर सकते है। कीटनाशकों की दूसरी श्रेणी कार्बेमेट है, जिसके अन्तर्गत कार्बेरिल, बिपविन तथा मिथोमिल आदि आते हैं। कीटनाशकों का एक वर्ग पत्ते, फूल व फल आदि खाने वाले कीटों के लिये प्रचलित है। इसके अलावा पायरेथ्राइड ग्रुप, जिसके अन्तर्गत सायपरमेथ्रिन ग्रुप, जिसके अन्तर्गत सायपरमेथ्रिन आते हैं, इनकी मारक क्षमता तीव्र होने के कारण ये अधिक प्रचलित हैं, लेकिन ये अपने प्रीाावी क्षेत्र में आने वाले मित्र कीटों को भी नष्ट कर देते हैं, अतः इन कीटनाशकों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिये। किसान भाइयों के लिये ध्यान रखने की बात है कि कीट नियन्त्रण के लिये सबसे पहले इंडोसल्फान तथा क्विनालफास का इस्तेमाल करें। तत्पश्चात् अन्य कीटनाशियों का प्रयोग करें। यदि इन रसायनों से शत्रु कीटों का नियन्त्रण न हो, तभी पायरेथ्रायड गु्रप के कीटनाशक का प्रयोग करें।

अतः एकीकृत कीट प्रबन्धन देश के नागरिकों, पशु-पक्षियों एवं पर्यावरण को स्वस्थ एवं प्रदूषण रहित रखने के लिये अति आवश्यक है। विभिन्न देशों में किये गये प्रयोगों से इसकी उपयोगिता भी साबित हो चुकी है। बंगला देश में किये गये प्रयोगों में पाया गया कि फसलों की उपज में 6 से लेकर 21 प्रतिशत तक ही वृद्धि हुई है तथा कीटनाशी रसायनों के व्यय में 67 प्रतिशत की बचत हुई है। उस देश में प्रतिवर्ष कीटनाशियों के आयात में 12 करोड़ डॉलर की बचत भी की गई। चीन में एकीकृत कीट प्रबन्धन के द्वारा कीटनाशकों पर होने वाले व्यय में 30 प्रतिशत की बचत की गई व इसके साथ ही कपास में 100 से 120 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर अधिक उपज प्राप्त हुई। इसी प्रकार धान में 500 किलोगा्रम प्रति हैक्टेयर पैदावार अधिक हुईलंका में भी 63 प्रतिशत कीटनाशकों की बचत हुई तथा धान की पैदावान में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

हमारे देश में भी कई स्थानों पर ऐसे ही प्रयोग किये गये हैं। धान की फसल में कीटनाशकों पर होने वाले व्यय में 10 प्रतिशत की बचत हो गई है तथा इसकी पैदावार में 10 से 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई। कपास के कीटनाशकों के प्रयोग से 60 प्रतिशत की बचत की गई व उसकी उपज से 5 से 10 प्रतिशत की वृद्धि भी मिली।

इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि एकीकृत कीट प्रबन्धन न केवल हमारे पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिये आवश्यक है, बल्कि मानव एवं पशुओं के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिये भी अति आवश्यक है तथा अनाज की पैदावार बढ़ाने में भी उपयोगी है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।