सतावर की खेती कब और कैसे

                       सतावर की खेती करने की वैज्ञानिक विधि

                                                                                                                                 डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                   

सतावर मूल रूप से अफ्रीका में एशियाई देशों तथा ऑस्ट्रेलिया में पाया जाने वाला पौधा है। भारत के सभी उष्ण, उपोषण तथा समशीतोष्ण भागों विशेष रूप से उत्तरी राज्यों में यह स्वतः ही उगते हुए देखा जाता है। उत्तराखंड स्थित हिमालय में इसे प्र्रायः 1,500 मीटर की ऊंचाई तक उगते हुए देखा गया है।

वनस्पतिक विवरणः- यह मध्यम आकार का एक बहूवर्षीय, अत्याधिक शाखित एवं धारीदार पौधा है, जिसकी शाखाएं लता कि भाँति बढ़ती हैं। इसका मुख्य तना अधिक लंबा नहीं होता है और काष्ठीय, भूरा या सफेद-धूसर तथा कंटीला होता है। इसके पुष्प छोटे, घने गुच्छे में, सफेद तथा सुगंधित होते हैं। फल बेरी, गोलाकार, तीन खंडयुक्त 4-6 मिमी.. मोटे तथा लाल लाल-बैंगनी रंग के होते हैं।

बीज काले होते हैं। जड़े कन्दीय, पतली, घनी गुच्छों में, लम्बी तथा भीतर से सफेद व पीले होती हैं। ताजा जड़े चिकनी वह मांसल होती हैं तथा सूखने पर लंबाई में झुर्रियां पड़ जाती हैं। जो विवाद में मीठी-कड़वी होती है। विश्व में एस्पेरेगस वंश की 30 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 20 प्रजातियां भारत के जंगलों में ही देखी गई हैं।

जलवायुः- इसकी खेती के लिए उष्ण-आर्द्र जलवायु उपयुक्त रहती है। औसत तापमान 10-400 से0 तथा औसत वर्षा 2500 मिमी मीटर वाले स्थान इसकेी खेती के लिए अच्छे माने जाते है।

भूमिः- सतावर की खेती को अनेक प्रकार की मृदा में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। लेकिन यह बलुई एवं अच्छी तरह जलोत्सारित मृदा को पसंद करती है। सतावरी की फसल के लिए बुलाई दोमट मिट्टी सर्वाधिक उपयोगी होती है, वैसे यह दोमट मिट्टी से पथरीली मिट्टियों में भी लगाया जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्रों में से पहाड़ियों के ढलने पर इसे लगाया जा सकता है। इसकी लता कांटेदार होती है तथा दूसरे पौधों की सहायता के ऊपर चढ़ जाती है। जिन खेतों में पानी के निकास का उचित प्रबंधन हो तथा वर्षा ऋतु में पानी नहीं रुकता तो ऐसी मूवी में इसकी खेती की जानी चाहिए। इस की विभिन्न प्रजातियां देश के लगभग सभी भागों में पाई जाती है। पश्चिमी तथा पूर्वी घाट स्थित पहाड़ियों पर यह प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।

                                                                     

व्यवसायिक स्तर पर इसकी खेती भोवराय, कोल्ली तथा कॉल्रायन पहाडियों पर सफलतपूर्वक की जा रही है। समुद्र तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊंचाई तक इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है और अब इसे मैदानी क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक को उगाया जा रहा है। इसका पौधा बहुत मजबूत होता है अतः विपरीत परिस्थितियों जैसा सूखा तथा ठंड दोनों को सहन करने की अद्भुत क्षमता इसके अन्दर होती है।

सतावर की उपज की आर्थिकीः- देश में औसतन 36 टन प्रति एकड़ ताजी जड़ों का उत्पादन प्राप्त किया जाता है। इन जड़ों को सुखाने के बाद शुष्कित जड़े लगभग 32-36 किं्वटल प्रति एकड़ तक प्राप्त हो जाती हैं इसका बाजार भाव 40-50 रूपए प्रति किलोग्राम रहता है। खेती पर कुल व्यय 20-24 हजार रूपए प्रति एकड़ तक हो जाता है, जबकि प्राप्तियों से आय सवा से पोने दो लाख रूपए तक हो सकती है। इस प्रकार शुद्ध लाभ प्रति एकड़ एक से डेढ़ लाख रुपए तक प्राप्त हो सकता है।

उपयोगिताः- सतावर की कंदिल जड़ मधुर, रसायन, बलवर्द्वक, दूध बढ़ाने वाली, वीर्य-वर्द्वक और अतिसार को दूर करती है। यह शीतवीर्य रसायन, मेधाकारक, जठराग्निवर्द्वक, पुष्टिक स्निग्ध नेत्रों के लिए हितकर, पित्त, रक्त तथा शोथ दूर करने वाली होती है। इसके अंदर सतावरिन नामक रसायन पाया जाता है। इसका उपयोग स्त्रियों के लिए टॉनिक, रक्त और पाचन तथा मानसिक तनाव से मुक्ति हेतु दवा बनाने के काम में किया जाता है। शरीर के अंगों की कार्यात्मक क्षमता सुधारने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।

इसका चूर्ण दूध के साथ लेने से अम्लता, मूत्रीय गड़बड़ी साथ ही साथ मूत्र में खून आदि के उपचार लाभदायक है। जिरीफोर्ट के एक अवयव के रूप में थकान एवं बुढ़ापे के उपचार में उपयोगी है। इसके अतिरिक्त यह विषाणु तेल, सतावरिपानक, सतावरिघृत शतमूल्यादि, लौह, शतवार्यादि चूर्ण, नारायण तेल, शतावरी प्लस, शत कल्प, सुपारी पान, लक्ष्मी विलास रस, शतावरेक्स तथा विग्रोमेक्स आदि औषधियों तैयार करने में प्रयुक्त किया जाता है।

प्रबंधन तथा बुवाई का उचित समयः- इसकी खेती प्रायः बीज के द्वारा की जाती है। बीजों का अंकुरण प्रतिशत कम होता है। अतः बीज दर 04 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से की जाती है। बीज को खाद मिली नर्सरी/क्यारियों में मई में बोया जाता है और फिर सिंचाई कर दी जाती है। बीज एक माह में अंकुरित होते हैं और रोपण योग्य जुलाई अंत या अगस्त आरंभ तक तैयार हो जाते हैं। पौध खेत में तैयार मेड़ों के ऊपर और 30-30 सेंटीमीटर की दूरी पर प्रति की जाती है।

लगभग 45 से मी लम्बाई हो जाने पर पौधों को लकड़ी के बुरादे का छिड़काव दिया जाता है। बीज बोने से पूर्व गोमूत्र में भिगोने से बीजों में फंफूद नहीं लगता। जड़ों में छोटे-छोटे अंकुर- ‘‘डिस्क’’ को पॉलीथिन थैलियों में भरकर पौध तैयार की जा सकती है। सतावर को वैसे जड़ों से लगाना अच्छा रहता है, हालांकि बीज से भी इसे लगा लगाया जा सकता है।ं दोनों ही परिस्थितियों में पहले इस की पौध तैयार करते हैं फिर पौधों को खेत में लगाते है।ं इसकी पौध फरवरी से मार्च तथा जुलाई से अगस्त माह में लगाना अच्छा रहता है। इसे बीजों और प्रकंद कलमों, जिसे डिस्क कहते है,ं द्वारा प्रवर्धित किया जा सकता है। बीजो को मई में 1 ग 1 मीटर के अंतराल की क्यारियों में बोते हैं।

                                                                        

बीजों का अंकुरण करीब एक से डेढ़ माह में शुरू हो जाता है और अगस्त तक पौधे से 8 से 10 सेमी तक ऊंचे हो जाते हैं। पौधों को 60 ग 60 सेमी की दूरी पर रोपित करना अधिक उचित रहता है। भूमि की तीन से चार बार अच्छी तरह से जुताई करके तथा साथ-साथ फाटा लगा कर मिट्टी को भुरभरुी बना लेते हैं।

खाद एवं उर्वरकः- भूमि की अंतिम जुताई से पूर्व खेत में  6 से 8 टन प्रति एकड़ गोबर की सड़ी हुई खाद मिला देते हैं। 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 24 किलोग्राम फास्फोरस तथा 24 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ रसायनिक खादों की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा पौध को लगाने से पूर्व खेत में मिला देते हैं तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा फसल लगाने के 3 माह बाद खेत में छिड़काव द्वारा देते हैं। उपर्युक्त तरीके से तैयार खेत में 60 सेंटीमीटर की दूरी पर मेड़ें बना लेते हैं तथा इन मेड़ों पर 7 सेमी की दूरी पर पौधों की रोपाई कर देते हैं।

सिंचाईः- पौधों की रोपाई के तुरंत बाद खेत की सिंचाई कर देनी चाहिए फिर दूसरी सिंचाई 10 दिन बाद करते हैं बड़े बाद में 20-25 दिन पर यदि वर्षा ना हो तो सिंचाई करते रहना चाहिए।

निराई गुड़ाई में देखभालः- सतावर का पौधा 1.5 से 2.0 मीटर तक बड़ा बेलदार होता है। अतः इसके चढ़ने के लिए खेत में डंडें गाड़ दिए जाते हैं और एक दूसरे के साथ तार से बांँध दिए जाते हैं, जिससे पौधे इनके ऊपर फैलते रहते हैं और इससे निराई-गुड़ाई आदि में भी कोई परेशानी नहीं होती। आरम्भ में दो बार निराई एवं दो बार फावड़े से गुड़ाई कर देने से फसल अच्छी पैदावार देती है।

कटाई एवं भंडारणः- जब सतावर का पौधा पककर पीला पड़ने लगे जो सामान्यतः रोपण के दो से तीन साल पश्चात होता है तब इसकी जड़ों को काटना शुरु कर देते हैं। काटने के तुरंत बाद जड़ों को तेज धारदार चाकू से छीलकर छोटे-छोटे टुकड़ों में अनुप्रस्थ रूप से काटकर छाया में सुखा लेते हैं। जब फसल 18 से 36 माह की हो जाती है तब इसके पौधे फूल देने लगते हैं इन फूलों से बहुत अच्छी सुगंध आती है। इसके फल छोटे छोटे होते हैं जब यह लाल हो जाते हैं तथा सूखने लगते हैं तो इन्हें तोड़ कर सुखा लेते हैं।

इन्हें पौध सामग्री के लिए प्रयोग किया जाता है, फिर पौधों से कंधा खोदकर बाहर निकाल लेते हैं। इस प्रकार लगभग 24 से 36 महीने में फसल खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद कंदों को धोकर उबलते पानी में 10 मिनट रखकर ऊपर से छिलका उतार कर सुखा लेते हैं और फिर उन्होंने छाया में भली भांति सुखाया जाता है। आदिवासी इसके कंधों को भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं।

रासायनिक संघटकः- सतावर के प्रमुख तत्व सतावरिन-1 तथा -3 नामक दो सैपोनिन है। इसके अतिरिक्त इसमें दो अन्य सैपोनिन शतावरिन-2 तथा -4, साइटेस्टेरॉल, स्टिगमास्टेराल, ऐस्पारागेमीन-ए आदि भी पाए जाते हैं। इसमें एक पॉलीसाइक्लिक एक्लोयड तथा दो साइटोस्टेनोलिक एवं प्लूरोस्टेनोलिक सैपोनिन भी पाए जाते हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।