शिक्षा का बाजारीकरण और संवेदनहीन शिक्षक

शिक्षा का बाजारीकरण और संवेदनहीन शिक्षक

प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

अहमदाबाद के एक नामचीन स्कूल के वाइस प्रिंसिपल ने नौवी कक्षा के मिर्गी की बीमारी से पीड़ित ‘एक्स’ छात्रा के समक्ष उसके पिता से कहा ‘अगर मिर्गी की बीमारी की के कारण आपकी बेटी कक्षा में लगातार अनुपस्थित रह रहती है तो आप किसी ओपेन स्कूल उसका दाखिला करवा दीजिए, ताकि उसे रोज स्कूल जाने के बंधन से मुक्ति मिल जाए और सिर्फ परीक्षा देने के लिए ही स्कूल जाना पड़े।’

एक वाइस प्रिंसिपल जैसे जिम्मेदारी वाले पद पर आसीन व्यक्ति से इस तरह की संवेदनहीन और अनैतिक सलाह की कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती है, वह भी पीड़ित छात्रा के सामने ही, लेकिन शिक्षा के संक्रमण के इस दौर में शिक्षा और शिक्षकों का इस कदर बाजारीकरण हो चुका है कि शिक्षकों के संवेदनशील होने की कल्पना करना भी बेमानी ही है। अब एक टीचर और वुचर के बीच के फर्क की परत बहुत तेजी से छीज रही है। शायद इसी वजह से कोटा और देशभर में बड़ी संख्या में बच्चे हर साल आत्महत्या जैसे कर्म कर रहे हैं।

                                                            

यदि हम निजी स्कूलों में सुविधाओं की बात करें तो मुश्किल से 5 प्रतिशत स्कूलों में ही खेल का मैदान उपलब्ध हो पाते है। ऐसे में, इंडोर गेम खेलकर बच्चे शारीरिक रूप से कितने फिट रहेंगे?

अमूमन, निजी स्कूलों में न तो कोई लाइब्रेरी ही होती है और न ही फर्स्ट एड की व्यवस्था। आजकल निजी स्कूलों में बच्चों को विभिन्न मुद्दों पर परामर्श देने के लिए काउन्सलर भी रखा जा रहा है, लेकिन इनकी उपयोगिता भी सवालों के घेरे में हैं। कुछ स्कूलों में तो आज भी ड्रग्स और पॉर्न का बाजार भी फल फूल रहा है।

नर्सरी कक्षा से ही निजी स्कूलों में अभिभावकों से 1 से 15 लाख रुपए सालाना फीस की वसूली की जा रही है। बस का चार्ज अलग से लिया जा रहा है। आर्ट व क्राफ्ट एवं अन्य गतिविधियों के नाम पर अभिभावकों को पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। बावजूद इसके स्कूलों में अभिभावकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता है।

‘‘यूडीआईएसई की एक रिपोर्ट के अनुसार 2022 में भारत में स्कूलों की संख्या 14,08,115 थी, निजी स्कूलों की संख्या लगभग 3.40 लाख थी। भले ही सरकारी स्कूलों की संख्या ज्यादा है, लेकिन आर्थिक रूप से सबल अभिभावक रू बच्चे को अंग्रेजी में शिक्षा दिलाना चाहते हैं।’’

निजी स्कूलों में बच्चों से मोटी फीस तो जरूर वसूल की जा रही है, लेकिन ऐसे अधिकांश स्कूलों में शिक्षा का स्तर दोयम दर्जे का ही होता है। कई निजी स्कूलों की हालत सरकारी स्कूलों से भी बदतर है। निजी स्कूलों में शिक्षकों का वेतन कम होने के कारण ज्ञानहीन शिक्षक अध्यापन का काम कर रहे हैं, जो बच्चों को पढ़ाने की कला से अनभिज्ञ ही होते हैं, क्योंकि वे प्रशिक्षित नहीं होते हैं। दरअसल, बेरोजगारी की वजह से युवा कम वेतन में भी स्कूल में पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन आमतौर पर उनके घर की जरूरतें उस मिलने वाले वेतन से पूरी नहीं हो पाती है, जिसके कारण उन्हें ट्यूशन पढ़ाना पड़ता है।

                                                                              

ट्यूशन के लिए स्कूल के बच्चों के अभिभावकों को राजी करना सबसे आसान होता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बच्चों को स्कूल में सम्बन्धित बच्चे को इस तरह से पढ़ाया जाता है कि विषय की सामग्री उन्हें समझ में नहीं आये। साथ ही, वार्षिक परीक्षा में आंतरिक मूल्यांकन परीक्षाओं, परियोजनाओं, अतिरिक्त गतिविधियों में 20 में से 20 नंबर उन्हीं बच्चों को दिया जाता है, जो ट्यूशन पढ़ते हैं।

यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं होती है और शिक्षकों द्वारा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता है। अकूत धन कमाने की चाहत की वजह से एक कक्षा में 40 से 50 बच्चों को पढ़ाया जाता है, जिसमें कुशाग्र बुद्धि वाले बच्चों की संख्या बामुश्किल 4 से 5 होती है। शिक्षक कक्षा में सिर्फ तेज बच्चों के तरफ ही ध्यान देते हैं, जिसके कारण अधिकांश बच्चों को संकल्पनाएं विषय के बारे में स्पष्ट ही नहीं हो पाती है। हालांकि, यह भी अपने आप सच है कि अगर स्कूल में शिक्षक समुचित तरीके से पढ़ाएंगे तो बच्चों को ट्यूशन पढ़ने की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी।

मौजूदा समय में पेन, पेंसिल, कॉपी, स्कूल बैग, जूते, मोजे, ड्रेस, किताब हर चीज की खरीदगी में स्कूल कमीशन ले रहा है। अभिभावकों को यह सब एक खास दुकान से खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, ताकि हर सामान पर उन्हें कमीशन मिल सके। निजी स्कूलों में किताबों को एमआरपी पर बेचने का ढोंग किया जाता है, क्योंकि उनकी एमआरपी उनकी वास्तविक कीमत से कई गुना अधिक होती है।

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फोर्मेशन सिस्टम फॉर एडुकेशन (यूडीआईएसई) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में कुल स्कूलों की संख्या 14,08,115 थी, जबकि निजी स्कूलों की संख्या लगभग 3.40 लाख थी। इस प्रकार से देखें तो भले ही सरकारी स्कूलों की संख्या अधिक है, लेकिन आर्थिक रूप से सबल अभिभावक अपने बच्चे को अंग्रेजी में बेहतर शिक्षा मिले, वे संचार कौशल में प्रवीणता हासिल करें आदि के लिए उन्हें निजी स्कूलों में दाखिला करवाते हैं।

इस श्रेणी में वैसे अभिभावक भी शामिल हैं, जो आर्थिक रूप से इतने मजबूत नहीं है, क्योंकि उन्हें लगता है कि निजी स्कूल में पढ़कर उनके बच्चे आत्मनिर्भर बन जाएंगे। निजी स्कूल, अभिभावकों की इस कमजोरी को अच्छी तरह से समझ चुके हैं। वे जान गए हैं कि अभिभावक अपने बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसलिए, निजी स्कूल के शिक्षक और प्रबंधन अभिभावक से पैसे वसूलने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं।

समग्रता में कहें तो अधिकांश निजी स्कूलों के शिक्षकों के ज्ञान का स्तर औसत होता है, क्योंकि योग्य शिक्षक कम वेतन मिलने की वजह से निजी स्कूल में पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं। स्कूल अधिक आय अर्जित करने के लिए शिक्षकों के वेतन के मद में ज्यादा पैसे खर्च करना नहीं चाहते हैं। देश की हिंदी पट्टियों में अभी भी अंग्रेजी का प्रभामंडल बहुत ही ज्यादा प्रकाशमान है। इसलिए आमजन अपने बच्चों को अंग्रेजी में प्रवीण बनाने और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व विकास हेतु निजी स्कूलों द्वारा दिखाये जा रहे सब्जबाग में आसानी से फंस जाते हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।