स्वच्छ आबोहवा के लिए तरसते हुए शहर

                       स्वच्छ आबोहवा के लिए तरसते हुए शहर

                                                                                                                                                                                   डॉ0 आर. एस. सेंगर

                                                               

पर्यावरण वह जूं है, जो राजनीति के कान पर कभी रेंग ही नहीं पाती। पिछले तीन दशकों से यह साफ है कि हमारे शहरों की हवा अब सांस लेने लायक ही नहीं है। मगर राजनीति इस समस्या को नजरंदाज करने के नित नए तरीके ढूंढ़ती रहती है। इसलिए यह माना जा सकता है कि हालिया रिपोर्टाें का भी इस पर शायद ही असर हो सकेगा। इसके सम्बन्ध में सबसे पहले चर्चा विश्व मौसम विज्ञान संस्थान की एक रिपोर्ट की, जिसके अनुसार, पिछले साल मार्च से लेकर इस वर्ष फरवरी तक वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री की सीमा से ऊपर बना रहा। रिपोर्ट कहती है कि न केवल बीता वर्ष, बल्कि पूरा दशक धरती का सबसे गरम रहा है। इसी तरह स्विस संगठन ’आईक्यू एयर’ की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे प्रदूषित देश है। दस सबसे प्रदूषित शहरों में नौ भारत के हैं, जबकि शीर्ष 100 में से 83 के सामने भारतीय झंडा लगा है।

चूंकि, इस स्विस कंपनी का व्यापार घरेलू हवा को साफ रखने के यंत्र बेचना है, तो हो सकता है कि कुछ लोगों को इसमें भारत की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र दिखे। मगर ऐसा करना आत्मघाती होगा। कंपनी ने सरकारों द्वारा जारी आंकड़ों को संजोया भर है। यह रिपोर्ट कार्ड हमारा अपना तैयार किया हुआ है, वह तो इसे केवल वैश्विक संदर्भ में हमारे सामने रख है। इससे बचने का एक तरीका हो सकता है कि वायु प्रदूषण को जांचा ही न जाए, या फिर उसके आंकड़े सार्वजनिक न किए जाएं। क्या पता, ऐसा करने से देश की छवि थोड़ी-बहुत बच जाए। मगर उसके लिए हमें अपने लोगों के स्वास्थ्य की बलि चढ़ानी होगी।

                                                   

यह कठिन नहीं है। स्वास्थ्य और चिकित्सा का हमारा तंत्र धन पर आधारित है। धनवान लोग अपने घर में पानी और हवा को स्वच्छ रखने वाले यंत्र लगा सकते हैं। उनका भोजन और रहन-सहन ऐसा होता है, जिसमें कई खतरे कम हो जाते हैं। जब वे बीमार पड़ते हैं, तब चिकित्सा सुविधाएं भी उन्हें मिल जाती हैं।

पिछले दो सौ सालों में औद्योगिक क्रांति के औजारों ने प्रदूषण

कोई रिपोर्ट उसके झूठ को उजागर कर ही देती है। औद्योगिक क्रांति और आर्थिक विकास के इतिहास का सच नकारे बिना राजनीति की दाल गल ही नहीं सकती। हवा के इस प्रदूषण को हमने इतना अधिक बढ़ा दिया है कि उसका जहर अब हमारी प्रत्येक सांस के साथ हमारे शरीर में जा रहा है और भोजन के हर निवाले में उसका विष है। वनों को काटकर हमने पहले ही मुसीबत मोल ले रखी है।

धन तो हमारी आबादी के एक छोटे से हिस्से के पास ही है और बाकी लोगों की चिंताएं रोजगार और दैनिक संघर्ष पर ही आकर रुक जाती हैं। बरसों से यह सुनने में आ रहा है कि एक बार देश गरीबी के चक्रव्यूह से निकल जाए, औद्योगिक और आर्थिक विकास की सीढ़ी चढ़ ले, तो उसके बाद पर्यावरण को भी साफ कर ही लेंगे। जलवायु बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण हमारी यही मानसिकता है। हवा, पानी और मिट्टी, जंगल के सवाल अब राजनीति में गौण होते जा रहे हैं। इनको उन लोगों की चिंता मान लिया जाता है, जो अव्यावहारिक हैं, और जो देश के विकास में बाधाएं डाल रहे हैं।

हमारे समय का सबसे बड़ा धर्म विकास बन चुका है। चाहे जो भी राजनीतिक दल हो, उसकी चुनावी राजनीति किसी भी नारे पर चलती हो, विकास पर सर्वसम्मति है। विकास का मतलब भी एक ही है। विकसित वही है, जो दूसरों से अधिक साधनों का उपयोग अथवा उपभोग कर सकता है। इन साधनों का मूल्य अर्थशास्त्री ही तय करते हैं, उन मूल्यों को रोकड़े के गणित में तब्दील करते हैं। इसका प्रभाव अब सर्वव्यापी हो गया है। हमारे सारे मूल्य अर्थशास्त्र से ही आने लगे हैं।

हर चीज का मूल्य मुद्रा के रूप में बिकाऊ है और जिन लोगों के सभी मूल्य बिकाऊ होते हैं, वे लोग भी विकाऊ ही हो जाते हैं। यही है हमारे इस विकास की सच्चाई।

                                                                  

चूंकि यह सच्चाई कड़वी है, इसलिए इसकी चर्चा करना भी अपने आप में एक बड़ी असुविधा है। अगर किसी मजबूरी में इसकी बात करनी ही पड़े, तो उसे आदर्शवादी जामा पहनाया जाता है। नैतिकता से अटे संदेश बांटे जाते हैं। एक बेहतर भविष्य का सपना बेचा जाता है। इस सपने में विकास के विकराल रूप को आकर्षक विशेषणों के साबुन से साफ करके पेश किया जाता है। सतत विकास, हरित विकास, टिकाऊ विकास इन विशेषणों का उपयोग कर विकास के बिकाऊ मूल्यों को छिपाने के लिए ही होता है। किंतु नैतिकता की फटी चादर विकास की हर अवधारणा का बाजारूपन हमेशा छिपा नहीं सकती।

कोई-न-कोई खनिज निकालना, पवित्र नदियों पर बांध बनाकर उनका पानी निचोड़ना, उनमें अपना अपशिष्ट पदार्थ डालना, खेतिहर जमीन को बंजर बनाना, वन्य प्राणियों का जड़ मूल मिटा देना। प्रकृति के साधनों को डकारकर कचरा पैदा करना विकास का स्वभाव शुरू से ही रहा है। जो देश की इस विध्वंसक अमीरी को साथ लेते हैं, वे खुद को साफ कर लेते हैं।

पिछले दो सौ सालों में औद्योगिक क्रांति के औजारों ने इसे इतना अधिक बढ़ा दिया है कि अब पर्यावरण का विनाश चारों और व्याप्त हो चुका है। उसका जहर हर सांस के साथ हमारे भीतर जाता है, भोजन के हर निवाले में उसका विष है। इसे ठीक करने में राजनीति को कोई लाभ नहीं दिखता। वह सिर्फ अगले चुनाव तक ही देखती है। सत्य और दूरदृष्टि की उसे कोई जरूरत नहीं लगती।

इसी कारण राजनीति में मोहनदास करमचंद गांधी को नैतिकता का प्रतीक बनाकर किनारे रखा गया है। गांधी उन विरल लोगों में थे, जिन्होंने यह खतरा बहुत पहले ही देख लिया था। औद्योगिक विकास, साम्राज्यवाद और गुलामी का संबंध उन्होंने अपनी चालीस की उम्र तक ही समझ लिया था। उन्होंने वर्ष 1928 में कहा था, ईश्वर न करे कि भारत कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे-से द्वीप (इंग्लैंड) का आर्थिक साम्राज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। तब 30 करोड़ की आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया, तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भांति छा जाएगा और उसे तबाह कर देगा।

उस समय मात्र तीस करोड़ का देश आज 140 करोड़ का हो चुका है, जिसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश की आबादी अलग है। ऐसे में, कोई अचरज नहीं कि आज दुनिया के 100 सबसे प्रदूषित हवा वाले नगरों में 83 भारत में ही हैं। यह भारत की छवि बिगाड़ने का कोई षड्यंत्र नहीं है। यह भारत को बिगाड़ने का षड्यंत्र है। इसका नाम है विकास जब तक इस विकराल राक्षस की सच्चाई नहीं स्वीकार की जाएगी, तब तक हम अपने आधार का विनाश ही करते रहेंगे। विकास ही आज का सबसे बड़ा अंधविश्वास है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।