पर्यावरण की मित्र होती है चुलबुली गौरैया

                      पर्यावरण की मित्र होती है चुलबुली गौरैया

                                                                                                                                        डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

हमारी सोच अब धीरे-धीरे बदलने लगी है। अब हम पहले की अपेक्षा प्रकृति और जीव जंतुओं के प्रति थोड़ा अधिक मित्रवत भाव रखने लगे हैं। अपने घर की टेरिश पक्षियों के लिए दाना-पानी डालने लगे हैं। गौरया के प्रति भी अब हम फ्रेंडली हो चले हैं। किचन गार्डन और घर की बालकनी में भी कृत्रिम घोंसला लगाने लगे। गौरैया धीरे हमारे आसपास आने लगी है। उसकी चीं-चो की आवाज हमारे घर आंगन में भी अब सुनाई पड़ने लगी है। गौरैया संरक्षण को लेकर ग्लोबल स्तर पर सकारात्मक बदलाव आया है यह सुखद तो है परन्तु अभी भी यह नाकाफी है।

                                                                   

हमें प्रकृति से संतुलन बनाना ही चाहिए। हम प्रकृति और पशु-पक्षियों के साथ मिलकर एक सुंदर प्राकृतिक वातावरण तैयार कर सकते हैं। जिन पशु पक्षियों को हम अनुपयोगी समझते हैं वह हमारे लिए प्राकृतिक पर्यावरण को संरक्षित करने में अच्छी खासी भूमिका निभाते हैं, लेकिन हमें इसका ज्ञान नहीं होता। गौरैया भी ऐसी ही हमारी एक प्राकृतिक पर्यावरण मित्र है और पर्यावरण में सहायक है। गौरैया प्राकृतिक सहचरी है। कभी वह नीम के पेड़ के नीचे फुदकती और चावल या अनाज के दाने को चुगती है। कभी घर की दीवार पर लगे आईने पर अपनी हमशक्ल पर चोंच मारती दिख जाती।

एक वक्त था जब बबूल के पेड़ पर सैकड़ों की संख्या में घोंसले लटके होते थे, लेकिन वक्त के साथ गौरैया एक कहानी बन गई। हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरूकता के चलते हाल के सालों में वह फिर से दिखाई देने लगी है। गौरैया इंसान की सच्ची दोस्त भी है और पर्यावरण संरक्षण में उसकी खासी भूमिका भी है दुनिया भर में 20 मार्च गौरैया संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

‘‘देश की खेती-किसानी में रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग बेजुबान पक्षियों और गौरैया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। केमिकल युक्त रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से कीड़े-मकोड़े भी विलुप्त हो चले हैं। जिनमें गिद्ध, कौवा, महोख, कठफोड़वा, कौवा और गौरैया आदि शामिल हैं।’’

                                                             

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गौरैया संरक्षण के लिए लोगों से पहल कर चुके हैं। उन्होंने राज्यसभा सदस्य बृजलाल के प्रयासों को ट्वीटर पर खूब सराहा था और कहा कि गौरैया संरक्षण को लेकर आपका प्रयास बेहतरीन और प्रशंसा करने के योग्य है। राज्यसभा सदस्य बृजलाल ने अपने घर में गौरैया संरक्षण को लेकर काफी अच्छे उपाय किए हुए हैं। उन्होंने गौरैया के लिए दाना पानी और घोंसले की व्यवस्था की है। जंगल में आजकल पंच सितारा संस्कृति विस्तार ले रही है।

प्रकृति के सुंदर स्थान को भी इंसान कमाने का जरिया बना लिया है। जिसकी वजह पशु पक्षियों के लिए खतरा बन गया है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् मोहम्मद ई. दिलावर के प्रयासों से 20 मार्च को चुलबुली गौरैया के लिए निर्धारित किया गया है। वर्ष 2010 में पहली बार यह दिन पूरी दुनिया में मनाया गया। गौरैया का संरक्षण हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इन्सान की भोगवादी संस्कृति ने हमें प्रकृति और उसके साहचर्य से दूर कर दिया है। गौरैया एक घरेलू और पालतू पक्षी है। वह इंसान और उसकी बस्ती के आसपास रहना ही अधिक पसंद करती है। पूर्वी एशिया में यह बहुतायत पायी जाती है। यह अधिक वजनी नहीं होती। इसका जीवनकाल दो साल का होता है। यह पांच से छह अंडे देती है।

भारत की आंध्र यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में गौरैया की आबादी में 60 फीसदी से अधिक की कमी बताई गई है। ब्रिटेन को रॉयल सोसाइटी आफ प्रोटेक्शन आफ बर्ड्स ने इस चुलबुले और चंचल पक्षी को रेड लिस्ट में डाल दिया है। दुनिया भर में ग्रामीण और शहरी इलाकों में गौरैया को आबादी काफी कम हुई है। गौरैया की घटती आबादी के पीछे मानव विकास सबसे अधिक जिम्मेदार है। गौरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है लेकिन इसे वीवरपिंच परिवार का भी सदस्य माना जाता है।

इसकी लंबाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है। इसका वजन 25 से 35 ग्राम तक होता है। यह अधिकांश झुंड में रहती है। यह अधिकतम दो मील की दूरी तय कर सकती है। मानव जहां-जहां गया, गौरैया उसका हमसफर बनकर उसके साथ गयी। गांवों में भी अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। जिसके कारण मकानों में गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल पा रही है। पहले गांवों में कच्चे मकान बनाए जाते थे। उसमें लकड़ी और दूसरी वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता था। कच्चे मकान गौरिया के लिए प्राकृतिक वातावरण और तापमान के लिहाज से अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराते थे, लेकिन आधुनिक मकानों में यह सुविधा अब उसे उपलब्ध नहीं होती है।

यह पक्षी अधिक तापमान में नहीं रह सकता। देश को खेती-किसानी में रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग बेजुबान पक्षियों और गौरैया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है केमिकल युक्त रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से कोड़े-मकोड़े भी विलुप्त हो चले हैं जिनमें गिद्ध, कौवा, महोख, कठफोड़वा, कौवा और गौरैया शामिल हैं। इसके साथ ही इनके लिए भोजन का भी संकट खड़ा हो गया है।

                                                                      

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् मोहम्मद ई. दिलावर नासिक से हैं और वह बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े रहे हैं। उन्होंने यह मुहिम वर्ष 2008 से शुरू की थी। आज यह दुनिया के 50 से अधिक देशों तक पहुंच चुकी है। दिलावर के विचार में गौरैया संरक्षण के लिए लकड़ी के बुरादे से छोटे-छोटे घर बनाए जाएं और उसमें खाने को भी सुविधा भी उपलब्ध करानी चाहिए। घोंसले सुरक्षित स्थान पर हों, जिससे गौरैयों के अंडों और चूजों को हिंसक पक्षी और जानवर शिकार न बना सकें। हमें प्रकृति और जीव-जंतुओं के सरोकार से लोगों को परिचित कराना होगा। आने वाली पीढ़ी तकनीकी ज्ञान अधिक हासिल करना चाहती है, लेकिन पशु-पक्षियों से वह जुड़ना नहीं चाहती है। इसलिए हमें पक्षियों के बारे में जानकारी दिलाने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए जिससे हम अपनी पर्यावरण दोस्त को उचित माहौल दे पाने में समर्थ हो।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।