उड़द की उन्नत खेती

                                   उड़द की उन्नत खेती

                                                                                                                                              डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृषाणु सिंह

                                                                            

उड़द एक दलहनी फसल है, उड़द को वार्षिक आय बढ़ाने वाली फसल भी कहा जाता है, जिसकी खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा के सिंचित क्षेत्रों में की जाती है। यह एक अल्प अवधि की फसल है जो लगभग 60-65 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके खेती के लिए जायद का मौसम सबसे उपयुक्त होता है। इसके दाने में लगभग 60 प्रतिशत कार्बाेहाइड्रेट 241 प्रतिशत प्रोटीन तथा 1.3 प्रतिशत वसा उपलब्ध पायी जाती है।

उड़द का उपयोग प्रमुख रूप से दाल के रूप मे किया जाता है। उड़द से अन्य स्वादिष्ट व्यंजन जैसे कचौड़ी, पापड, बड़ी, बड़े, हलवा, इमरती, पूरी, इडली, डोसा आदि भी तैयार किये जाते हैं। इसकी दाल की भूसी पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती है। उड़द के हरे एवं सूखे पौधो को पशु बहुत चाव से खाते है।

उड़द दलहनी फसल होने के कारण वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके भूमि की उर्वरा शक्ति में बढ़ोत्तरी करती है। इसके अतिरिक्त उड़द की फली तुड़ाई के उपरान्त फसलों की पत्तियाँ एवं जड़ों के अवशेष मृदा में रह जाने के कारण भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है। हरी खाद के रूप में भी उड़द की फसल का उपयोग किया जा सकता है।

उड़द की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु एवं तापक्रम

उड़द की खेती के लिए सबसे उपयुक्त उष्ण जलवायु मानी जाती है, क्योंकि उड़द की फसल उच्च तापक्रम को सहन करने में पूरी तरह से सक्षम होती है और यही कारण है कि इसकी खेती सबसे अधिक उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में की जाती है। सामान्यतया 25 से 35 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान इसकी खेती के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है. हालांकि, उड़द 43 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को भी बड़ी आसानी से सहन कर सकने में सक्षम होती है।

उड़द की खेती के लिए मृदा का चयन एवं खेत की तैयारी

उड़द की खेती के लिए उचित जल निकास वाली हल्की रेतीली दोमट या मध्यम प्रकार की मृदा, जिसका पीएच मान 7-8 के बीच हो ऐसी भूमि उड़द के खेती के लिये सर्वाेत्तम मानी जाती है।

उड़द के खेत की तैयारीः खेत की मिट्टी भारी होने पर उसकी 2 से 3 बार जुताई करना जरूरी होता है, जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए, इससे खेत की मिट्टी में नमी बनी रहती है।

उड़द की उन्नत किस्में

मुख्य रूप से उड़द की दो प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती है, जिनमे से पहली खरीफ के मौसम में उत्पादन हेतु जैसे कि - शेखर-3, आजाद उड़द-3, पन्त उड़द-31, डब्लू. वी. - 108, पन्त यू-30. आई. पी. यू. -94 एवं पी.डी.यू.-1 मुख्य रूप से जानी जाती है, तो वहीं जायद के मौसम में उत्पादन हेतु पन्त यू. 19. पन्त यू-35, टाईप-9, नरेन्द्र उड़द-1, आजाद उड़द-1, उत्तरा, आजाद उड़द-2 एवं शेखर-2 आदि प्रजातियाँ प्रमुख है। कुछ प्रजातियाँ खरीफ एवं जायद दोनों ऋतुओं में उत्पादित की जाती है, इस प्रकार की प्रजातियों में- टाईप-9, नरेन्द्र उड़द- 1, आजाद उड़द-2, शेखर उड़द-21 आदि प्रमुख हैं।

उड़द में बीजोपचार का महत्व

उड़द की बुआई करने से पूर्व प्रयुक्त किए जाने वाले बीज की अंकुरण क्षमता की जांच अवश्य कर लेनी चाहिये, यदि उड़द का बीज उपचारित नहीं किया गया है तो बुवाई के पूर्व बीज को फफूंदी नाशक दवा थीरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से अवश्य उपचारित कर लेना चाहिए।

बीज दर एवं बुवाई

खरीफ के मौसम में बीज दर 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं ग्रीष्म ऋतु में 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की बुआई करनी चाहिए। उड़द की बुवाई खरीफ व जायद दोनों फसलो में अलग-अलग समय पर की जाती है, खरीफ में जुलाई के प्रथम सप्ताह में बुवाई की जाती है एवं जायद में 15 फरवरी से 15 मार्च तक बुवाई की जाती है।

उड़द की फसल में उर्वरकों की मात्रा एवं प्रयोग विधि

उड़द एक दलहनी फसल होने के कारण अधिक नत्रजन की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि उड़द की जड़ में उपस्थित राईजोबियम जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नत्रजन को ग्रहण करते है और पौधो को प्रदान करते है। पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में जब तक जड़ो में नत्रजन इकट्ठा करने वाले जीवाणू ल हो तब तक के लिए 15-20 किग्रा नत्रजन 40-50 किग्रा फास्फोरस इक्टयर की दर से बुवाई के समय मृदा में मिला देते है।

उड़द की फसल में सिंचाई प्रबंधन

खरीफ ऋतु की फसल में वर्षा कम होने पर फलियों के बनते समय एक सिंचाई करने की आवश्यकता पड़ती है तथा जायद की फसल में पहली सिचाई बुवाई के 30-35 दिन बाद करनी चाहिए, इसके बाद मृदा नमी के आवश्यकतानुसार 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।

उड़द की फसल में खरपतवार प्रबंधन

                                                                 

वर्षा ऋतु की उड़द की फसल में खरपतवार का अत्यधिक प्रकोप रहता है, जिससे लगभग 40-50 प्रतिशत उपज में हानि हो सकती है। रसायनिक विधि द्वारा खरपतवार नियन्त्रण के लिए फसल की बुवाई के बाद एवं बीजों के अंकुरण के पूर्व पेन्डिमिथालीन 1.25 किग्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव कर खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।

अगर खरपतवार फसल में उग जाते है तो फसल बुवाई के 15-20 दिनों की अवस्था पर पहली निराई- गुडाई खुरपी की मदद से कर देनी चाहिए तथा पुनः खरपतवार उग जाने पर 15 दिनों के बाद निराई करनी चाहिए।

उड़द की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग एवं नियंत्रण

उड़द की फसल में प्रायः पीले चित्रवर्ण या मोजक रोग लगता है. इसमें रोग के विषाणु सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है, इसकी रोकथाम के लिए समय से बुवाई करना अति आवश्यक है, दूसरा मोजेक अवरोधी प्रजातियों की बुवाई करनी चाहिए। इसके साथ ही साथ मोजैक से ग्रसित पौधे फसल में दिखते ही सावधानी पूर्वक उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए और रसायनों का प्रयोग भी करते हैं, जैसे कि आईमिथोएट 30 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टर या मिथाइल-ओ-डिमेटान 25 ई सी. 1 लीटर प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

पीला मोजेक विषाणु रोग

                                                               

यह उड़द का सामान्य रोग है और वायरस द्वारा फैलता है इसका इसका प्रभाव 4-5 सप्ताह बाद ही दिखाई देने लगता है। इस रोग में सब रंग के धब्बे गोलाकार रूप में दिखाई देने लगते हैं। कुछ ही दिनों में पूरी प अंत में ये पत्तियां सफेद सी होकर सूख जाती है।

नियंत्रण

सफेद मक्खी की रोकथाम से रोग पर नियंत्रण संभव है। इस रोग की प्रतिरोधी किस्म पंत यू-19, पंत यू-30, यू. जी. 218. टी. पी. यू.-4, पंत उड़द- की बुवाई करनी चाहिए।

पत्ती मोड़न रोग

                                                       

    उड़द के इस रोग के लक्षण नई पत्तियों पर हरिमाहीनता के रूप में पत्तियों की मध्य शिराओं पर दिर्खा देते हैं। इस रोग से ग्रस्त पत्तियाँ मध्य शिराओं के ऊपर की और मुड़ जाती हैं और चीने वाली पत्तियाँ अंदर की तरफ मुड़ जाती हैं जिससे पत्तियों की वृद्वि रूक जाती है जिसके फलस्वरूप अंततः पौधें मर जाते हैं।

रोग का नियंत्रण

    यह एक विषाणु जनित रोग है और इस रोग का संचरण थ्रिप्स के माध्यम से होता है। थ्रिप्स के उपचार के लिए सबसे पहले तो फसल बुआई उचित समय पर ही करने से इस रोग का नियंत्रण होता है अन्यथा की स्थिति में ऐसीफेट 75 प्रतिशत, एस.पी. या 2 मिली डाईमैथेएट प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

पत्ती धब्बा रोग

                                                     

    यह रोग फफँूद के माध्यम से फलने वाला एक रोग है, जिसके लक्षण उड़द के पौधों की पत्तियों पर छोट-छोटे धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं।

रोग का नियंत्रण

    पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम कार्बेन्डाजिम का 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। 

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।