जैव उर्वरक का प्रयोग कब और कैसे

                        जैव उर्वरक का प्रयोग कब और कैसे

                                                                                                                                                 डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृषाणु सिंह

जैव उर्वरक विशिष्ट प्रकार के जीवाणुओं का एक विशेष प्रकार के माध्यम, चारकोल, मिट्टी या गोबर की खाद में ऐसा मिश्रण है जो कि वायु मण्डलीय नत्रजन को चागिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है या मिट्टी में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराता है। जैव उर्वरक रसायनिक उर्वरकों का विकल्प तो नहीं है परन्तु पूरक अवश्य है। इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की 1/3 मात्रा तक की बचत हो जाती है।

जैव उर्वरकों का वर्गीकरण:-

                                                       

1.   नाइट्रोजन पूर्ति करने वाले जैव उर्वरक

(अ)  राजोबियम जैव उर्वरक

(ब)  एजोटोवैक्टर

(स)  एजोस्पाइरिलम

(द)  नील हरित शैवाल

2.   फास्फोरसधारी जैव उर्वरक (पी॰एस॰बी॰):-

(अ)  राजोबियम जैव उर्वरक:

यह जीवाणु सभी दलहनी फसलों व तिलहनी फसलों जैसे सोयाबीन और मूंगफली की जड़ों में छोटी-छोटी ग्रन्थियों में पया जाता है जो सह जीवन के रूप में कार्य करे। वायु मण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन को पौधों को उपलब्ध कराता है। राइजोबियम जीवाणु अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग होता है। इसलिए बीज उपचार हेतु उसी फसल का कल्चर प्रयोग करना चाहिए।

(ब)  एजोटो वैक्टर:

यह भी एक प्रकार का जीवाणु है जो भूमि में पौधों की जड़ की सतह पर स्वतंत्र रूप से रहकर आक्सीजन की उपस्थिति में वायुमण्डलीय नत्रजन को अमोनिया में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराता है। इसके प्रयोग से फसलों की उपज में 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि हो जाती है। इसका प्रयोग सभी तिलहनी, अनाजवाली, सब्जी वाली फसलों में किया जा सकता है।

(स)  एजोस्पाइरिलम:

यह भी इस प्रकार का जीवाणु है जो पौधों की जड़ों के पास रहकर, वायु मण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन पौधों को उपलब्ध कराता है। इसका प्रयोग अनाज की चौड़ी पत्ती वाली फसलों जैसे ज्वार, गन्ना तथा बाजरा आदि में किया जाता है।

(द)  नील हरित शैवाल:

                                                  

नील हरित शैवाल जैसे गर्म देशों की क्षारीय तथा उदासीन मिट्टियों में अधिकता से पाई जाती है। इसकी कुछ प्रजातियां वायुमण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करके पौधों को नत्रजन उपलब्ध कराती हैं। नील हरित शैवाल का प्रयोग केवल धान की फसल में किया जा सकता है। रोपाई के 8-10 दिन बाद दस किलोग्राम प्रति हे॰ के हिसाब से खड़ी फसल में छिड़का जाता है। तीन सप्ताह तक खेत में पानी भरा रहना आवश्यक है। इसके प्रयोग से धान की खेती में लगभग 25-30 किग्रा॰ नाइट्रोजन अथवा 50-60 किग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।

फास्फोरसधारी जैव उर्वरक: यह जीवित जीवाणु तथा कुछ कवकों का चारकोल, मिट्टी अथवा गोबर की खाद में मिश्रण है जो मिट्टी में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील सभी प्रकार की फसलों में किया जा सकता है और लगभग 15-20 किग्रा. प्रति है. फास्फोरस की मात्रा की बचत की जा सकती है।

जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि:-

(1) बीज उपचार विधि:-

                                                          

    जैव उर्वरकों के प्रयोग की यह सर्वोत्तम विधि है। 1/2 लीटर पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या गोंद उबालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेते हैं। इस घोल को 10 किग्रा॰ बीज पर छिड़क कर मिला देते हैं जिससे प्रत्येक बीज पर इसकी परत च्ढ़ जाये। तब जैव उर्वरक को छिडक कर मिला दिया जाता है। इसके उपरान्त बीजों को छायादार जगह में सुखा लेते हैं। उपचारित बीजों की बुवाई सूखने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिए।

(2)  पौध जड़ उपचार विधि: धान तथा सब्जी वाली फसलें जिनके पौधों की रोपाई की जाती है जैसे टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, प्याज इत्यादि फसलों में पौधों की जड़ों को जैव उर्वरकों द्वारा उपचारित किया जाता है। इसके लिये किसी चौड़े व छिछले बर्तन में 5-7 लीटर पानी में एक किलोग्राम जैव उर्वरक मिला लेते हैं। इसके उपरान्त नर्सरी से पौधों को उखाड़कर तथा जड़ों से मिट्टी साफ करने के पश्चात् 50-100 पौधों को बण्डल में बांधकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरन्त रोपाई कर देते हैं।

(3)  कन्द उपचार विधि: गन्ना, आलू, अदरक, घुइया जैसे फसलों में जैव उर्वरकों के प्रयोग हेतु कन्दों को उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जैव उर्वरक को 20-30 लीटर घोलकर मिला लेते हैं। इसके उपरान्त कन्दों को 10 मिनट तक घोल में डुबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देते हैं।

(4)  मृदा उपचार विधि: 5-10 किलोग्राम जैव उर्वरक 70-100 किग्रा॰ मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण तैयार करके अन्तिम जुताई पर खेत में मिला देते हैं।

जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां:-

1.   जैव उर्वरक को हमेशा धूप व गर्मता से बचा कर रखना चाहिए।

2.   कल्चर पैकेट उपयोग के समय ही खोलना चाहिए।

3.   कल्चर द्वारा उपचारित बीज, पौधे, मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण छाया में ही रखना चाहिए।

4.   कल्चर प्रयोग करते समय उस पर उत्पादन तिथि, उपयोग की अन्तिम तिथि फसल का नाम आदि अवश्य लिखा देख लेना चाहिए।

5.   निश्चित फसल के लिए अनुमोदित कल्चर का उपयोग करना चाहिए।

जैव उर्वरकों के उपयोग से लाभ:-

                                                 

1.   रासायनिक उर्वरक एवं विदेशी मुद्रा की बचत।

2.   लगभग 25-30 किग्रा॰/हे॰ नाइट्रोजन एवं 15-20 किग्रा॰ प्रति हेक्टर पर फास्फोरस उपलब्ध कराना तथा मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशाओं में सुधार लाना।

3.   विभिन्न फसलों में 15-20 प्रतिशत उपज में वृद्धि करना।

4.   इसके प्रयोग से अंकुरण शीघ्र होता है तथा कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है।

5.   इनके प्रयोग से उपज में वृद्धि के अतिरिक्त गन्ने में शर्करा की तिलहनी फसलों में तेल की तथा मक्का एवं आलू में स्टार्च की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है।

6.   किसानों को आर्थिक लाभ होता है। 

हरी खाद एवं उसकी उपयोगिता:-

                                              

    मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि हेतु पौधों के हरे वानस्पतिक को उसी खेत में उगाकर या दूसरे स्थान से लाकर खेत में मिला देने की क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं।

हरी खाद प्रयोग करने की विधियां:-

1. उसी खेत में उगाई जाने वाली हरी खाद:-

    जिस खेत में खाद देनी होती है, उसी खेत में फसल लगाकर उसे मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर मिट्टी में मिलाकर किया जाता है। इस विधि से हरी खाद तैयार करने के लिए सनई, ढैंचा, ग्वार, मूंग, उर्द आदि फसलें लगाई जाती हैं।

2.   खेत से दूर उगाई जाने वाली हरी खाद:-

    जब फसलें अन्य दूसरे खेतों में उगाई जाती हैं, और वहां से काटकर जिस खेत में हरी खाद देना होता है, उसमें मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर दबा देते हैं। इस विधि में जंगलों या अन्य स्थान पर उगे पेड़-पौधों एवं झाड़ियों की पत्तियों, टहनियों आदि को खेत में मिला दिया जाता है।

3.   हरी खाद हेतु प्रयोग की जाने वाली फसलें सनई, ढैंचा, मूंग, उर्द, मोठ, ग्वार, लोबिया, जंगली नील वरसीम एवं सैंजी आदि।

हरी खाद से लाभ:-

1.   हरी खाद से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा से भौतिक दशा में सुधार होता है।

2.   नाईट्रोजन की वृद्धि हरी खाद के लिये प्रयोग की गई दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रन्थ्यिां होती हैं। जो नत्रजन का स्थरीकरण करती हैं। फलस्वरूप नत्रजन की मात्रा में वृद्धि होती है। एक अनुमान लगाया गया है कि ढैंचा को हरी खाद के रूप में प्रयोग करने से प्रति हैक्टेयर 60 किग्रा. नाइट्रोजन की बचन होती है तथा मृदा के भौतिक रासायनिक तथा जैविक गुणों में वृद्धि होती है, जो टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।