कोरोना के सम्बन्ध में अलग-अलग शब्दावलियाँ

                     कोरोना के सम्बन्ध में अलग-अलग शब्दावलियाँ

                                                                                                                                                                            डॉ0 आर. एस. सेंगर

अल्फा, डेल्टा ने बचाई इज्जत

                                                                      

बीते समय की किसी भी महामारी के दौरान शायद ही नए शब्दों और अवधारणाओं कि इतनी व्यापक आमद विभिन्न भाषाओं में हुई हो, जितनी कि वर्तमान में दिखाई दे रही है। केवल महामारी ही नहीं, बल्कि उससे जुड़े वैज्ञानिक शोध, महामारी के आर्थिक-राजनीतिक पहलुओं और विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीतिक स्थितियों से जुड़े अनेक नए शब्द सामने आए हैं। खास बात यह है कि दूसरी भाषाओं से निकले इन शब्दों को अन्य भाषाओं ने बहुत सहजता से स्वीकार भी किया है।

दुनिया भर में शुरू से ही कोरोना वायरस के लिए चीन को दोषी ठहराया गया और इसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ’चीनी वायरस’ भी कहा था। जैसे-जैसे यह वायरस फैलता गया, इसके अलग अलग स्वरूप (वैरीअंट) सामने आते गए। ब्रिटिश वैरीअंट के बाद अफ्रीकी वैरीअंट भी सामने आया। हालांकि इसके बाद दुनियाभर में इसके इंडियन वैरीअंट की चर्चा भी लगातार हुई।  इंडियन वैरीअंट शब्द के प्रयोग को लेकर भारत ने कड़ी आपत्ति जताई क्योंकि डब्ल्यूएचओ की कोरोना शब्दावली में ’इंडियन वैरीअंट’ संज्ञा को स्वीकार नहीं किया गया है। फिर भी यह शब्द चल निकला और आज भारत ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड में कोरोना की तीसरी लहर के लिए इसी इंडियन वैरीअंट को जिम्मेदार बताया जा रहा है।

                                                                 

इसी दौरान सिंगापुर में बच्चों में कोरोना संक्रमण के मामले सामने आए तो इसे सिंगापुर वैरीअंट नाम दे दिया गया। इसी को ध्यान में रखकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिंगापुर से भारत आने वाली फ्लाइटों पर रोक लगाने की बात कही तो सिंगापुर सरकार द्वारा ’सिंगापुर वैरीअंट’ शब्द का इस्तेमाल किए पर कड़ी नाराजगी व्यक्त की गई। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चाहे चीनी वायरस की बात हो या ब्रिटिश, इंडियन, सिंगापुर अथवा अफ्रीकन वैरीअंट, कोई भी सरकार नहीं चाहती कि इन शब्दों का प्रचलन उनके देश अथवा महाद्वीप के नाम पर चर्चा में आए।

विभिन्न देशों के विरोध के बीच डब्लूएचओ ने भारत, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका समेत दूसरे देशों में पाये जाने वाले कोरोना वैरीअंट के लिए नामों का निर्धारण कर दिया है। इनका नाम रखने के लिए ग्रीक भाषा के अक्षरों का इस्तेमाल किया है। इसी नियम के तहत, भारत में पाये गए ठ.1.617.1 को कप्पा और ठ.1.617.2 को डेल्टा कहा जाएगा। इस निर्णय के बाद भारत सरकार ने राहत की सांस ली है क्योंकि इंडियन वैरीअंट शब्द का प्रयोग देश की छवि के लिए एक बुरा उदाहरण सामने आता।

                                                                    

भारत के अलावा अन्य देशों के वायरस-स्वरूपों के नाम भी तय कर दिए गए हैं। ब्रिटेन में पाये गए  वैरीअंट को अल्फा और दक्षिण अफ़्रीका के वैरीअंट को बीटा नाम दिया गया है। डब्लूएचओ की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि ये फ़ैसला लोगों के बीच बातचीत को आसान बनाने के लिए किया गया है और इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि किसी देश नाम के साथ किसी भी वायरस के नाम को ना जोड़ा जाए।

गौरतलब है कि इस मामले में भारत सरकार ने शुरू से ही कड़ा रुख अपनाया हुआ था। विगत 22 मई को सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर सोशल मीडिया कंपनियों को निर्देश दिया था कि कंपनियाँ अपने प्लेटफॉर्म से वो सारा कंटेंट हटाएं, जिनमें कोरोना वायरस को ’इंडियन वैरीअंट’ कहा गया है। फिलहाल, यह मामला भारत के हक में निस्तारित हो गया है, लेकिन इस बीच वियतनाम में एक और वैरीअंट सामने आया, जो भारत और ब्रिटेन में पाए गए वैरीअंट से मिलकर बना है। अब, देखना है कि इसका नाम कब तक तय होता है।

वैसे, इनकी संख्या बढ़ी तो तब एक चुनौती पैदा होगी। यदि दुनिया भर में 24 से अधिक कोरोना वैरीअंट मिल जाते हैं, तो ग्रीक अक्षर भी कम पड़ जाएंगे। ऐसी स्थिति में नामकरण के लिए नई पद्धति और व्यवस्था लागू करनी होगी।

यहां उल्लेखनीय बात यह है कि किसी भी वायरस और वैरीअंट का वैज्ञानिक नाम नहीं बदला गया है, बल्कि आम लोगों की सुविधा के लिए इन वैरीअंट को ग्रीक अक्षरों के आधार पर नए नाम दिए गए हैं। विभिन्न वैज्ञानिक चिन्हों और प्रतीकों के लिए ग्रीक अक्षरों के प्रयोग की बात कोई नई नहीं है। पूर्व में भी अल्फा, बीटा, गामा, थीटा आदि नामों का विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता रहा है।

वैसे, आम लोगों के लिए इन शब्दों के तकनीकी पहलुओं का कोई विशेष अर्थ नहीं है। वे तो कोरोना और कोविड में उसी तरह से कोई अंतर नहीं कर पाते जैसे कि एचआईवी और एड्स में उनके लिए कोई अंतर नहीं है। वस्तुतः बीमारियों के वैज्ञानिक नामों की उपयोगिता वैज्ञानिक अध्ययन में तो होती है, लेकिन आम लोगों द्वारा प्रायः पॉपुलर नाम (शब्द) ही इस्तेमाल किए जाते हैं। उदाहरण के लिए कोरोना के बाद सामने आए ब्लैक फंगस, येलो फंगस और व्हाइट फंगस को ही ले लीजिए।

                                                            

बीबीसी हिंदी ने अपने पोर्टल पर एक रिपोर्ट में लिखा, “फंगल इंफेक्शन के लिए कई शब्द इस्तेमाल किए जा रहे हैं, लेकिन ये सब भ्रामक हैं, जिनसे उलझन पैदा हो जाती है। वास्तव में फंगस अलग-अलग अंगों पर अलग रंग का प्रभाव छोड़ सकता है। जिसे ब्लैक फंगस, येलो फंगस और व्हाइट फंगस कहा जा रहा है, जबकि ये एक ही फंगस के नाम हैं।“ यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि जब आम लोग किसी बीमारी में अंतर करते हैं तो उनके लिए म्यूकरमाइकोसिस के स्थान पर ब्लैक, व्हाइट और येलो फंगस सहजता से प्रचलन में आ जाते हैं। यही बात किसी भी भाषा को आगे बढ़ाती है और उसकी सम्प्रेषणीयता को प्रभावी बनाती है।

इन दिनों कुछ अन्य शब्द और शब्द-समूह भी चर्चा में हैं। अब ’कांसीपिरेसी-थ्योरी’ के साथ-साथ ’लैब लीक थ्योरी’ भी चर्चा में आ गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी खुफिया एजेंसियों को निर्देश दिया है कि वे 90 दिन के भीतर पता लगाएं कि कोरोना वायरस चीन की प्रयोगशालाओं से तो नहीं निकला है। इसी मुहिम को लैब लीक थ्योरी के रूप में पहचाना जा रहा है।

कोरोना के इलाज के लिए अब हर रोज नई-नई दवाई सामने आ रही हैं। शराब के शौकीन लोगों में कॉकटेल शब्द खूब चलन में रहता है, लेकिन ज्यादातर लोगों ने ’एंटीबॉडी कॉकटेल’ शब्द पहली बार सुना होगा। इसे भले ही पहली बार सुना गया है, लेकिन यह भविष्य में लंबे समय तक चलन में रहेगा।

जब हम भाषा के संदर्भ में बात करते हैं तो यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस वक्त प्रयोग किए जा रहे ज्यादातर शब्द पहले से ही मौजूद थे या होते हैं। बस, उन्हें नए संदर्भों में प्रयोग किए जाने से उनमें एक खास तरह की नूतनता दिखाई देने लगती है। उदाहरण के लिए विगत डेढ़ वर्ष में भारत में लगभग सभी भाषाओं में कोरोना वॉरियर्स और फ्रंटलाइन वर्कर शब्दों का प्रयोग हो रहा है। इतिहास में देखें तो अब से लगभग 75 साल पहले साइप्रस में मलेरिया पर नियंत्रण के लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई।

साइप्रस के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक अजीज की टीम में जो लोग शामिल थे, उन्हें ’फ्रंटलाइन फाइटर्स’ कहां गया था। अब ये फ्रंटलाइन फाइटर्स नए रूप में फ्रंटलाइन वॉरियर्स और फ्रंटलाइन वर्कर्स बनकर सामने मौजूद हैं।

                                                                  

कोरोना के साथ विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में भी खींचतान का दौर चल रहा है। ऐसा ही नजारा भारत में भी यदा-कदा देखने को मिलता रहता है। पिछले दिनों, मई में भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने एक ’वर्चुअल टूलकिट’ सामने रखी और आरोप लगाया कि कांग्रेस मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए इस टूलकिट का इस्तेमाल कर रही है।

इस टूलकिट में कुछ शब्दों का जिक्र किया गया, उसमें सुपर-स्प्रेडर कुंभ, मोदी स्ट्रेन, मोविड (कोविड के समानांतर)  हैप्पी सोशल गैदरिंग जैसे शब्द सामने आए। इस प्रकरण के बाद ट्विटर ने एक आधिकारिक बयान में कहा की यह सारी चीजें ’मेनूप्लेटेड मीडिया’ का हिस्सा हैं। यहां इन शब्दों को देखिए, सामान्यतौर जब टूलकिट की बात करते हैं तो हमारे सामने कुछ तकनीकी औजार होते हैं, लेकिन वर्चुअल टूलकिट का अर्थ कुछ और है। यहां कुछ विशेष प्रकार के शब्द, विशेष प्रकार की वाक्य और उन्हें प्रयोग करने की पद्धति के एक पैकेज को टूलकिट कहा गया है।

संबित पात्रा ने आरोप लगाया कि इस टूलकिट को भाजपा को बदनाम करने के लिए कांग्रेस ने तैयार कराया है। इसीलिए इस टूलकिट में कुंभ को ’सुपर स्प्रेडर’ और ईद को ’हैप्पी सोशल गैदरिंग’ की तरह पेश किया गया है। प्रधानमंत्री को बदनाम करने के लिए उनके नाम के साथ जोड़कर ’मोदी स्ट्रेन’ शब्द लिखा गया। इसी को स्पष्ट करते हुए ट्विटर ने इन सारी सूचनाओं को ’मेनूप्लेटेड मीडिया’ का नाम दिया  यानी ये सूचनाएं सच्ची नहीं हैं, बल्कि किसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर गढ़ी गयी हैं।

विगत महीनों में सामने आए इन शब्दों को ज्यादातर भाषाओं ने ज्यों का त्यों स्वीकार किया है। बहुत विशेष परिस्थितियों को छोड़ दें तो शायद ही कहीं पर इनके अनुवाद का प्रयास किया गया हो। और यदि अनुवाद किया भी गया है तो वह मूल भाषा के शब्दों जैसा प्रभावी नहीं हो पाया है। मसलन, लॉकडाउन के लिए ’तालाबन्दी’ शब्द लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ सका है। इसी तरह वैरीअंट का हिंदी अनुवाद ’स्वरूप’ भी चलन में नहीं आ सका है। कोई अतिरिक्त उत्साही व्यक्ति कांसीपिरेसी-थ्योरी को ’षड्यंत्र-सिद्धांत’ कहना चाहे तो वो बात अलग है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।