पोषक आहार ना खाने से विश्व में बढ़ रहे हैं टाइप टू डायबिटीज के मरीज

                                                       पोषक आहार ना खाने से विश्व में बढ़ रहे हैं टाइप टू डायबिटीज के मरीज

                                                                                                                                                                     डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

एक ताजा अध्ययन में पाया गया है कि भोजन में साबुत अनाज जैसे पोषक आहार ना होने से वर्ष 2018 में टाइप टू डायबिटीज के 1.41 करोड़ से अधिक मामले पाए गए, यह वैश्विक स्तर पर नए मामलों में 70% से अधिक का प्रतिनिधित्व करता है। शोध का निष्कर्ष जनरल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है।

अध्ययन में 1990 से 2018 के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया हैए इस से पता चला है कि कौन से आहार कारक में टाइप टू डायबिटीज के मरीज बढ़ा रहे हैं। अध्ययन में 30 सबसे अधिक आबादी वाले देशों में भारतए नाइजीरिया और इंडोनेशिया में अस्वस्थ कर भोजन से संबंधित टाइप टू डायबिटीज के सबसे कम मामले थे।

जिन 11 आहार कारकों पर विचार किया गया उनमें से तीन का टाइप टू डायबिटीज की बढ़ती वैश्विक घटनाओं में बहुत बड़ा योगदान था। इनमें साबुत अनाज का पर्याप्त सेवन रिफाइंड चावल और गेहूं की अधिकता और प्रसंस्कृत मांस का अधिक सेवन आदि।

शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाया जाए संस्कार का पाठ

किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था उस देश के नागरिकों के व्यवहार और दायित्व भावना की रूपरेखा तैयार करती है और इस त्रिकोणीय व्यवस्था को राष्ट्रीय संस्कार बोध भी कहा जा सकता है। भारत सरकार द्वारा निरूपित नई शिक्षा नीति 2020 में संस्कार-गत शिक्षा पर जोर दिया गया है।

यह अनुभव किया गया है कि यदि शिक्षा संस्कारहीन और चरित्रहीन है, तो यह निश्चित है कि इससे कोई भी देश प्रगति नही कर सकता क्योंकि किसी भी देश की क्षमताओं को सुरक्षित रखने तथा राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के लिए संस्कार-गत शिक्षा बहुत ही आवश्यक है। शिक्षा में संस्कारों को प्रारूप क्या होगा और संस्कारों को किन-किन मानकों के आधार पर परिभाषित किया जाए, इस विषय पर शिक्षाविदों के अलग-अलग निष्कर्ष हो सकते हैं, लेकिन मूल मुद्दे की दृष्टि से देखा जाए तो शिक्षा में संस्कारों शामिल होना एक बहुआयामी प्रक्रिया है।

इसका प्रथम चरण है जिज्ञासा, जिज्ञासा अनुसंधांन को प्रेरित करती है और अनुसंधान आत्म-बौद्धिकता की नवीन सभ्यता को जन्म देती है और इससे ही वैश्विक विकासवाद का सिद्धांत लागू होता है। इसके अतिरिक्त समावेशित व्यवहार कुशलता संस्कारों के उच्च स्तर को प्रकट करती है, जब सभ्यता अपने चरम स्तर पर पहुंच जाती है तो संस्कृति का उदय होता है जो क्षेत्र की एक विशेष की पहचान बन जाती है।

वह क्षेत्र अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक गति के कारण जाना और पहचाना जाता है, संस्कृति के गर्भ से संस्कारों का जन्म होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हम शिक्षा में संस्कारों को स्थान देते हैं तो   सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करना भी आवश्यक हो जाता है और यही संस्कार राष्ट्रीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।

नई शिक्षा नीति में ऐसी व्यवस्था रखी गई है कि विद्यार्थियों को राष्ट्र की गौरवशाली संस्कृति और राष्ट्र की मांगों से अवगत कराएं। यह प्रयास स्वागत योग्य है, इससे युवा पीढ़ी केवल अतीत से स्वयं को भावनात्मक आधार पर जुड़ी थी अनुभव नहीं करेगी अपितु अपने भीतर राष्ट्र गौरव का विकास होगा जिससे वह एक सफल तथा दायित्व पूर्ण नागरिक के रूप में विकसित हो सकता है जो कि एक अच्छे राष्ट्र के लिए बहुत जरूरी है।

निश्चित ही संस्कार संस्कृति का व्यवहारिक चरण है केवल इसके लिए आत्म चेतना का होना भी आवश्यक है। आत्म चेतना का विकास तथा विस्तार शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से ही हो सकता है इसके लिए शिक्षण संस्थाओं को संस्कार गत शिक्षा को अधिक महत्व देना होगा, जो भी अध्ययन विद्यार्थी करता है उसका संपूर्ण लाभ देश और समाज को तब ही होता है जब उपाधि प्राप्त करने वाला स्नातक दायित्व के प्रति गंभीर तथा सहज सरल हो।

                                                        

इस दिशा में कई विश्वविद्यालय ने महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इस दिशा में त्रिस्तर पर भी कुछ विश्वविद्यालय द्वारा किए जा रहे हैं कुछ विश्वविद्यालयों के परिसर में स्थित कार्यालय, भवन संकाय, महाविद्यालय तथा विभाग आदि का नामांतरण ऐसे महापुरुष के नामों पर किया गया है जिन्होंने राष्ट्र निर्माण की दिशा में अपना सर्वोच्च त्याग दिया है या समाज को सकारात्मक दिशा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

निश्चित तौर पर इस विश्वविद्यालय का संपूर्ण प्रवेश प्रेरणादायक हो जाता है यह कहावत बहुत सही है कि कभी-कभी सैकड़ों पुस्तकों के स्थान पर दीवार पर लिखा एक वाक्य मानव के जीवन को परिवर्तित कर सकता है इसीके आधार पर कई विश्वविद्यालयों द्वारा कार्य किया जा रहा है, जहां पर संस्कारों की प्रेरणा मिलती है।

संस्कार निर्माण के लिए, दूसरा उपाय समय-समय पर ऐसे सांस्कृतिक आयोजन करना जो विद्यार्थियों को भारतीयता के साथ-साथ मानव मूल्यों से जोड़ने में सहायक हो और अंतिम उपाय होता है कि संस्कार गत शिक्षा को शिक्षण कार्य में अनिवार्य रूप से जोड़ा जाए यह त्रिस्तरीय कार कई विश्वविद्यालय द्वारा प्रारंभ किए गए हैं।

संस्कार गत शिक्षा को अनुभव जनित तथा सत्य जनित आधार पर भी दिया जा सकता है। इसके लिए गुरु शिष्य संवाद की प्राचीन परंपरा को पुनः जीवित करना होगा। शिक्षा व्यक्ति का नवनिर्माण है और मनुष्यता को ग्रहण करने की प्रेरणा है, इसलिए भारतीय चिंतन में शिक्षा आरंभ होने को दूसरा जन्म कहा जाता है। भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को दो भागों में विभक्त किया है पहला जहां बालक का जन्म होता है वह दूसरा जन्म स्कूल होता है, लेकिन संस्कारों तथा ज्ञान से जहां मानव नवीन रूप से अंतरित हो जाता है तो वह गुरुकुल कहलाता है इसलिए ही विद्या आरंभ संस्कार को दूध संस्कार कहा जाता है।

इससे स्पष्ट है कि भारतीय जीवन दृष्टि में केवल भौतिक जन्म का महत्व नहीं है अपितु संस्कार को भी आवश्यक माना जाता है, यही कारण है कि नई शिक्षा नीति 2020 में सांस्कृतिक चेतना के माध्यम से संस्कार का शिक्षा को प्राथमिकता पर रखा गया है और देश के कई विश्वविद्यालय हैं जो इसको अपना रहे हैं।

निश्चित रूप से आने वाले वर्षों में शिक्षा व्यवस्था में एक बदलाव देखने को मिलेगा जिससे संस्कार से ओतप्रोत लोग आगे आएंगे।

मानव जीवन

मानव का जीवन उस परमपिता परमेश्वर के द्वारा प्रदत्त, परन्तु मानव प्रायः इस उपहार के मूल्य को समझ नही पाते और वे पग-पग पर अपमान और अवहेलना के माध्यम से प्रताडित होे रहे हैं। कुछ बहु ही विशेष मनुष्य ही परमात्मता के द्वारा प्रद्वत इस जीवन रूपी उपहार का मूल्य समझ पाते हैं और जो व्यक्ति इस उपहार के मूल्य को समझ लेता है, व साधारण जीवन नही जीता, बल्कि अपने जीवन के उस लक्ष्य पर ध्यान देता है कि परमात्मा ने मुझे यह मानव जीवन क्यों दिया? मैं कौन हूँ? मै शरीर हूँ या फिर एक आत्मा। परमात्मा को किस प्रकार से प्राप्त करना है? आदि।

प्रत्येक मानव परमपिता परमेश्वर की संतान है। धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि ईश्वर जीव अविनाशी है, अर्थात यह जीवात्मा अविनाशी, अजन्मा, सर्वज्ञ, सर्वाधार, अन्तर्यामी, सुखदाता और आनंददाता परमात्मा ही एक अंश है। अतः मानव परमात्मा का वरद पुत्र है। परमात्मा के द्वारा मानव को इस विश्व रूपी उद्यान के माली के रूप में नियुक्त किया गया है। जबकि मानव, अपने जीवन के इस उद्देश्य अनभिज्ञ रहा है, और व एक लक्ष्यहीन जीता है।

मानव अपने परमपिता परमेश्वर से नाता तोड़कर एक दुखों से परिपूर्ण एवं संतप्त जीवन जीने के लिए विवश होता है और इस प्रकार के जीवन को जीने का कोई अर्थ नही है।

जब जीवन लक्ष्य ताथा उद्देश्य हीन होता है तो मानव की स्थित ठीक उस प्रकार की हो जाती है जैसे कि बिना चालक के चलने वाली कोई गाड़ी जिसकी ऊर्जा एवं शक्ति का दुरूपयोग उसे अवनति के गर्त की ओर ही लेकर जाता है।

जीवन एक संग्राम है जिसमें व्यक्ति प्रतिक्षण और पल-पल लड़ना ही पड़ता है। जीवन के इस संग्राम में वह अपने अन्तिम समय तक मोर्चे पर वही डटा रह सकता है, जिसके जीवन का लक्ष्य आदर्शमय और दृढ़ उद्देश्य वाला होता है। प्रायः व्यक्ति कुछ सीमित समय के लिए किसी लघु क्षेत्र में चमक सका है, परन्तु संसार के इतिहास के अनंत क्षितिज में सूर्य की तरह से केवल वी चमक सकता है, जिसका लक्ष्य ऊँचा होता है। इसलिए इस जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सदैव ही साधनारत एवं प्रयासरत रहना ही मानव जीवन का सबसे प्रमुख धर्म होता है।