भेड़ एवं बकरियों के प्रमुख रोग तथा उपचार      Publish Date : 22/02/2025

                  भेड़ एवं बकरियों के प्रमुख रोग तथा उपचार

पशु पालक बकरियों एवं भेड़ों में होने वाले कुछ प्रमुख रोगों और उनसे बचाव से सम्बन्धित जानकारियों को अपनाकर अपने पशुओं को स्वस्थ्य रखते हुए उनसे अधिकतम लाभ उठा सकते हैं।

                                भेड़ एवं बकरियों में होने वाले प्रमुख रोग

                                                                 

फड़किया रोग

यह बकरियों और भेड़ों में पाया जाने एक प्रमुख रोग है जो जीवाणु जनित रोग होता है। इस रोग के रोगाणु मृदा एवं पशु की ग्रास नली में पाए जाते हैं। इस रोग से ग्रस्त पशु की मौत या तो चरते हुए मौके पर ही हो जाती है अन्यथा 36 घन्टों अंदर ही हो जाती है। इस रोग से ग्रस्त पशु खाना-पीना छोड़ देता है, चक्कर आना और खूनी दस्त होना आदि लक्षण होते हैं।

इस रोग से पीड़ित होने के बाद पशु को लगभग आधा कप पानी में लाल दवा के 1 अथवा 2 दानों को घोलकर पशु को पिला देना चाहिए। गर्भवती बकरी अथवा भेड़ (गर्भधारण का अंतिम महीना) होने पर तथा 3 महीने से ऊपर के बच्चों को टीककरण के माध्यम से इस रोग से बचाया जा सकता है।

निमोनिया रोग

ठंड़े या नमीं वाले स्थानों पर पशु अक्सर निमोनिया रोग से पीड़ित होने के बाद मर जाते हैं। यह रोग विशेषरूप से वर्षा से भगे हुए पशु में मुख्य रूप से देखा जा सकता है। इस रोग के लक्षणों में पशु को सांस लेने में कठिनाई होना, खांसी होना, पशु के मुँह एवं नाक आदि से स्राव होना और आहार नही लेना आदि प्रमुख होते हैं।

तारपीन के तेल की भाप देने से इस रोग से ग्रसित पशु को आराम मिलता है।

प्लेग रोग

यह रोग भी विषाणु जनित रोग होता है। यह रोग भेड़ की अपेक्षा बकरियों में काफी तेजी से फैलता है और सामान्य रूप से 4 से 12 महीने के बच्चे इस रोग से अधिक प्रभावित होते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षणों में, पशु को तीव्र बुखार, दस्त (बुखार के 3 से 4 दिनों के बाद) तथा पशु को सांस लेने में कठिनाई होती है।

इसके साथ ही पशु को भूख नही लगती और पशु की आँख एवं नाक से स्राव होता है। दस्त शुरू होने के बाद एक सप्ताह के अंदर ही बीमार पशु मर जाता है। पशुओं का टीककरण कराना ही इस रोग का एकमात्र बचाव होता है, जो कि प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार पशु को लगवाया जाता है।

खुरपका-मुँहपका रोग

यह बहुत तेजी से फैलने वाला विषाणु जनित रोग होता है। इस रोग के मुख्य लक्षणों में पशु मुँह तथा खुरों के बीच में छाले बनना, पशु का लंगड़ाकर चलना, आहार नही लेना और तीव्र बुखार होना आदि होते हैं। इस रोग से पशु की विकास दर कम हो जाती है, परन्तु पशु की मृत्यु बहुत ही कम होती है।

इस रोग से बचाव के लिए पशु मुँह में फिटकरी तथा खुरों में नीले थोथे का घोल लगाने से पशु को आराम मिलता है। हालांकि प्रत्येक छह महीने के बाद टीकाकरण कराना ही इस रोग का एक प्रमुख बचाव होता है।

परजीवी जनित रोग

अंतः परजीवी रोग

यह परजीवी पशुओं में गम्भीर समस्या पैदा करते हैं। यह पशुओं का रक्त चूसते हैं। इनसे बचाव के लिए कृमिनाशक (एल्बेनडाजोल/फेनबेन्डाजोल आद) के घोल का प्रयोग करना चाहिए। लगभग 250 ग्राम आक के फूलों को 500 एमएल पानी में उबाल कर पशु को पिलाने से अंतः परजीवी बाहर आ जाते हैं।

खूनी दस्त

यह रोग 1 से 4 महीने तक के मेमनों में एक अंतः परजीवी के कारण से होता है। इस रोग के लक्षण, तीव्र खूनी दस्त, भूख न लगना, शारीरिक भार में गिरावट आना और रक्तहीनता आदि प्रमुख होते हैं। एत्प्रोलियम एवं मोनेन्सिन आदि दवाओं का उपयोग वर्षा ऋतु कर इस रोग से पशुओं का बचाव किया जा सकता है।

पीजीवियों के आक्रमण से पशु के बचाव के लिए पशुओं की डिपिंग (डेल्टामेथेरीन/सायपरमेथ्रीन के घोल 1 एमएल प्रति लीटर पानी की दर से बनाकर इस घोल से पशु को स्नान कराना) चाहिए।

उपपचयी रोग

कीटोसिस

इस रोग के चलते पशुओं की ऊर्जा में कमी, कार्बोहाइड्रेट के उपपचय में परेशानी और पशु के रक्त में कीटोन पदार्थों का निर्माण शुरू हो जाता है। इस रोग के लक्षणों में पशु के स्वास्थ्य में गिरावट, पशु का गिर पड़ना, पशु का खड़ा नही हो पाना और पशु की मृत्यु होना आदि शामिल होते है।

इस रोग से बचाव के लिए पशु के पोषण में ऊर्जा से भरपूर पदार्थ जैसे शीरा या गुड़ आदि की मात्रा को बढ़ा देना चाहिए।

अफारा

जुगाली पशु के उदर में आवश्यकता से अधिक गैस बनने एवं एकत्र होने से पशुओं में अफारा आने की समस्या हो जाती है और यदि यह गैस बाहर नही निकल पाए तो तुरंत ही पशु की मृत्यु भी हो जाती है। अत्याधिक मात्रा में हरा चारा खा लेने अथवा चारे में बदलाव, अफारे का कारण बन सकता है। पेट का फूलना, बेचैनी, कठिनाई भरी श्वास आदि अफारे का के लक्षण होते है।

अफारा को रोकने के लिए पशु को निरंतर गतिशील बनाए रखना, पशु के पेट से गैस निकालना (पशु के बांये पेट पर ट्रोकार केनुला या मोटी सुई के द्वारा छेद कर) और पशु को तेल पिलाना चाहिए। पशु को 10-0 एमएल ब्लोटासिल/ब्लोटिनेक्स या 15-20 ग्राम टिम्पोल पाउडर, 30 ग्राम सोडा के साथ दिन में दो बार पिलाने से पशु को अफारे की समस्या से बचाया जा सकता है।

भेड़ एवं बकरी आदि पशुओं को निरोगी रखने के कुछ उपाय

                                                                    

  • सबसे पहले तो पशुपालक को स्वस्थ भेड़ और बकरी ही खरीदनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि खरीदे गए पशु का पहले से ही टीकाकरण होता रहा है अथवा नही।
  • किसी अन्य फार्म से लाए गए पशुओं को लगभग एक महीने तक अपने मुख्यपशुओं के बेड़ें में शामिल नही करें और नए पशुओ पर सघन निगाह रखें।
  • फार्म के फर्श, खाने-पीने के स्थान तथा उनके लिए प्रयोग की जाने वाली सामग्री की नियमित रूप से सफाई करें तथा किसी अच्छे जीवाणुनाशक घोल का प्रयोग भी नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
  • पशु के रोगी हो जाने के बाद तुरंत ही उसे समूह से अलग कर उसका उचित उपचार कराना चाहिए।
  • उचित समय पर अपने पशुओं का टीकाकरण आवश्यक रूप से कराएं।  

                         सारणीः पशुओं के रोग, रोग के टीके और खुराक

क्र.सं.

रोग

टीके का नाम

खुराक की दर

टीके की पुनरावृत्ति

1.

फकड़िया

मल्टी-कम्पोनेन्ट/टाईप-डी

2 ML त्वचा के नीचे

प्रत्येक छह महीने के बाद

2.

पी.पी.आर. (प्लेग)

टिश्यू कल्चर

1 ML त्वचा के नीचे

प्रति तीन वर्ष के बाद

3.

खुरपका-मुँहपका

पॉली वेलैन्ट

2-3 ML त्वचा के नीचे या मांस में

प्रति छह महीने के बाद

4.

गल घोंटू

ऑयल-एडजूवेन्ट

2 एमएल मांस में

प्रतिवर्ष

5.

लंगड़िया बुखार

पॉली वेलैन्ट फार्मल किल्ड

2-3 एमएल त्वचा के नीचे

प्रतिवर्ष