‘‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती” से बढ़ाएं किसान अपनी आय      Publish Date : 20/05/2025

‘‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती” से बढ़ाएं किसान अपनी आय

                                                                                                                                 प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

शून्य बजट अर्थात कम बजट प्राकृतिक खेती, खेती करने का एक नया तरीका है, जिसे ‘पुनः पारंपरिक खेती की ओर’ या खेती के आयात के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। खेती की इस विधि में उत्पादन की लागत शून्य मानी जाती है (एफ.ए.ओ., 2016)। इसे ‘जीरो बजट आध्यात्मिक खेती’ के रूप में भी जाना जाता है। इसमें पारंपरिक कृषि की ऐसी पद्धतियों को शामिल किया जाता है, जिनमें खेत ही पर उपलब्ध संसाधनों से ही खेती की जाती है तथा बाहरी आदानों की आवश्यकता नहीं होती है। खेती के लिए खेत के बाहर से कुछ भी नहीं खरीदना पड़ता है।

खेत में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपयोग पौधों की वृद्धि के लिए किया जाता है, जिससे कि मृदा की उत्पादकता और फसल की उपज में सुधार हो सके।

शून्य बजट प्राकृतिक खेती के स्तंभ

                                                      

शून्य बजट प्राकृतिक खेती टिकाऊ कृषि पारिस्थितिक प्रणाली के दृष्टिकोण पर आधारित है और यह पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करने में मदद करती है। शून्य बजट प्राकृतिक खेती के सिद्धांत सुभाष पालेकर द्वारा विकसित किए गए थे। सुभाष पालेकर द्वारा वर्णित शून्य बजट प्राकृतिक खेती के चार प्रमुख स्तम्भ जीवामृत, बीजामृत, आच्छादन (पलवार) एवं व्हापासा (नमी मृदा वातन) है।

जीवामृत

                                                   

यह गाय के गोबर और मूत्र, गुड़, दाल के आटे, पानी एवं मृदा से तैयार सूक्ष्मजीवों का किण्वित मिश्रण होता है। यह मृदा में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की गतिविधि को बढ़ाता है और मृदा में पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि करता है। विभिन्न प्रक्षेत्र पर किए गए परीक्षणों के परिणामों ने पुष्टि की है कि जीवामृत, फसलों के विकास और उपज कारकों की वृद्धि में सहायक है। सुभाष पालेकर के अनुसार, प्रति हैक्टर भूमि पर लगभग 500 लीटर जीवामृत की आवश्यकता होती है। इसका एक महीने में दो बार छिड़काव करना चाहिए। 12 हैक्टर क्षेत्रफल के लिए जीवामृत बनाने के लिए एक गाय पर्याप्त होती है।

बीजामृत

बीजामृत को गाय के गोबर एवं मूत्र तथा चूने से तैयार किया जाता है, जिसका बीज को कीटों एवं मृदाजनित रोगों से बचाने के लिए बीज के चारों ओर सूक्ष्मजीव आवरण बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। वेंकटराव (वर्ष 2019) द्वारा किए गए प्रक्षेत्र परीक्षण के परिणाम से पुष्टि होती है कि दलहनी फसलों के बीजों को बीजामृत से उपचारित करके बुआई करते हैं, तो अंकुरण दर, अंकुर वृद्धि और बीज ओज सूचकांक में वृद्धि होती है।

आच्छादन (पलवार)

इससे अभिप्राय मृदा सतह को फसल अवशेषों या आवरण फसलों को आच्छादित करना है। इसका मुख्य उद्देश्य मृदा नमी का संरक्षण, मृदा जलधारण क्षमता में वृद्धि एवं खरपतवारों का प्रबंधन है।

व्हापासा (नमी मृद्दा वातन)

जल प्रबंधन में परिवर्तन है, जहां मृदा में मौजूद हवा और पानी के अणु पानी की उपलब्धता और पानी के उपयोग की दक्षता को बढ़ाने में मदद करते हैं।

इसके अलावा इस पद्वति में अंतर-फसल, वर्षा जल संग्रहण के लिए समोच्च एवं मेड़ का निर्माण, केंचुओं की स्थानीय प्रजातियों का उपयोग करना आदि इसके अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं।

शून्य बजट प्राकृतिक खेती एवं आय

                                                    

विशेषज्ञों के अनुसार, शून्य बजट प्राकृतिक खेती से सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक लाभ प्राप्त होने की संभावना है। शून्य बजट प्राकृतिक खेती को अपनाने बाले राज्यों में आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक आदि में किए गए सामाजिक, आर्थिक और कृषिगत प्रभावों का विवरण लेख में नीचे दिया गया है-

आंध्र प्रदेश का अनुभव

आंध्र प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015-16 में शून्य बजट प्राकृतिक खेती की शुरुआत की। वर्ष 2017-18 में शून्य बजट प्राकृतिक खेती एवं गैर-शून्य बजट प्राकृतिक खेती प्रक्षेत्रों में किए गए फसल कटाई परीक्षणों से ज्ञात हुआ कि शून्य बजट प्राकृतिक खेती के अंतर्गत उगाई गयी सभी फसलों से अपेक्षाकृत अधिक उपज प्राप्त हुई।

कर्नाटक का अनुभव

कर्नाटक में जिन किसानों ने शून्य बजट प्राकृतिक खेती को अपनाया है, वे लाभ प्राप्त कर रहे हैं, जिससे उनकी आजीविका में सुधार हुआ है। खड़से एवं साथियों (वर्ष 2017) के अनुसार पारिवारिक स्वास्थ्य, उत्पादन की लागत में कमी, खाद्य उपभोग में आत्मनिर्भरता एवं पर्यावरण लाभ कर्नाटक में शून्य बजट प्राकृतिक खेती की लोकप्रिगता के प्रमुख कारक रहे है।

संभावना

                                                      

शून्य बाजट प्राकृतिक खेती से होने वाले लाभों पर साक्ष्य एवं तथ्य जुटाने के लिए व्यापक प्रक्षेत्र अध्ययनों की आवश्यकता है। देश में लागू करने से पहले शून्य/कम बजट प्राकृतिक खेती पद्धति की प्रभावकारिता का मूल्याकन अग्रगामी परियोजना के रूप में किया जाना नितांत आवश्यक है। व्यापक प्रसार से पहले शुन्य बजट प्राकृतिक खेतों की आर्थिक व्यवहार्यता एवं दीर्घकालिक प्रणाम का वैज्ञानिक आकलन बहु स्थानीय अध्ययनों के द्वारा किया जाना आवश्यक है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।