प्राकृतिक खेती में ही है भविष्य      Publish Date : 11/05/2025

                   प्राकृतिक खेती में ही है भविष्य

                                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

"प्राकृतिक खेती से होने वाली फसलें स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। इससे मृदा के स्वास्थ्य में भी सुधार आता है, जो सतत विकास के विचार के अनुकूल है।"

देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे समाचार आ रहे हैं कि अनेक किसान प्राकृतिक खेती को अपनाकर पहले जितना ही उत्पादन कर रहे हैं अथवा कहीं-कहीं तो इससे अधिक भी ले रहे हैं। फर्क यह है कि उनका उत्पादन स्वास्थ्य की दृष्टि से कहीं अधिक बेहतर है और समुचित प्रयास करने पर इसके लिए बेहतर कीमत भी मिल रही है। दरअसल, बेहतर व्यय क्षमता वाले अनेक परिवारों में स्वास्थ्य के अनुकूल खाद्यों के लिए रुझान बढ़ रहा है और वे इसके लिए एक सीमा तक बेहतर कीमत भी देने के लिए तैयार हैं।

बड़े शहरों के कुछ मेलों और फूड फेस्टीवल आदि में दोगुनी से भी अधिक कीमत पर ऑर्गेनिक उत्पाद आसानी से बिक जाते हैं। यदि प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों का संबंध ऐसे उपभोक्ताओं से हो जाए, तो निश्चय ही उनकी आय में अच्छी वृद्धि हो सकती है। विश्व के खाद्य बाजार में भी अपेक्षाकृत धनी देशों में प्राकृतिक खेती के उत्पादों के लिए अधिक मांग है, और वहां से इसके लिए अच्छी कीमत प्राप्त हो सकती है।

                                             

स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम खाद्य की परिभाषा एक ओर तो यह है कि इसमें रासायनिक खाद, कीटनाशक व खरपतवारनाशक आदि का उपयोग न हो, लेकिन साथ में यह भी है कि फसलें जीएम फसलों से मुक्त कृषि व्यवस्था में उगाई जाएं। अतः यदि कोई भी देश इस तरह के खाद्यों के उत्पादन में आगे बढ़ता है, तो भविष्य में निश्चय ही उसके उत्पादों के लिए बेहतर कीमत विश्व स्तर पर मिल सकती है। यह अलग बात है कि अनेक शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह नहीं चाहती हैं व उनकी नीतियां व दबाव इससे विपरीत दिशा में हैं।

संभवतः यही कारण है कि अनेक विकासशील देशों में प्राकृतिक खेती को उतना महत्व व समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जितनी जरूरत है। इसके बावजूद अनेक किसान व विशेषकर महिला किसान, इसे अपने स्तर पर अपनाते जा रहे हैं और वह इससे प्रसन्न व संतुष्ट हैं।

देश के अनेक दूर-दराज के गांवों के ऐसे कई परिवारों और विशेषकर महिलाओं ने बातचीत करने पर बताया कि आमदनी जब बढ़ेगी तब बढ़ेगी, पर फिलहाल उन्हें इस उपलब्धि से बहुत संतुष्टि है कि उनके परिवार का स्वास्थ्य सुधर गया है व जो खर्च इलाज और दवा पर होता था, वह तो कम हो गया है। इसी तरह खेती भी पहले से बहुत सस्ती हो गई है। उन्होंने कहा कि जब खर्च कम हो जाए, स्वास्थ्य अच्छा हो जाए, तो यह भी तो प्रगति ही है और बहुत टिकाऊ प्रगति है।

                                              

अनेक वैज्ञानिक अपनी ओर से इस सरल तर्क में यह जोड़ते हैं कि जो प्राकृतिक खेती विशेष तौर पर भारत के अनेक किसान अपना रहे हैं, वह जलवायु बदलाव के समय में विशेष तौर पर उपयुक्त है। जलवायु बदलाव का सामना करने के प्रायः दो पक्ष बताए जाते हैं, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना व जलवायु बदलाव को सहने की क्षमता में वृद्धि करना। प्राकृतिक खेती में अधिक पेड़ों की उपस्थिति के माध्यम से और मिट्टी संरक्षण कर उसकी कार्बन सोखने की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है। रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि का प्रयोग कम होने से जीवाश्म ईंधन का दबाव कम होता है।

प्राकृतिक खेती सस्ती होने और नकदी खर्च कम होने से जलवायु बदलाव के मौसमी उतार-चढ़ाव सहने की क्षमता बढ़ती है। अतः जलवायु बदलाव कम करने व अनुकूलन के लिए देश और वैश्विक स्तर पर जो बजट उपलब्ध है, वह यदि प्राकृतिक खेती अपनाने वाले किसानों की सहायता के रूप में व्यय किया जाए, तो उन्हें बहुत मदद मिलेगी।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।