
परम्परागत खेती बनाम प्राकृतिक खेती Publish Date : 14/04/2025
परम्परागत खेती बनाम प्राकृतिक खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
भारतवर्ष की अविराम गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में कृषि योग्य भू-क्षेत्र की भी निरंतर कमी होती जा रही है। ऐसी स्थिति में बढ़ती हुई. जनसंख्या के लिए अधिकतम खाद्यान्न उत्पादन करना आवश्यक है। इस कार्य के लिए हमारे देश के कृषि वैज्ञानिकों ने आधुनिक एवं खेती के विषय में विभिन्न प्रकार के अमूल्य सुझाव प्रदान किए है, जिनमें मुख्य रूप से उन्नतिशील एवं संकर बीजों का प्रयोग, उर्वरकों, रासायनिक कीटनाशियों एवं शाकनाशी पदार्थों प्रयोग पर विशेष जोर दिया गया है। यह सच है कि हरित क्रॉन्ति में उर्वरकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, किंतु वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग से हमे अब लाभ के स्थान पर हानि प्रतीत हो रही है तथा भूमि की उत्पादकता भी दिन प्रति दिन क्षीण होती जा रही है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण पंजाब राज्य है। विदेशों के साथ-साथ हमारे देश में भी उर्वरकों के विषैले प्रभाव सामने आने लगे हैं। जिसके अन्तर्गत उच्च रक्तचाप, गैसट्राइटिस, फ्लोरीन के विषैले प्रभाव आदि शामिल है। उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग किए जाने के कारण हमारे कृषि उत्पादों की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
देश का भौम-जल की गुणवत्ता का स्तर एवं शुद्धता के दृष्टिकोण से सबसे सुरक्षित एवं संरक्षित स्रोत माना जाता है। किंतु जब से पंजाब एवं अन्य क्षेत्रों के भूमिगत जल में नाइट्रेट की अत्याधिक मात्रा पाई जाने लगी है, तो हमारा यह सुरक्षित जल-भंडार भी असुरक्षित हो गया है। इसका एक मात्र कारण किसानों के द्वारा नाइट्रोजन उर्वरकों का अधिकतम प्रयोग ही समाने आ रहा है।
कीटनाशियों का लगातार अधिकतम प्रयोग के कारण केवल हमारी भूमि एवं जल को ही नहीं प्रदूषित करता, अपितु मनुष्यों एवं पशुओं को भी प्रत्यक्ष एंव अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए गायों एवं स्त्रियों के दूध में डी.डी.टी. के अंश का पाया जाना। यह भी सत्य है कि डी.डी.टी. के कारण मनुष्यों की कोशिकाओं ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं जिनके कारण बहुत-सी बीमारियाँ जैसे अपंगता, मानसिक विकलांगता, भेंगापन या किसी भी प्रकार की शारीरिक विकलांगता हो सकती है। यह तो मात्र एक डी.डी.टी. का प्रभाव है जब कि हम लोग इस प्रकार की दर्जनों कीटनाशी दवाओं का प्रयोग आधुनिक खेती. के अन्तर्गत दशकों सें करते आ रहे हैं। इन रासायनिक रसायनों के विषैले प्रभाव हमारी फसलों के साथ ही हम सभी के स्वास्थ्य को गम्भीर रूप प्रभावित कर रहे हैं।
आर्गेनोफास्फोरस आधारित कीटनाशियों को अधिक प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से इनमें भारी धातुओं का प्रयोग किया जोता है। इस प्रकार जब इन कीटनाशियों को कृषि के अन्तर्गत प्रयोग में लाया जाता है तो हरी सब्जियाँ इन भारी तत्वों को अवशोषित कर मनुष्यों के शरीर तक पहुँचाने का कार्य करती है। इन भारी तत्वों के कारण कैंसर, किडनी का खराब होना, लीवर सिरोसिस, हाईपर टेन्शन आदि बीमारियां हो जाती हैं। कीटनाशियों के बढ़ते हुए प्रयोग के कारण बहुत से कीटों ने अपने अंदर उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित कर ली है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण मच्छर है, जो मलेरिया जैसी व्यापक बीमारी को फैलाता है। भारत सरकार की ओर से 15-20 वर्ष पूर्व इसे खत्म करने का दावा किया गया था परंतु आज मलेरिया या डेंगू जैसी महामारियों के प्रकोप से पुनः पूरा देश प्रभावित है। फिनिट एवं बेगॉन जैसे कीटनाशियों के प्रयोग करने से मच्छर पर अब कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
आज देश एवं विदेश के वैज्ञानिक यह कहने लगे है कि गेहूँ की बुवाई के लिए 5 से 7 बार जुताई करना आवश्यक नहीं है, अपितु इसके लिए मात्र एक जुताई ही पर्याप्त है। अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि यदि की बुवाई जुताई के बिना ही बुवाई कर ली जाए तो भी उसकी पैदावार पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। इससे स्पष्ट है कि अकारण कर्षण क्रियाओं से कोई लाभ नहीं है। उधर हानि के तौर पर ट्रैक्टर आदि बड़े यंत्रों से जुताई करने पर मिट्टी की संरचना पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उसके अंदर पाए जाने वाले लाभकार जीवों जै कि केंचुएं आदि की संख्या कम हो जाती है।
अतः उपरोक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आज यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इन हानिकारक कृषि पद्धतियों से छुटकारा पाना ही समाज के लिए हितकारी है।
प्राकृतिक खेती अथवा जैविक खेती हमारे अंदर आशा की एक किरण जगाती है जो हमें हानिकारक कृषि पद्धतियों से छुटकारा पाने का मार्ग प्रशस्त करती है। प्राकृतिक खेती को स्थायी स्वरूप प्रदान करने के लिए मुख्य रूप से निम्न चार सिद्धांतों पर ध्यान केन्द्रित करना उचित होगा-ः
- भूपरिष्करण के अंतर्गत बड़े-बड़़े कृषि यंत्रों के प्रयोग से हमारी मृदा के स्वरूप, जैसे उसकी संरचना, मृदा का क्षरण आदि पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मिट्टी की सतह कठोर हो जाती है तथा मृदा के अंदर पाए जाने वाले महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीवों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे छुटकारा पाने के लिए अपने देश की पारम्परिक विधियों जैसे बैलों द्वारा खेती एवं मृदा के अंदर पाए जाने वाले असंख्य सूक्ष्म जीव जैसे ’प्रकृति के हलवाहे’ केंचुए आदि की सहायता से जुताई जुताई को प्रथमिकता प्रदान करनी चाहिए। केंचुए कुदरती तौर पर अहर्निश मिट्टी की पलटाई करते रहते हैं। इसलिए न्यूनतम एवं शून्य भूपरिष्करण को अपनाना ही उचित रहेगा।
- रासायनिक उर्वरकों के लगातार प्रयोग से हमारी मिट्टी के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। साथ ही यह हमारे पर्यावरण को भी प्रदूषित करता है। अतः इन सबसे छुटकारा पाने का एक मात्र विकल्प जैविक खादों एवं जैव उर्वरकों का प्रयोग ही है। रासायनिक कीटनाशियों के प्रयोग से पड़ने वाले दूषित प्रभाव से बचने के लिए इनके स्थान पर जैविक एवं यांत्रिक विधियों को अपनाकर मानव समुदाय एवं वातावरण को हानिकारक प्रभावों से मुक्त रखा जा सकता है।
- रासायनिक शाक-नाशियों के प्रयोग से मृदा-जल एवं पौधों की गुणवत्ता पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों से बचने के लिए जैविक शाकनाशियों तथा इसी प्रकार की अन्य विधियों को अपनाना उचित होगा।
उपरोक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारी यंत्रों की अपेक्षा हमें प्रकृति के साथ अपने पारंपारिक ज्ञान का तारतत्म्य बनाते हुए कृषि कार्य करने चाहिए। आज का समय समय मात्र देशी हल का नहीं है, बल्कि हमारे अन्य ऐसे बहुत से कृषि उपकरण उपलब्ध है जिन्हें बैलों द्वारा चलाया जा सकता है एवं उन्हें गाँव का लुहार या बढ़ई आसानी से बना भी सकता है। बैलों के उपयोग से हमारी खेती को दोहरा लाभ मिलता है। खेती में बैलों के उपयोग के अलावा उनसे प्राप्त गोबर एवं मूत्र भी हमारी मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जैविक पदार्थों के महत्व को बताने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य भोजन के बिना जीवित नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार जैविक पदार्थों की अनुपस्थिति में हमारी मृदा भी स्वस्थ एवं क्रियाशील नहीं रह सकती है। मृदा में जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ाने के लिए प्राकृतिक खेती के विभिन्न कारकों जैसे वर्मीकंपोस्ट, वर्मीवाश, हरी खाद, जैव उर्वरकों एवं बायोडायनेमिक पद्धतियों को अपनाकर मिट्टी को पर्यावरणीय दृष्टिकोण से स्वस्थ एवं गतिशील बनाकर टिकाऊ उत्पादकता को बनाए रखा जा सकता है।
रासायनिक कीटनाशी एवं शाकनाशी के विकल्प के तौर पर आज हमारे पास ढेर सारे जैविक कीटनाशी एवं शाकनाशी उपलब्ध हैं। जैविक कीटनाशियों में तंबाकू, नीम, लहसुन, एकीरेन्थीज, लैन्टाना, जस्टेसिया, कनेर, गुलदाऊदी आदि का उपयोग सर्वविदित है। इनके उपयोग से प्रभावी कीट नियंत्रण तो किया ही जा सकता है, साथ ही ये कीटनाशी स्वयं ही नष्ट होने वाले होते है। अतः इनके उपयोग से किसी भी प्रकार का विषैला प्रभाव नहीं पड़ता है। जैविक कीटनाशियों के साथ-साथ परभक्षी कीटों का भी उपयोग कीट नियंत्रण देश में शनैः-शनैः बढ़ रहा है। परभक्षी कीटों में झींगुर, मकड़ी, काइलेकोनस, फेरोसाइकनस, क्रिप्टोलेनिस, सोयामस आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त साँप, छिपकली, गोह, नेवला आदि भी हानिकारक जीवों के नियंत्रण हेतु उपयोगी माने जाते हैं। विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं तथा रोगाणुओं का प्रयोग भी आज प्रचलन में हैं।
अंत में यह कहना उचित होगा कि प्राकृतिक खेती आने वाले समय में कृषि जगत् पर पूर्ण रूप से प्रभावी होगी। प्राकृतिक खेती केवल एक विधा ही नहीं है, बल्कि यह खेती की अनेक विधाओं का एक ऐसा संगम है, जिसके द्वारा मनुष्य एवं प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। इससे मनुष्य को गुणवत्ता युक्त एवं विषाक्तता रहित भोजन प्राप्त हो सकेगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।