प्राकृतिक खेती: एक परिचय      Publish Date : 09/04/2025

                    प्राकृतिक खेती: एक परिचय

                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

प्राकृतिक खेती एक समग्र कृषि प्रणाली है जो मृदा के पुनर्जनन, जल और वयु की गुण्वत्ता में सुधार करने, पारिस्थितिकी तन्त्र की जैवविविधता को बढ़ाने, पोषक तत्वों से भरपूर भौजय पदार्थों का उत्पादन करने और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करनें में सहायता करने के लिए कार्बन को स्टोर करने में सहायता प्रदान करती है। स्थानीय समूहों/क्लस्टरों में किसान को आर्थिक व्यवहार्यता को बनाए रखने और सुधारने के साथ ही साथ प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर काम करने के लिए संगठितज किया जाता है।

प्राकृतिक खेती में प्रयुक्त तकनीकें और प्रथाएं

                                                     

प्राकृतिक खेती मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक समस्याओं को कम करती है। प्राकृतिक खेती करने वाले किसान अक्सर अपनी भूमि की जुताई करना कम कर देते हैं, या फिर कुछ शर्तों के साथ (बागवानी और वृक्षारोपण) के अंतर्गत होने वाले मिट्टी के कटाव के जैसी समस्याओं के समाधान के लिए खेत की जुताई करना बन्द ही कर देते हैं जो कि अन्ततः मृदा संरक्षण को बढ़ावा देता है।

खेती की इस विधा के अंतर्गत मृदा को वानस्पातिक अथवा प्राकृतिक सामग्री से ढककर रखा जाता है। इसमें भूमि को जोतने के स्थान पर प्राकृतिक कृषि पद्वतियों से मल्चिंग, जल-प्रतिधारण, खरपतवार का शमन और भूमि कटाव के रोकथाम के माध्यम से मृदा सुधार के जैसे लाभ प्रदान करने और भूमि को पूरे वर्ष हरा-भरा रखने के जैसे लाभ प्राप्त करने के लिए कवर फसलों को लगाना आदि क्रियाएं शामिल होती हैं।

जैव विविधता, पानी और पोषक तत्वों का दक्षतापूर्ण उपयोग हेतु स्वस्थ मृदा के निमार्ण में सहायता प्रदान करती है, यह खेत के लिए राजस्व के अन्य स्रोत प्रदान कर सकती है, परागणकों और वन्यजीवों को भी लाभ प्रदान कर सकती है। प्राकृतिक खेती में विभिन्न प्रकार के फसल चक्र शामिल होते हैं, कवर फसलों की कई प्रजातियों को लगाया जाता है, चारागाहों में चारे की विविध फसलों को लगाया जाता है और खेत के कुछ हिस्सों में स्थाई वनस्पति (संरक्षण कवर) बनाकर रखा जाता है।

                                                      

जितना अधिक से अधिक सम्भव हो सके खेतों में जानवरों को एकीकृत करें। उपलब्ध पशुधन समेत गाय का गोबर मृदा में मूल्यवान पोषक तत्वों को जोड़ सकता है, जिससे रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता में कमी आती है और स्थाई चरागाह बड़ी मात्रा में कार्बन एवं जल को रोक सकते हैं, जिससे कृषि सम्बन्धित उत्सर्जन एवं प्रदूषित अपवाह में कमी आती है। प्रथाओं में घूर्णी चराई शामिल है- पौधों को पुनर्जीवित करने और समय पर घास के चरागाहों के बीच बार-बार पशुधन का जाना या ढकी हुई फसलों को चराना आदि।

फार्म इनपुट/जैव फार्मुलेशन का उपयोग- पारंपरिक भारतीय ज्ञान पर आधारित फार्म इनपुट्स जिसमें देशी गाय के गोबर एवं मूत्र का उपयोग करना शामिल है, प्राकृतिक खेती पद्वति में व्यापक रूप से प्रचलित है। जीवामृत एवं बीजामृत के जैसे इनपुट का उपयोग करने से पोषक तत्व प्रबन्धन और मृदा के संवर्धन के लिए किया जाता है, जबकि नीमास्त्र, ब्रह्मस्त्र के जैसे वनस्पति मिश्रणों का उपयोग पौधों की सुरक्षा के निमित्त किया जाता है।

पारंपरिक कृषि पद्वति के अंतर्गत आने वाली चुनौतियों का अवलोकनः

                                                            

गत शताब्दियों के दौरान, विशेष रूप से पिछले कुछ दशकों में कृषि के विकास के चलते मृदा में कार्बन के भंड़ारण में पर्याप्त मात्रा में कमी आई है, जिसके चलते न केवल मृदा का क्षरण हुआ, बल्कि फसलों की पैदावार में भी गिरावट आई है। साथ ही कृषि पारिस्थितिकी तंत्र की कार्बन समाग्री में भी उल्लेखनीय कमी दर्ज की जा रही है। इसके चलते हमारी जैव विविधता को भी हानि पहुँची है।

खेतों की व्यापक जुताई के लिए भारी मशीनरी का उपयोग, खाद्य उत्पादन को अधिक प्राप्त करने के लिए रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण उपयोग करने के बाद कार्बनिक पदार्थों को हटाने के जैसी अस्थिर प्रथओं के चलते ओसी, मृदा की उर्वरता, वायु प्रदूषण में अत्याधिक वृद्वि और मृदा के क्षरण आदि में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया है।

वर्तमान कृषि पद्वतियों के साथ आगामी 50 वर्षों तक, दुनिया को भरपूट भोजन प्रदान करने के लिए पर्याप्त मिट्टी ही नहीं बचेगी।

उच्च इनपुट कृषि के परिणामस्वरूप अक्सर मिट्टी से प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष लगभग 5-10 टन कार्बन (टीसी/हेक्टेयर/ए) की हानि होती है। भारत के कुछ राज्यों में तो कृषि-रसायनों के अत्याधिक और गहन उपयोग करने के चलते अब कार्बनिक कार्बन 0.5 प्रतिशत से भी कम दिखाई दे रहा है।  

                                                

पिछले 100 वर्षों में, अधिकांश कृषि मृदा में कार्बन का स्तर काफी कम हो चुका है और कई स्थानों पर तो यह 5 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक या उससे भी कम हो चुका है, जिसके चलते मृदा की संरचना, उत्पादकता, घुसपैठ करने की क्षमता, ठंड़ी जलवायु में जल के स्तर को उचित बनाए रखने की क्षमता गम्भीर स्तर तक कम हो चुकी है।

विभिन्न रिपोर्टों से ज्ञात होता है कि पारंपरिक कृषि वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) के उत्सर्जन के 19-29 प्रतिशत भाग के लिए जिम्मेदार है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।