पर्यावरण अनुकूल प्राकृतिक खेती      Publish Date : 16/02/2025

                       पर्यावरण अनुकूल प्राकृतिक खेती

                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं आकाक्षा

प्राकृतिक खेती का महत्व मृदा की उर्वरा शक्ति बनाये रखना पर्यावरण सुरक्षा में हितकारी मानव स्वास्थ्य में लाभदायक उच्च गुणवत्ता वाले फसल उत्पाद विकसित करने में सहायक खेती की लागत कम करने में अधिक लाभकारी स्वस्थ खाद्यान्न उत्पादन में फायदेमंद मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की वृद्वि में उपयोगी होती है। प्राकृतिक खेती के तरीकों की बात करें तो इसके महत्वपूर्ण स्तंभ  जीवामृत, बीजामृत, आच्छादन और व्हापासा हैं।

                                                              

जीरो बजट खेती के मूल सिद्वांत जीवामृत यह घर में बना एक किण्वित सूक्ष्म-जीवाण्विक संवर्धन है। यह फसल  को आवश्यक तत्व प्रदान करता है। इसके अलावा मृदा में केंचुओं की गतिविधि को बढ़ाने के साथ-साथ यह माइक्रोबियल क्रियाकलापों की वृद्वि के लिए एक उत्प्रेरक एजेंट के रूप में भी कार्य करता है।

उपयोग- जीवामृत को महीने में दो बार या एक चौथा और आखिरी छिड़कावः जब दाने दूध की अवस्था में या फल बाल्यावस्था में  हों, तो उस समय प्रति एकड़ 200 लीटर पानी और 5 लीटर खट्टी छाछ या 2 लीटर नारियल का पानी मिलाकर छिड़काव कर सकते हैं। बीजामृत इसका प्रयोग बुआई से पहले बीज, अंकुरित या किसी भी रोपण  सामग्री के उपचार के लिए किया जाता है।

यह नई जड़ों को फपंूफद से बचाने के साथ-साथ मृदाजनित और बीजजनित रोगों से भी बचाता है। इन सभी पदार्थों को पानी में घोलकर 24 घंटे तक रखें। दिन में दो बार लकड़ी से इसे हिलाना जरूरी है। इसके बाद बीजों के ऊपर बीजामृत डालकर उन्हें शुद्व करना चाहिए। बाद में छाया में सुखाकर फिर बुआई करनी चाहिए। बीजामृत द्वारा शुद्व हुए बीज जल्दी और अधिक मात्रा में उगते हैं। इनकी जड़ें तेजी से बढ़ती हैं।

आच्छादन (मल्चिंग) इस प्रक्रिया में मिट्टी को सूखी फसल के अवशेषों या गिरी हुई पत्तियों की एक परत के साथ आच्छादित किया जाता है। इस प्रकार मृदा की नमी को संरक्षित किया जा सकता है। तापमान को 25-32 डिग्री सेल्सियस पर जड़ों के आसपास रखा जाता है, ताकि सूक्ष्मजीव ठीक से काम कर सकें। वाफसा यह पौधों को आवश्यक नमी-वायु संतुलन बनाए रखने के लिए पानी और हवा प्रदान करता है। इसलिए, जीरो बजट खेती को अपनाने से टिकाऊ खेती के अच्छे अवसर प्राप्त होंगे।

                                                                   

फसल सुरक्षा- नीमास्त्रा रस चूसने वाले कीट एवं छोटी सूंडी इल्लियों के नियंत्राण हेतु- उपलब्धता के अनुसार, 200 लीटर प्रति एकड़ की दर से सिंचाई के पानी के साथ देना चाहिए। फलों के वृक्षों के पास दोपहर 12 बजे जो छाया पड़ती है, उस छाया के पास प्रति वृक्ष 2 से 5 लीटर जीवामृत को भूमि पर महीने में एक या दो बार गोलाकार रूप में डालना चाहिए। जीवामृत डालते समय भूमि में नमी का होना आवश्यक है।

पहला छिड़कावः बीज बुआई के 21 दिनों बाद प्रति एकड़ 100 लीटर पानी और 50 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करना उपयोगी रहता है।

दूसरा छिड़कावः पहले छिड़काव के 21 दिनों बाद प्रति एकड़ 150 लीटर पानी और 10 लीटर छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।

तीसरा छिड़कावः दूसरे छिड़काव के 21 दिनों बाद प्रति एकड़ 200 लीटर पानी और 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव ठीक रहेगा।

प्राकृतिक  खेती  का  मुख्य  आधार  देसी  गाय  है।  यह  कृषि  की  प्राचीन  पद्वति  है। यह पद्वति भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखती है। इस पद्वति में रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता है। प्रकृति में पाए जाने वाले तत्वों को खेती में कीटनाशक के रूप में काम में लिया जाता है। प्राकृतिक खेती में कीटनाशकों के रूप में गोबर की खाद, कम्पोस्ट, जीवाणु खाद, फसल अवशेष और प्रकृति में उपलब्ध खनिज जैसे- रॉक फॉस्फेट, जिप्सम आदि द्वारा पौधों को पोषक तत्व दिये जाते हैं। ̧

प्राकृतिक कृषि के कुछ विशेष पहलू-

                                                             

यह पद्वति प्रकृति, विज्ञान, आध्यात्म एवं अहिंसा पर आधारित शाश्वत कृषि पर आधरित है। इस पद्वति में केवल 10 प्रतिशत पानी एवं 10 प्रतिशत बिजली की आवश्यकता होती है। अर्थात 90 प्रतिशत पानी व 90 प्रतिशत बिजली की बचत होती है। प्राकृतिक खेती में फसल उत्पादन, रासायनिक कृषि पद्वति एवं जैविक कृषि पद्वति से अधिक होता है। फसल उत्पादन विष-मुक्त,  उच्च गुणवत्तायुक्त, पौष्टिक व स्वादिष्ट होता है। इन सभी गुणों के कारण उपभोक्ताओं द्वारा इनकी  मांग अधिक होने से इनका मूल्य भी अच्छा मिलता है। कम लागत कृषि का नारा है-‘गांव का पैसा गांव में, शहर का पैसा गांव में’।’’ इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए प्रत्येक किसान को कम लागत आधारित प्राकृतिक खेती को स्वीकार करना चाहिए।

नीमास्त्रः- पांच  कि.ग्रा. नीम की हरी पत्तियां या नीम के पांच कि.ग्रा. सूखे फल लें। पत्तियों या फलों को कूटकर रखें। 100 लीटर पानी में कुटे हुए नीम या फल का पाउडर  डालें। उसमें  5 लीटर गौमूत्र डालें और एक कि.ग्रा. देसी गाय का गोबर मिला लें। लकड़ी से इसे घोलें  और ढककर 48 घंटों तक रखें। दिन में तीन बार इस घोल को घुमायें और 48 घंटों के बाद इस घोल को कपड़े से छान लें। अब इसका फसल पर छिड़काव करें।

ब्रह्मास्त्र कीटों, बड़ी सुंडियों व इल्लियों के लिए-

                                                              

विधिः सबसे पहले 10 लीटर गौमूत्र प्राकृतिक खेती के अवयव लें। इसमें 3 कि.ग्रा. नीम के  पत्ते पीसकर डालें। उसमें 2 कि.ग्रा. करंज के पत्ते डालें। करंज के पत्ते न मिलें, तो 3 कि.ग्रा.  की जगह 5 कि.ग्रा. नीम के पत्ते डालें, फिर उसमें 2 कि.ग्रा. सीतापफल के पत्ते पीसकर डालें।  सफेद धतूरे के 2 कि.ग्रा. पत्ते भी पीसकर इसमें डालें। अब इस सारे मिश्रण को गौमूत्र में अच्छी तरह से घोलें और ढककर उबालें। 3-4 उबाल आने के बाद उसे आग से नीचे उतारकर 48 घंटों तक इसे ठंडा होने दें। बाद में उसे कपड़े से छानकर किसी बड़े बर्तन में भरकर रख लें। 100 लीटर पानी में 2-2.5 लीटर मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।

दशपर्णी अर्क दवा- एक ड्रम या मिट्टी के बर्तन में 200 लीटर पानी लें। इसमें 10 लीटर गौमूत्र एवं 2 कि.ग्रा. देसी गाय का गोबर डालें और अच्छी तरह से घोलें। यह बहुत ही आसान और असरदार दवा है। किसी भी फसल या फलदार वृक्ष पर कीटनाशक दवाइयों का छिड़काव करने के लिए घर बैठे कम लागत से इस दवा बना सकते हैं।

विधिः उपरोक्त पदार्थों को एक ड्रम में डालकर 48 घंटे तक रखें तथा दिन में 3 बार लकड़ी के डंडे से घोलें, फिर कपड़े से छानकर इसका छिड़काव करें।

घनजीवामृत- यह एक अत्यंत प्रभावी जीवाणुयुक्त सूखी जैविक खाद है। इसे गाय के गोबर में गौमूत्र, गुड़, बेसन और उपजाऊ मिट्टी के साथ मिलाकर बनाया जाता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।