
प्राकृतिक खेती में ही है भविष्य Publish Date : 09/02/2025
प्राकृतिक खेती में ही है भविष्य
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
प्राकृतिक खेती के माध्यम से उत्पादित होने वाली फसलें स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। इससे मृदा के स्वास्थ्य में भी सुधार आता है, अतः सतत विकास के लिए यह विचार के अनुकूल है।
देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे समाचार आ रहे हैं कि अनेक किसान प्राकृतिक खेती को अपनाकर पहले के जितना ही उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं (और कहीं-कहीं तो इसे बढ़ा भी रहे हैं)। अंतर केवल यह है कि उनका उत्पादन स्वास्थ्य की दृष्टि से कहीं अधिक बेहतर है और समुचित प्रयास करने के उपारंत उन्हें इसके लिए बेहतर कीमतें भी मिल रही है। दरअसल, बेहतर व्यय क्षमता रखने वाले अनेक परिवारों में स्वास्थ्य के अनुकूल खाद्यों के लिए रुझान भी बढ़ रहा है और वे इसके लिए एक सीमा तक बेहतर कीमत भी देने के लिए तैयार रहते हैं।
बड़े शहरों के कुछ मॉल्स और फूड फेस्टीवल आदि में दोगुनी से भी अधिक कीमत पर ऑर्गेनिक उत्पाद आसानी से बिक जाते हैं। यदि प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों का संबंध ऐसे उपभोक्ताओं से हो जाए, तो निश्चय ही उनकी आय में अच्छी खासी वृद्धि हो सकती है। विश्व के खाद्य बाजार में भी अपेक्षाकृत धनी देशों में प्राकृतिक खेती के उत्पादों के लिए अधिक मांग है, और वहां से इस प्रकार के उत्पादों के लिए अच्छी कीमत प्राप्त हो सकती है। यहां स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम खाद्य की परिभाषा एक ओर तो यह है कि इसमें रासायनिक खाद, कीटनाशक व खरपतवारनाशक आदि का उपयोग न किया गया हो, लेकिन इसके साथ में यह भी है कि फसलें जीएम फसलों से मुक्त कृषि व्यवस्था में उगाई गई हों।
अतः यदि कोई भी देश इस तरह के खाद्यों के उत्पादन में आगे बढ़ता है, तो भविष्य में निश्चय ही उसके उत्पादों के लिए बेहतर कीमत विश्व स्तर पर मिल सकती है।
हालांकि, यह एक अलग बात है कि अनेक शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह नहीं चाहती हैं व उनकी नीतियां व दबाव इसके विपरीत दिशा में हैं। संभवतः यही कारण है कि अनेक विकासशील देशों में प्राकृतिक खेती को उतना महत्व व समर्थन नहीं मिल पा रहा है, जितनी जरूरत है। बावजूद इसके अनेक किसान व विशेषकर महिला किसान, इसे अपने स्तर पर अपनाते जा रहे हैं और इससे प्रसन्न व संतुष्ट भी हैं।
देश के अनेक दूर-दराज के गांवों के ऐसे कई परिवारों और विशेषकर महिलाओं ने बातचीत किए जाने पर बताया कि आमदनी जब बढ़ेगी तब बढ़ेगी, पर फिलहाल उन्हें इस उपलब्धि से ही काफी संतुष्टि है कि उनके परिवार का स्वास्थ्य सुधर गया है व जो खर्च इलाज और दवा पर होता था, वह तो कम हो ही गया है। इसी तरह खेती भी परंपरागत की खेती से से बहुत सस्ती होती है। उन्होंने कहा कि जब खर्च कम हो जाए, स्वास्थ्य अच्छा हो जाए, तो यह भी तो अपने अप में एक प्रगति ही है और एक टिकाऊ प्रगति है।
अनेक वैज्ञानिक अपनी ओर से इस सरल तर्क में यह जोड़ते हैं कि जो प्राकृतिक खेती विशेष तौर पर भारत के अनेक किसान अपना रहे हैं, खेती की यह प्रणाली जलवायु बदलाव के समय में विशेष तौर पर उपयुक्त है। जलवायु बदलाव का सामना करने के प्रायः दो पक्ष बताए जाते हैं, ग्रीनहाउस गैसों को कम करना व जलवायु बदलाव को सहने की क्षमता में वृद्धि करना। प्राकृतिक खेती में अधिक पेड़ों की उपस्थिति के माध्यम से और मिट्टी संरक्षण कर उसकी कार्बन सोखने की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है।
रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि का प्रयोग कम होने से जीवाश्म ईंधन का दबाव कम होता है। खेती सस्ती होने और नकदी खर्च कम होने से जलवायु बदलाव के मौसमी उतार-चढ़ाव सहने की क्षमता बढ़ती है। अतः जलवायु बदलाव कम करने व अनुकूलन के लिए देश और वैश्विक स्तर पर जो बजट उपलब्ध है, वह यदि प्राकृतिक खेती अपनाने वाले किसानों की सहायता के रूप में व्यय किया जाए, तो इससे किसानों बहुत मदद मिलेगी।
प्राकृतिक खेती के प्रसार के माध्यम से गोवंश रक्षा की संभावनाएं और बढ़ जाती हैं, विशेषकर गोबर और गोमूत्र के बेहतर तथा वैज्ञानिक आधार के उपयोग की संभावनाएं भी बहुत बढ़ जाती हैं। अतः गोशालाओं को अधिक सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उनके संचालन में कोई भ्रष्टाचार न हो। साथ में यह भी जरूरी है कि सरकार उस तकनीक पर रोक लगाए, जिसके अंतर्गत केवल बछिया का जन्म होता है और बछड़े के जन्म की संभावना न्यूनतम हो जाती है।
इस तकनीक का नाम सेक्स सॉर्टड सीमेन तकनीक है और इसे तेजी से फैलाया जा रहा है। इसका संतुलित गोवंश विकास पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि संतुलित विकास के लिए किसी भी प्रजाति में नर व मादा दोनों आवश्यक होते हैं। अतः इस प्रकृति-विरोधी तकनीक पर रोक लगाकर प्राकृतिक खेती को और मजबूत किया जा सकता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।