जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में प्राकृतिक खेती Publish Date : 18/01/2025
जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में प्राकृतिक खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दे के रूप में उभर कर आया है। जलवायु परिवर्तन किसी एक देश या राष्ट्र से संबंधित समस्या नहीं है अपितु यह एक वैश्विक समस्या है जो कि समस्त पृथ्वी वासियों के लिए एक गम्भीर चिंता का कारण बनती जा रही है। देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन से भारत सहित पूरी दुनिया में बाढ़, सूखा, कृषि संकट एवं खाद्य सुरक्षा, रोग, प्रवासन आदि का संकट बढ़ रहा है। भारत का भी एक बड़ा तबका (लगभग 60 प्रतिशत आबादी) आज भी कृषि पर ही निर्भर है। इस प्रकार कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का प्रबंधन करना बहुत आवश्यक हो जाता है।
वर्तमान में वर्षा आधारित कृषि कुल बोए गए क्षेत्र (73.3 मिलियन हैक्टर) का 52 प्रतिशत (जो पूरी तरह से वर्षा पर ही निर्भर है), दो-तिहाई पशुधन और 40 प्रतिशत मानव आबादी का घर है और खाद्य उत्पादन में 40 प्रतिशत योगदान देती है। इसमें 83 प्रतिशत श्रीअन्न, 81 प्रतिशत दालें, 70 प्रतिशत तिलहन, 67 प्रतिशत कपास और 40 प्रतिशत धान फसलें ली जाती है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में कृषि, जैव-भौतिक और सामाजिक-आर्थिक दोनों कारकों और उनकी अंतःक्रियाओं से प्रभावित होती है।
लागत प्रभावी शुष्क भूमि खेती तकनीक का उपयोग करके, किसान सिंचाई के लिए जल पर अपनी निर्भरता को कम कर सकते हैं, जो अक्सर जलाशयों या अन्य घटते जलस्रोतों से आता है। इसके अतिरिक्त, उर्वरकों और कीटनाशकों की आवश्यकता को कम करने से वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम करने में मदद मिलती है। मृदा में बढ़े हुए कार्बनिक पदार्थ, कार्बन को बांधने और इसे वायुमंडल से बाहर रखने में मदद करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में मदद कर सकता है। उचित प्रबंध्न तकनीकों से उपज में विस्तार संभव ब्रॉड बेड फर्रो विधि से सोयाबीन की बुआई जलवायु परिवर्तन से मध्य प्रदेश की कृषि पर प्रभाव
वर्षा की परिवर्तनशीलताः अनियमित वर्षा वितरण और अंतर-वार्षिक भिन्नता के कारण बार-बार सूखा और बाढ़ आती रहती है।
फसल पैदावारः अनियमित वर्षा के कारण फसल की पैदावार में 60 प्रतिशत तक की कमी आई है।
फसल की वृद्वि और प्रजननः गर्म तापमान ने फसल की वृद्वि और प्रजनन पर काफी विपरीत प्रभाव डाला है।
कीटः बढ़ते तापमान के कारण कीट समय से पहले उभर सकते हैं। इससे पौधे कीटों के प्रकोप के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
रोगः जलवायु परिवर्तन के कारण फलों के पौधों में नए रोग देखे गये हैं।
मृदा की उर्वराशक्तिः मृदा की उर्वराशक्ति में कमी एक मध्यम स्तर का तनाव कारक है।
घरेलू खाद्य असुरक्षाः फसल के नुकसान और सिंचाई के लिए पानी की कमी के कारण घरेलू खाद्य असुरक्षा उत्पन्न हो गई है।
ईंधन लकड़ी की कमीः सामान्य भूमि पर बढ़ते दबाव के कारण ईंधन की लकड़ी की कमी हो गई है।
पशुधन चाराः सामान्य भूमि पर बढ़ते दबाव के कारण चारे में कमी आई है। 59.74 लाख हैक्टर क्षेत्र में बोई जा रही हैं। इसके अलावा, खरीफ में अन्य प्रमुख फसलें सोयाबीन, धान, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी, तिल और कपास आदि हैं। वहीं, रबी में गेहूं, चना और मटर जैसी मसूर, सरसों, गन्ना और अलसी आदि प्रमुख फसलें हैं। इन फसलों के अलावा कपास और गन्ने की फसलें प्रमुख नकदी फसलें हैं।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव उत्पादन में कमीः ग्लोबल वार्मिंग के कारण विश्वभर के कृषि उत्पादन में गंभीर गिरावट का सामना कर रहा है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, वैश्विक कृषि पर जलवायु परिवर्तन का वुफल प्रभाव नकारात्मक ही होगा। हालांकि कुछ फसलें इससे लाभान्वित भी होंगी। ऐसे में अकेले भारत में ही वर्ष 2010-2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 4.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत के बीच उत्पादन के गिरने की आशंका व्यक्त की गई है। एक शोध के अनुसार यदि वातावरण का औसत तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो इससे गेहूं का उत्पादन 17 प्रतिशत तक कम हो सकता है। इसी प्रकार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन भी 0.75 टन प्रति हैक्टर कम होने की आशंका है।
कृषि योग्य परिस्थितियों में कमीः जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान के उच्च अक्षांश की ओर खिसकने से निम्न अक्षांश प्रदेशों में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। भारत के जल स्रोत तथा भंडार तेजी से सिकुड़ रहे हैं। इससे किसानों को परंपरागत सिंचाई के तरीकों को छोड़कर पानी की खपत कम करने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलें अपनानी होंगी। ग्लेशियर के पिघलने से कई बड़ी नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र में दीर्घावधिक रूप से कमी आ सकती है। इससे सिंचाई के लिए जलाभाव जैसी समस्या से भी दो चार होना पड़ सकता है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के चलते से प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने से पृथ्वी के तीन-चौथाई भूमि क्षेत्र की गुणवत्ता कम हो चुकी है। औसत तापमान में वृद्वि जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले कई दशकों में वैश्विक तापमान में वृद्वि हुई है। औद्योगिकीरण के प्रारंभ से अब तक पृथ्वी के तापमान में लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्वि दर्ज की जा चुकी है। कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जिन्हें एक विशेष तापमान की आवश्यकता होती है।
वायुमंडल के तापमान बढ़ने पर उत्पादन महत्वः उत्पादन शुष्क भूमि क्रिया शुष्क भूमि खेती में फसल विकास के लिए पूरी तरह से वर्षा और मृदा की नमी पर निर्भर करती हैं। भारत में प्राकृतिक खेती पद्वति उन क्षेत्रों में प्रचलित है, जहां वार्षिक वर्षा का स्तर 750 मि.मी. से कम होता है। यह पानी के संरक्षण में भी मदद करता हैै। फसलों को केवल वर्षा से ही पानी मिलता है।
इसके अलावा, शुष्क भूमि पर खेती मृदा के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में भी मदद करती है। यह मृदा के कटाव को कम और जल संरक्षण करके पर्यावरण की रक्षा करने में मदद कर सकती है, पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जैसे-गेहूं, सरसों, जौ और आलू आदि फसलों को कम तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि तापमान का बढ़ना इनके लिए हानिकारक होता है। इसी प्रकार अधिक तापमान के बढ़ने से मक्का, ज्वार और धान आदि फसलों का क्षरण हो सकता है। अधिक तापमान के कारण इन फसलों में दाना नहीं बन पाता अथवा बहुत कम बनता है। इस प्रकार तापमान की वृद्वि इन फसलों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
वर्षा के स्वरूप में बदलावः भारत का दो-तिहाई कृषि क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है। ऐसे क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता वर्षा की अवधि एवं इसकी मात्रा पर निर्भर करती है। वर्षा की मात्रा व स्वरूप में परिवर्तन से मृदा क्षरण और मृदा की नमी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्वि से वर्षा में कमी होती है। इससे मृदा में नमी समाप्त होती जाती है।
इसके अतिरिक्त तापमान में कमी व वृद्वि होने का प्रभाव वर्षा पर भी पड़ता है जिसके कारण भूमि में अपक्षय और सूखे की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव विगत वर्षों से कृषि को गहन रूप से प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा अनुमान है कि मध्य भारत में वर्ष 2050 तक शीत वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक कमी होगी। ऐसा अनुमान है कि पश्चिमी अर्ध-मरुस्थलीय क्षेत्र में सामान्य वर्षा की अपेक्षा अधिक वर्षा होने की आशंका है।
इसी प्रकार मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में वृद्वि एवं वर्षा में कमी से चाय की फसल में भी कमी आ सकती है। कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्वि कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विकतापमान में लगभग 60 प्रतिशत का योगदान करती है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्वि से और तापमान में वृद्वि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले 30-50 वर्षों के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगभग 450 पीपीएम (प्वाइंट्स पर मिलियन) के स्तर तक पहुंच चुकी है।
हालांकि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्वि कुछ फसलों जैसे-गेहूं तथा धान के लिए लाभदायक है। यह प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है और वाष्पीकरण द्वारा होने वाली हानि को कम करती है। इसके बावजूद कुछ मुख्य खाद्यान्न पफसलों जैसे गेहूं की उपज में काफी गिरावट आई है जिसका कारण कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्वि अर्थात तापमान में वृद्वि ही है।
कीट एवं रोगों में वृद्विः जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों और रोगों में वृद्वि होती है। गर्म जलवायु में कीटों की प्रजनन क्षमता बढ़ जाती है। इससे कीटों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है और इसका कृषि पर काफी प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही कीटों और रोगाणुओं को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग करना भी फसल के लिए नुकसानदायक ही होता है।
शुष्क भूमि कृषि का महत्व जल संसाधनों का संरक्षणः शुष्क भूमि पर खेती करने से जल संसाधनों का संरक्षण होता है। इससे वर्षा जल को संग्रहित करने और उसका सर्वाधिक कुशलतापूर्वक उपयोग करने में मदद मिलती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर नियंत्रणः शुष्क भूमि पर खेती ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करके और मृदा में कार्बन को कम करने को बढ़ावा देकर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नियंत्रित करती है। शुष्क भूमि पर खेती करने से पानी का कम उपयोग होता है। उर्वरक और कीटनाशक के उपयोग की आवश्यकता कम होती है। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में भी मदद मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, मृदा में मौजूद कार्बनिक पदार्थ वातावरण से कार्बन को अवशोषित करने में मदद करते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में मदद मिलती है।
पर्यावरण अनुकूलः शुष्क भूमि पर खेती के लिए सभी प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसमें किसी भी प्रकार के कृत्रिम उर्वरक, कीटनाशक या कृत्रिम रसायन की आवश्यकता नहीं होती है, जो संभावित रूप से हवा, पानी या मृदा को दूषित कर सकते हैं। प्राकृतिक खेती मृदा को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। प्राकृतिक खेती अंततः शुष्क मृदा पर खेती को पर्यावरण के अनुकूल बनाती है।
प्राकृतिक खेती की तकनीकें:-
संरक्षण जुताईः इस तकनीक में फसल की कटाई के बाद फसल अवशेषों को खेत में ही छोड़ दिया जाता है, ताकि मृदा को कटाव से बचाया जा सके। इसके साथ ही वाष्पीकरण के माध्यम फसलचक्रण इस तकनीक में, किसान मृदा में पोषक तत्वों की कमी को रोकने के लिए व्यवस्थित रूप से फसलचक्र का चयन करते हैं। कुछ फसलों की जड़ें गहरी होती हैं, ताकि वे पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए भूजल संसाधनों तक पहुंच सकें, जबकि अन्य फसलें मृदा की संरचना में सुधार करती हैं और नमी को बनाए रखती हैं।
प्राकृतिक खेती के लाभः प्राकृतिक खेती से जल हानि को सीमित किया जा सकता है। यह क्रिया मृदा में नमी को बनाए रखती है और मृदा की उर्वराशक्ति में सुधार करती है।
मल्चिंग: मल्चिंग का अभिप्राय मृदा की सतह पर पुआल या प्लास्टिक की फिल्म जैसी जैविक या अकार्बनिक सामग्री को लगाना है। यह पानी के वाष्पीकरण को कम करने, खरपतवारों को नियंत्रित करने और मृदा के तापमान को नियंत्रित करने में मदद करती है। यह प्राकृतिक खेती तकनीक मृदा में नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में मदद करती है। भारी वर्षा के कारण होने वाले अपवाह को कम करती है।
सूखा-सहनशील फसलों का चयनः शुष्क भूमि के लिए ऐसी फसलों का चयन करें, जो लंबे समय तक सूखे का सामना कर सकें। इन फसलों में सीमित जल उपलब्धता के साथ-साथ जीवित रहने के लिए अनुकूली तंत्र होते हैं। ऐसी फसलों के उदाहरणों में बाजरा, ज्वार, चना और गेहूं तथा मकई की कुछ किस्में शामिल हैं।
सरकारी प्रयासः जलवायु परिवर्तन पर निर्मित आठ राष्ट्रीय एक्शन प्लान में से एक (राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन) कृषि क्षेत्र पर भी केंद्रित है। राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर-एन.एम.एस.ए.) राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन वर्ष 2008 में शुरू किया गया। यह मिशन ‘अनुकूलन’ पर आधारित है। इस मिशन के द्वारा भारतीय कृषि को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक प्रभावी एवं अनुकूल बनाने हेतु कार्यनीति बनाई गई।
इस मिशन के उद्देश्यों में कुछ प्रमुख बातों पर ध्यान दिया गया है जैसे-कृषि से अधिक उत्पादन प्राप्त करना, टिकाऊ खेती पर जोर देना, प्राकृतिक जल-स्रोतों व मृदा संरक्षण पर ध्यान देना, फसल व क्षेत्रानुसार पोषक प्रबंधन करना, भूमि-जल गुणवत्ता बनाए रखना तथा शुष्क कृषि को बढ़ावा देना इत्यादि।
इसके साथ ही इसमें वैकल्पिक कृषि पद्वति को भी अपनाया जाएगा और इसके तहत जोखिम प्रबंधन, कृषि संबंधी ज्ञान सूचना तथा प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त, मिशन को परंपरागत ज्ञान और अभ्यास प्रणालियों, सूचना प्रौद्योगिकी, भू-क्षेत्रीय एवं जैव प्रौद्योगिकियों के एकीकरण से सहायता मिलेगी।
जलवायु अनुरूप कृषि पर राष्ट्रीय नवाचारः यह राष्ट्रीय पहल, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक नेटवर्क प्रोजेक्ट है, जो फरवरी वर्ष 2011 में आया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य रणनीतिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी प्रदर्शन द्वारा जलवायु परिवर्तन एवं जलवायु सुभेद्यता के प्रति भारतीय कृषि की क्षमता को बढ़ाना है। इसे ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को उच्च प्राथमिकता पर रखा है।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत निम्न 4 अवयव आते हैं-रणनीतिक अनुसंधान प्रौद्योगिकी, प्रतिपादन प्रायोजित एवं प्रतियोगी अनुदान क्षमता निर्माण इसके प्रमुख बिन्दुओं में भारतीय कृषि (फसल, पशु इत्यादि) को जलवायु वर्षा जल संरक्षण के लिए फार्म, तालाब, स्प्रिंक्लर विधि से सिंचाई परिवर्तनशीलता के प्रति सक्षम बनाना, जलवायु सह्य कृषि अनुसंधान में लगे वैज्ञानिकों व दूसरे हितधारकों की क्षमता का विकास करना तथा किसानों को वर्तमान जलवायु संकट के अनुकूलन हेतु प्रौद्योगिकी पैकेज का प्रदर्शन दिखाने का उद्देश्य रखा गया है।
अतः कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक और भारतीय कृषि व्यवस्था पर बड़े स्तर पर प्रभाव डालता है। उपरोक्त सुझावों व तकनीकों को अपनाकर कृषि व्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाया जा सकता है। ऐसा करना वर्तमान समय की आवश्यकता है अन्यथा भविष्य में इसके हानिकारक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। इसी दिशा में अर्थात भारतीय कृषि को जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल और सक्षम बनाने में भारत सरकार द्वारा किये गए प्रयास भी सराहनीय हैं।
इस प्रकार कृषि को जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से बचाने के लिए हमें मिल-जुलकर पर्यावरण मैत्री तरीकों को प्राथपमिकता देनी होगी, ताकि प्राकृतिक संसाधन को बचा सकें और कृषि व्यवस्था को अनुकूल बना सकें।
लाभः शुष्क भूमि कृषि करना कठिन कार्य है, लेकिन इससे सीमित जल संसाधनों वाले क्षेत्रों में भी अच्छी फसलें उत्पादित की जा सकती हैं। इससे पर्यावरण में जल संरक्षण होता है। सिंचित क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा उपज मिल सकती है। मृदा अपरदन कम होता है और मृदा में पानी का प्रवेश बढ़ता है। सिंचाई की लागत कम होती है। इससे खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। ग्रामीण आजीविका को बढ़ाता है्र और जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन को भी बढ़ाता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।