प्राकृतिक खेती की वस्तुस्थिति Publish Date : 02/06/2023
प्राकृतिक खेती की वस्तुस्थिति
प्राकृतिक खेती असललियत में क्या है? खेती की इस पद्धति में किसान स्वयं अपने घर में ही दो प्रकार की खाद तैयार करते है, जिनमें से एक को नाम जीवामृत तथा दूसरी खाद को घनजीवामृत कहते हैं। इस पद्धति में आवश्यक है एक गाय अर्थात देशी नस्ल की भारतीय गाय।
विभिन्न प्रयोगशाला के परीक्षणों के उपरांत यह सिद्व हो चुका है कि देशी गाय के एक ग्राम गोबर में 300 से लेकर 500 करोड़ जीवाणु उपलब्घ होते हैं, जो धरती की उर्वरा शक्ति में प्रचुर मात्रा में बढ़ोत्तरी करते हैं। वहीं विदेशी नस्ल की विभिन्न प्रजातियों की गाय जैसे जर्सी, होल्स्टीन तथा फ्राइजियन आदि गायों के एक ग्राम गोबर में 70 से 80 लाख जीवाणु ही उपलब्ध होते है।
इससे तथ्य से हमें पता होता हैं कि इन दोनो गाय में कितना अंतर है। देशी गाय जो दूध नही देती है, उसके गोबर में जीवाणुओं की संख्या और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि उसकी जो ताकत दूध देने में लगती है, और अब जीवाणुओं की संख्या को बढ़ाने के काम आती है इसलिए महाभारत में गाय को अमृत कलश कहा है और साथ ही दर्शाया गया है कि गाय के अतुलनीय गुणों के कारण आज संम्पूर्ण विश्व गाय के आगे नतमस्तक है।
इस पद्धति के अन्तर्गत एक देशी गाय के माध्यम 30 एकड भूमि पर कृषि की जा सकती है जबकि जैविक खेती की दशा में 30 गाय से एक एकड़ में कृषि की जाती। यह एक मुख्य अन्तर है, जैविक और प्राकृतिक खेती में, इसके साथ ही यह खेती इतनी सरल है कि इससे जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। जल की खपत 70 प्रतिशत तक कम हो जाती है. तथा इसके साथ ही गाय के इस उपयोग के कारण गोमाता प्राणों की रक्षा भी हो सकेगी।
प्राकृतिक खेती से किसान, ऋणि होने से बचेगा इस पद्धति के द्वारा खेती करने से हमारे पर्यावरण की बचत भी हो सकेगी। इस प्रकार प्राकृतिक खेती करने से किसी भी प्रकार का मानव के शरीर पर कोई दुष्परिणाम नही पड़ता है।
पोषक तत्वों का महत्व
प्राकृतिक खेती का सबसे पहला और प्रमुख सिद्धान्त यह है कि हमें पौधों का नही अपितु अपनी जमीन के स्वास्थ्य को सुदढ़ करना है। क्योंकि यदि जमीन का स्वास्थ्य अच्छा होगा तो पौधों का स्वास्थ्य भी अपने आप ही अच्छा रहेगा। जमीन का स्वास्थ्य सुदृढ़ होने से किसी भी प्रकार का पौधा मौसम एवं वायुमण्डल की विविधताओं के साथ लड़ने में सक्षम हो जाता है।
अतः भविष्य की वायुमंडल की संभावित विषम परिस्थितियों को देखते हुए यदि भारतीय कृषि को उसके प्रतिकूल प्रभावों बचाकर आगे ले जाना है, तो हमारे समक्ष कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती को अपनाना ही एकमात्र विकल्प होगा। विश्व स्तर पर आज तक लगभग जितने भी प्रयास किये गये, वह सभी जैविक खेती पर ही आधारित है।
कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती पर नहीं के बारबर प्रयास किये गये है। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि जैविक खेती में प्रथम 3 से 5 साल तक फसलों की उत्पादकता कम ही रहती है। विभिन्न वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि अधिक पैदावर लेने के लिए हमे रासायनिक व जैविक दोनों पद्धतियों का समन्वित प्रयोग करना चाहिए।
कम लागत के द्वारा प्राकृतिक खेती पदमश्री पुरस्कार से सम्मानित डा० सुभाष पालेकर द्वारा प्रदान की गयी एक ऐसी कृषि पद्धति है। जिसमें किसान को नगद पैसे की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। इस कृषि पद्धति में जिन उत्पादों का प्रयोग किया जाता हैं, उन सभी को घर पर ही आसानी के साथ तैयार किया जा सकता हैं। बाजार से कुछ भी खरीदने की आवश्यकता ही नही पड़ती है। यह कृषि पद्धति देशी गाय आधारित पद्धति है, जिससे एक देशी गाय से 30 एकड़ की की जा सकती है।
गेहूँ की फसल में अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और सर्दियों में पोषक तत्व की भूमि में गतिशीलता के कम होने के कारण उनकी उपलब्धता और भी कम हो जाती है। इसलिए जिन स्थानों पर अधिक पैदावर देनें वाली किस्मों की बीजाई की जाती है, उन स्थानों पर बीजाई से पहले पलेवा करते समय 600 लीटर जीवामृत सिंचाई के साथ देना चाहिए तथा पलेवा से पहले 200 किग्रा0 घनजीवामृत का प्रयोग करना चाहिए।
इसी प्रकार इतनी ही मात्रा में जीवामृत और घनजीवामृत पहली सिचाई के समय भी प्रदान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि आवश्यकता पडे तो 2-3 बार 10 प्रतिशत जीवामृत का छिड़काव भी करना चाहिए। इससे पैदावर में कमी नहीं आती है और कम पैदावर देने वाली गेहूँ की देशी किस्म में भी आसानी से पोषक तत्वों की पूर्ति हो जाती है।
अतः स्पष्ट है कि कम लागत से प्राकृतिक खेती में किसान को पहले वर्ष से ही पूरी पैदावर प्राप्त होती है। खाद या कीटनाशक दवाओं के नाम पर कोई भी उत्पाद बाजार से नहीं खरीदना पड़ता। खेत तथा फसल मे मकड़ी, मेढक, मांसाहारी कीट एवं फंगस आदि पैदा हो जाते है। जो फसल को को बीमारियों के प्रकोप से बचाते हैं। सूखे के समय भी पौधे के पत्ते पानी की कमी को सहन कर पाने में सक्षम हो जाते है। भारी बारिश होने पर खेत की जमीन बहुत जल्दी पानी को सोखने में भी सक्षम हो जाती है। इस प्रकार प्राकृतिक खेती की लागत कम होने के साथ ही सिंचाई के पानी की बचत होती है।
धान और गेहूँ की फसले बहुत लम्बे समय से लगातार उगाने के कारण जमीन को भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा बिगड जाती है, जिससे खेतों में दलहनी व तिलहनी आदि फसलों को लेना एक जोखिमपूर्ण काम हो जाता है। लेकिन कम लागत प्राकृतिक खेती करने से भूमि के इन गुणों में भरपूर सुधार होता है और दलहनी व तिलहनी की फसले भी शुद्ध या अन्तर्वतीय फसलों के रूप में सफलता पूर्वक उगायी जा सकती है।
कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती के अन्तर्गत कंचुएँ की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। श्री पालेकर जी के अनुसार अकेले केचुओं के माध्यम से 214 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति एकड़ (535 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर) का भूमि में स्थिरीकरण होता है। इसके अतिरिक्त सहफसलों के रूप में दलहनी फसले नाइट्रोजन के स्थिरीकरण में मुख्य भूमिका निभाती है।
इस प्रकार कंचुऐं नाइट्रोजन स्थिरीकरण के साथ-साथ भूमि के भौतिक गुणों में भी आवश्यक सुधार करते हैं। यदि देशी गाय का गोबर व गोमूत्र खेत में प्रयोग किया जाये तो इसमें ऐसे गुण व सुगन्ध विद्यमान होते है जो कि कंचुओं को स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित करते हैं जिससे इनकी संख्या में चमत्कारिक रूप से वृद्धि होती है।
एक आँकलन के अनुसार कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती के माध्यम से विकसित एक एकड़ भूमि में 8-10 लाख कंचुऐं दिन-रात मजदूरों की तरह कार्य करते रहते हैं। कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती के विभिन्न पहलुओं पर आज हमें मिलकर विचार एवं उन्हें कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गुरुकुल कुरुक्षेत्र में प्राकृतिक खेती को फार्म पर कृषि विभाग, केन्द्र व राज्य सरकारों के सहयोग से 180 एकड़ के फार्म को इस पद्धति से क्रियान्वित किया गया है। भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान मोदीपुरम के साथ मिलकर तथा चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के सहयोग से यह कार्य किया जा रहा है।
जिन खेतों में पिछले 4 से 10 साल से निरंतर प्राकृतिक खेती की जा रही है, उनकी रासायनिक संरचना बहुत ही अच्छी पायी गयी। जांच में पाया गया कि ऐसे खेतों में जैविक कार्बन की स्थिति 0.70-1.08 प्रतिशत तक अर्थात प्रमुख मात्रा के अन्तर्गत पायी गयी है। दूसरे पोषक तत्वों जैसे फास्फोरस, पोटाश एवं सूक्ष्म तत्वों (जिंक, लोहा, मैगनीज एवं कॉपर) आदि की उपलब्धता भी काफी अच्छी मिली है। इन खेतो में जो भी फसल ली जाती है, उनमें केवल 2-3 बार जीवामृत एवं 1-2 बार घनजीवामृत का प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ती है।
इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार कीट व बीमारी प्रबन्धन के लिए जितने भी उत्पाद प्रयोग किये जाते हैं, उनमें भी पोषक तत्वों की मात्रा भरभूर होती है। ये फसल सुरक्षा में प्रयोग होने वाले उत्पाद भी फसल की बढ़वार व पैदावार बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, जो खेत अच्छी तरह से विकसित हो चुके हैं, उन खेतों में धान की असुगन्धित अथवा संकर किस्मो की पैदावर 30 किंवटल प्रति एकड़ से अधिक एवं गन्ने की पैदावर 500 क्विटल प्रति एकड़ से अधिक ली जा रही है, अतः इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि 04 वर्ष की प्राकृतिक खेती के बाद बहुत ही कम इनपुट डालकर भी भरपूर पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
यहाँ पर यह बताने का प्रयास किया गया है कि कम लागत द्वारा प्राकृतिक खेती की व्यवहारिक पद्धति है और इसके अपनाने से न केवल छोटे व सीमान्त किसान लाभान्वित होगें अपितु इसके माध्यम व बड़े किसान भी लाभान्वित होंगे।
जीवामृत (जीव अमृत) तैयार करने की विधि
बार-बार प्रयोग करने के पश्चात यह परिणाम निकला कि एक एकड़ जमीन के लिए 10 गोबर के साथ गोमूत्र, गुड और दो दले बीजों का आटा अथवा बेसन आदि को मिलाकर प्रयोग में लाने से अत्यन्त ही चमत्कारी परिणाम सामने आते है। इस प्रकार एक सामान्य फॉर्मूले को तैयार किया गया जिसका नाम जीवामृत (जीव अमृत) रखा गया है।
जीवामृत का निर्माण
1. देशी गाय का गोबर देशी गाय का मूत्र- 10 कि0ग्रा0
2. देशी गाय का मूत्र- 8-10 लीटर
3. गुड़- 1-2 कि0ग्रा0
4. बेसन- 1-2 कि0ग्रा0
5. पानी- 180 लीटर
6. पेड़ के नीचें की मिट्टी- 1 कि0ग्रा0
उपरोक्त सम्पूर्ण सामग्री को प्लास्टिक के एक ड्रम में डालकर लकड़ी के डण्ड़े से घोलना है और इस घोल को दो से तीन दिन तक सड़ने के लिए छाया में रख देना है। प्रतिदिन दो बार सुबह-शाम घड़ी की सुई की दिशा में लकड़ी के डण्डे से दो मिनट तक इसे घोलना है और जीवामृत को बोरे से ढक देना है। इसके सड़ने से अमोनिया, कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन जैसी हानिकारक गैसों का निर्माण होता है।
गर्मी के महीनों में जीवामृत बनने के बाद सात दिन तक उपयोग में लाना है और सर्दी के महीनों में 8 से 15 दिन तक इसका उपयोग किया जा सकता हैं। उसके बाद बचा हुआ जीवामृत भूमि पर फेंक देना है।
इस प्रकार दिसम्बर के महीने में गुरूकुल में तैयार किए गए जीवामृत पर एक वैज्ञानिक शोध किया गया जिसमें जीवामृत तैयार करने से 14 दिन बाद सबसे अधिक 7400 करोड़ जीवाणु (बैक्टीरिया) उपलब्ध पाए गए। इसके बाद इसकी संख्या घटनी शुरू हो जाती है। गुड और बेसन दोनों ने ही जीवाणुओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई गोबर, गोमूत्र व मिट्टी के मेल से जीवाणुओं की संख्या केवल तीन लाख पाई गई।
इसके उपरांत जब इसमें बेसन मिलाया गया तो इनकी संख्या बढ़कर 25 करोड़ हो गई और जब इन तीनों में बेसन के स्थान पर गुड मिलाया गया तो इनकी संख्या 220 करोड़ हो गई, वहीं जब गुड एवं बेसन दोनों को एक साथ ही इसमें मिलाया गया अर्थात जीवामृत के सम्पूर्ण घटकों (गोबर गोमूत्र, गुड बेसन व मिट्टी) मिलाया गया तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए और जीवाणुओं की संख्या बढ़कर 7400 करोड़ हो गई। इस जीवामृत जब सिंचाई के साथ खेत में डाला जाता है तो भूमि में जीवाणुओं की संख्या अविश्वसनीय रूप से बढ़ जाती है और भूमि के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में पर्याप्त रूप से वृद्धि होती है।
जीवामृत का प्रयोग
जीवामृत को महीने में एक या दो बार उपलब्धता एवं आवश्यकता के अनुसार, 200 लीटर प्रति एकड़ की दर से सिंचाई के पानी के साथ देने पर, इससे खेती मे चमत्कार होता है। वहीं फलों के पेड़ों के पास, दोपहर में 12 बजे जो छाया पडती है उस छाया के पास प्रति पेड़ 2 से 5 लीटर जीवामृत भूमि पर महीने में एक बार या दो बार गोलाकार डालना होता है। जीवामृत का प्रयोग करने के समय भूमि में पर्याप्त नमी होना भी अत्यन्त आवश्यक है।
जीवामृत का छिड़काव
गन्ना, केला, गेहू, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, चना, सूरजमुखी, कपास, अलसी, सरसों, बाजरा, मिर्च, प्याज, हल्दी, अदरक, बैंगन, टमाटर, आलू, लहसुन, हरी सब्जिया, फूल, औषधियुक्त पौधे, सुगन्धित पौधे आदि सभी पर 2 से लेकर 8 महीने तक जीवामृत छिड़कने की विधि अग्रलिखित प्रकार से है। अतः महीने में कम से कम एक बार, दो बार अथवा तीन बार जीवामृत का छिड़काव विधि के अनुसार करना चाहिए।
खड़ी फसल पर जीवामृत का छिड़काव:
60 से 90 दिन की फसलें
पहला छिड़काव: बीज की बुआई के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 100 लीटर पानी में 5 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
दूसरा छिड़काव: पहले छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत को मिलाकर छिडकाव करें।
तीसरा छिड़काव: दूसरे छिडकाव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ या लस्सी मिलाकर छिडकाव करें।
90 से 120 दिन की फसले
पहला छिड़काव: बीज बुआई के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 100 लीटर पानी में 50 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
दूसरा छिड़काव: पहले छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 150 लीटर पानी में 10 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
तीसरा छिड़काव: दूसरे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
चौथा और अन्तिम छिड़काव: जब दाने दूध की अवस्था में अथवा फल बाल्यावस्था में हो तो प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ अथवा 2 लीटर नारियल का पानी मिलाकर छिड़काव करें।
120 से 135 दिन की फसलें:
पहला छिड़काव: बीज बुआई के एक माह बाद प्रति एकड की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करे।
दूसरा छिड़काव: पहले छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 150 लीटर पानी में 10 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करे।
तीसरा छिड़काव: दूसरे छिडकाव के 21 दिन बाद प्रति एकड की दर से 200 लीटर पानी और 5 लीटर खट्टी छाछ या लस्सी मिलाकर छिडकाव करें।
चौथा छिड़काव: तीसरे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिडकाव करें।
पांचवा और अन्तिम छिड़काव: जब दाने दूध की अवस्था में अथवा फल बाल्यावस्था में हो तो प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ अथवा 2 लीटर नारियल का पानी मिलाकर छिड़काव करें।
135 से 150 दिन की फसलें
पहला छिड़काव: बीज बुआई के एक माह बाद प्रति एकड़ की दर से 100 लीटर पानी में 5 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
दूसरा छिड़काव: पहले छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 150 लीटर पानी में 10 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
तीसरा छिड़काव: दूसरे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ अथवा लस्सी मिलाकर छिड़काव करें।
चौथा छिड़काव: तीसरे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
पांचवा छिड़काव: चौथे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
अन्तिम छिड़काव: जब दाने दूध की अवस्था में अथवा फल बाल्यवस्था में हो तो प्रति एकड एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ अथवा 2 लीटर नारियल का पानी मिलाकर छिड़काव करें।
165 से 180 दिन की फसलें
पहला छिड़काव: बीज बुआई के एक माह बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 150 लीटर पानी में 5 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
दूसरा छिड़काव: पहले छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 150 लीटर पानी में 10 लीटर कपड़े से छाना हुआ जीवामृत मिलाकर छिडकाव करें।
तीसरा छिड़काव: दूसरे छिडकाव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ अथवा लस्सी मिलाकर छिडकाव करें।
चौथा छिड़काव: तीसरे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड़ एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
पांचवा छिड़काव: चौथे छिड़काव के 21 दिन बाद प्रति एकड एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिडकाव करें।
आखिरी छिड़काव: जब दाने दूध की अवस्था में अथवा फल बाल्यावस्था में हो तो प्रति एकड़ एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में 20 लीटर जीवामृत मिलाकर छिड़काव करें।
गन्ना, केला, पपीता की फसल पर जीवामृत का छिड़काव:
इन फसलों पर बीज बोने अथवा रोपाई के बाद पांच महीने तक ऊपर दी गई विधि के अनुसार छिडकाव करें। उसके बाद प्रति 15 दिन में प्रति एकड़ एकड़ की दर से 20 लीटर जीवामृत कपडे से छानकर 200 लीटर पानी में घोल बनाकर गन्ना, केला तथा पपीते के पौधों पर छिडकाव करें।
सभी फलदार पेड़ों पर जीवामृत का छिड़काव
समस्त फलदार पौधें (चाहे उनकी उम्र कोई भी हो), पर महीने में दो बार जीवामृत का छिडकाव करें। परिमाण अर्थात मात्रा 20 से 30 लीटर जीवामृत को कपड़े से छानकर 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़कना है। फल पकने से 2 महीने पहले फलदार पौधों पर नायिरल का पानी 2 लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें। इसके 15 दिन बाद 5 लीटर खट्टी छाछ या लस्सी 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
बीजामृत (बीज अमृत)
किसान मित्रों: बुआई करने से पहले बीजी का सस्कार अर्थात् शोधन करना बहुत ही आवश्यक है तथा इसके लिए बीजामृत बहुत ही उत्तम है। जीवामृत की भाँति ही बीजामृत में भी वही सामग्री डाली जाती है जो कि किसानों के आस-पास बिना किसी मूल्य के उपलब्ध होती हैं। बीजामृत निम्नलिखित सामग्री से बनाया जाता है -
1. देशी गाय का गोबर -05 कि0ग्रा0
2. गोमूत्र -05 लीटर
3. चूना या कली -250 ग्राम
4. पानी -20 लीटर
5. खेत की मिट्टी -एक मुट्ठी
इन सभी पदार्थों को पानी में घोलकर 24 घंटे तक रखें। दिन में दो बार लकड़ी से इसे हिलाना होता है। इसके बाद बीजों के ऊपर बीजामृत डालकर उन्हें शुद्ध करना है। उसके बाद बीज को छाया में सुखाकर फिर बुआई करनी होती है। बीजामृत द्वारा शुद्ध हुए बीज शीघ्र एवं अधिक मात्रा में अंकुरित होते है और उनकी जड़ों का विकास भी तेजी से होता है। पौधे, भूमि के द्वारा लगने वाली बीमारियों से बचे रहते है एवं अच्छी प्रकार से पलते-बढ़ते है।
गाय का गोबर सूक्ष्म पोषक तत्व, स्थूल पोषक तत्व और लाभकारी जीवाणुओं को जोड़ता है। गोमूत्र एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-फंगल गुणों से युक्त होता हैं जो बीजों को इनसे बचाने में मदद करते है। हम गोमूत्र की अम्लीय प्रकृति को संतुलित करने के लिए चूना पत्थर या चूना मिलाते है। यह घोल भूमि के पीएच स्तर को बनाए रखने में सहायता करता है। इसलिए चूना पत्थर मिलाना बहुत आवश्यक होता है एक बार जब इन सामग्रियों को व्यवस्थित कर लिया जाता हैं, तो उसके बाद निम्नलिखित प्रक्रिया का पालन करना होता है-
इस घोल का उपयोग सब्जी के पौधों की जड़ों के उपचार के लिए भी किया जा सकता है। रोपण से पहले जड़ों को कुछ सेकंड के लिए घोल में डुबोकर पौध निकालकर खेत अथवा बगीचे आदि में इनकी रोपाई करनी चाहिए। बीजामृत का उपयोग खेती के साथ-साथ बागवानी के लिए भी किया जा सकता है।
घनजीवामृत
घनजीवामृत भी इसी प्रकार से बनाया सकता है। घनजीवामृत बनाने के लिए क्या-क्या करना होता है-
1. देशी गाय का गोबर -100 कि0ग्रा0
2. गुड़ -01 कि0ग्रा0
3. दलहन का आटा (अरहर, चना मूँग अथवा मटर) -02 कि0ग्रा0
4. गोमूत्र -सूक्ष्म मात्रा में
5. खेत की मिट्टी -एक मुट्ठी
उपरोक्त सभी पदार्थों को अच्छी तरह से मिलाकर गूंथ लें ताकि उसका हलवा, लड्डू जैसा गाढ़ा बन जाये। उसे 2 दिन तक बोरे से ढककर रखे और इसके ऊपर थोड़ा सा पानी छिड़क दें। बाद में इसे इतना घना बनाएं, जिससे कि इसके लड्डू बन जाएं। अब इस घनजीवामृत के लड्डू को कपास, मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिण्डी, सरसो के बीज के साथ भूमि पर रख दें तथा इसके ऊपर सूखी घास डाल दें।
यदि आपके पास ड्रिप सिंचाई प्रणाली उपलब्ध है तो घनजीवामृत के ऊपर सूखी घास रखकर घास पर डिपर से पानी डालें। इन घनजीवामृत के लड्डूओं को पेड-पौधों के पास रखा जा सकता है ताकि जीवामृत की पहुँच पेड़-पौधों की जड़ों तक हो सके ध्यान रहे कि इन लड्डुओं का प्रयोग करते समय भूमि में नमी नही होनी चाहिए।
सूखा घनजीवामृत-
इस गीले घनजीवामृत को छाया या हल्की धूप में अच्छी तरह फैलाकर सुखा लेना चाहिए और सूखने के बाद इसको लकड़ी के डण्ड़ें से पीटकर बारीक कर लेना चाहिए तथा इसको बोरो में भरकर छाया में भंडारित करना चाहिए। इस घनजीवामृत सुखाकर 6 महीने तक सुरक्षित रखा जा सकता हैं। सूखने के बाद इस घनजीवामृत में उपस्थित सूक्ष्म जीव समाधि लेकर कोष धारण करते है जब इस घनजीवामृत को भूमि में डाला जात हैं, तब भूमि में नमी मिलते ही ये सूक्ष्म जीव अपने कोष को तोडकर समाधि को भंग करके पुनः आपने कार्य में लग जाते है।
यदि गोबर अधिक मात्रा में उपलटध है, तो उसके लिए अधिक मात्रा में घनजीवामृत बनाकर सीमित फसलों में गोबर खाद के साथ मिलाकर इसका प्रयोग करना चाहिऐं। इसका उपयोग करने के उपरांत बड़े ही चमत्कारी परिणाम प्राप्त होते हैं।
किसी भी फसल की बुआई के समय प्रति एकड़ की दर से 100 किग्रा छाना हुआ गोबर खाद और 100 किग्रा घनजीवामृत मिलाकर बीज की बुआई करने पर बहुत ही अच्छे परिणाम प्राप्त होतेे है। यह परीक्षण प्रत्येक फसल और फलदार पौधों में किया जा चुका है जिसके बहुत ही चमत्कारी परिणाम प्राप्त हुए है। इसके प्रयोग से रासायनिक खेती अथवा जैविक खेती में भी अधिक उपज प्रात की जा सकती है।
फसल सुरक्षा के लिए उपाय
किसी भी फसल अथवा फलदार पेड़ों पर छिड़काव के लिए घर पर ही कम लागत से दवा बनाना-
1. नीमास्त्र: रस चूसने वाले कीट एवं छोटी सुण्डी इल्लियों के नियन्त्रण के लिए-
बनाने की विधि: पांच किलो नीम की हरी पत्तियों अथवा नीम के पांच कि0ग्रा0 सूखे फल लेकर इन पत्तियों या फलों को कूटकर रखें। 100 लीटर पानी में यह कुटी हुई नीम की पत्तियाँ या फल का पाउडर डाल दें। अब इसमे 5 लीटर गोमूत्र डाल दें और एक किलो देशी गाय का गोबर भी मिला लें। लकड़ी से उसे घोले और ढककर 48 घंटे तक रखे। इसे दिन में तीन बार घोले और 48 घंटे के बाद उस घोल को कपड़े से छान लें। अब यह फसल पर छिडकाव के लिए तैयार है।
2. ब्रह्मास्त्र: कीडो, बड़ी सुन्डियों व इल्लियों के लिए-
बनाने की विधिः 10 लीटर गोमूत्र लेकर उसमे 3 कि0ग्रा0 नीम के पत्ते पीसकर डाल दें साथ ही इसमे 2 किग्रा करंज के पत्तंे भी डाल दें। यदि करंज के पत्ते न मिले तो 3 कि0ग्रा0 के स्थान पर 5 कि0ग्रा0 नीम के पत्ते डाल दें तथा 2 कि0ग्रा0 सीताफल के पत्ते पीसकर डाल दें। सफेद धतूरे के 2 कि0ग्रा0 पत्ते भी पीसकर इसमें ही डाल दें।
अब इस सारे मिश्रण को गोमूत्र में घोल और ढक कर उबाल लंे और 3-4 उबाल आने के बाद उसे आग से नीचे उतार लें। 48 घंटो तक उसे ठण्डा होने के लिए रख दें। बाद में उसे कपड़े से छानकर किसी बड़े बर्तन में भरकर रख लें। अब यह ब्रह्मास्त्र तैयार है। 100 लीटर पानी में 22.5 लीटर मिलाकर फसल पर छिडकाव करना चाहिए।
3. अग्नि अस्त्र (अग्न्यस्त्र): पेड़ के तनों अथवा डंठलों में रहने वाले कीडे, फलियों में रहने वाली सुडियों, फलों में रहने वाली सुंडियाँ तथा सभी प्रकार की बडी सुडियो व इल्लियों के लिए-
बनाने की विधिः 20 लीटर गोमूत्र लेकर उसमें आधा कि0ग्रा0 हरी मिर्च कूटकर डाल दें तथा आधा कि0ग्रा0 लहसुन को भी पीसकर इसमें ही डाल दें। अब नीम के 5 कि0ग्रा0 पत्ते पीसकर इसमें डाल दें तथा लकड़ी के डण्डे से इसको घोले और उसे एक बर्तन में उबालें तथा 4-5 उबाल आने के बाद इसे नीचे उतार लें। 48 घंटे तक ठण्डा होने के लिए छोड़ दे। 48 घंटे के बाद इस घोल को कपडे से छानकर फसल पर छिड़काव करें।
4. फंगीसाइड: 100 लीटर पानी में 3 लीटर खट्टी छाछ या लस्सी मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। यह कवक नाशक है, सजीवक है और विषाणुरोधक है जो बहुत ही उत्तम कार्य करता है।
5. दशपर्णी अर्क दवाः एक ड्रम अथवा मिट्टी के बर्तन में 200 लीटर पानी लें और इसमे 10 लीटर गोमूत्र डालें। 2 किग्रा देशी गाय का गोबर डालें और अच्छी इसे तरह से घोलें। बाद में इसमें 5 कि0ग्रा0 शरीफा के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 करन्ज के पत्त,े 2 कि0ग्रा0 अरडी के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 धतूरे के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 बेल के पत्ते, 2 कि0ग्रा0. मदार के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 बेर के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 पपीते के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 बबूल के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 अमरूद के पत्ते, 2 कि.ग्रा जांसवद के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 तरोटे के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 बावची के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 आम के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 कनेर के पत्ते, 2 कि0ग्रा0 देशी करेले के पत्ते तथा 2 कि.ग्रा. गेंदे के पौधों के टुकडों को डाल दें।
उपरोक्त वनस्पतियों में से कोई दस वनस्पति डालें। यदि आपके क्षेत्र में उपलब्ध अन्य औषधयुक्त वनस्पतियों की जानकारी है, तब उसकी भी 2 कि0ग्रा0 पत्तियों को उसमें ही डालें। उपरोक्त सभी प्रकार की वनस्पतियों को डालने की आवश्यकता नहीं। बाद में इसमें आधा से एक कि0ग्रा0 तक खाने का तम्बाकू डाल दें और आधा कि0ग्रा0 तीखी चटनी डाले।
तदोपरान्त उसमें 200 ग्राम सोठ का पाउडर व 500 ग्राम हल्दी का पाउडर भी डाल दें। अब इस सामग्री को लकड़ी से अच्छी तरह घोले दिन में दो बार सुबह-शाम लकड़ी से घोलना है, घोल को छाया में रखें। इसे वर्षा के जल और सूर्य की रोशनी से बचाएं। इसको 40 दिन तैयार होने में लगते हैं। 40 दिन में दवा तैयार हो जाती है बाद में इसे कपडे से छान लें और ढककर रख लें। इसे 6 महिने तक प्रयोग किया जा सकता है। 200 लीटर पानी में यह 5 से 6 लीटर दशपर्णी अर्क कहीं भी कीट नियंत्रण के लिए छिड़कें। यह बहुत ही असान और असरदार दवा है।
किसी भी प्रकार की फसल अथवा फलदार वृक्षों के ऊपर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करने के लिए अपने घर पर ही कम लागत पर असरदार दवाई किस प्रकार बनाएं-
1. दशपर्णी अर्कः सभी प्रकार के रस-चूसक कीट तथा समस्त इल्लियों के नियन्त्रण हेतु-
क्र0सं0 आवश्यक सामग्री मात्रा
1. पानी 200 लीटर
2. देशी गाय का गोमूत्र 10 लीटर
3. देशी गाय का गोबर 2 कि0ग्रा0
4. हल्दी पाउडर 500 ग्राम
5. अदरक की चटनी 500 ग्राम
6. हींग पाउडर 10 ग्राम
7. खाने के तम्बाकू का पाउडर 1 कि0ग्रा0
8. तीखी हरी मिर्च की चटनी 1 कि0ग्रा0
9. लहसुन की चटनी 2 कि0ग्रा0
10. नीम के पेड़ की छोटी-छोटी टहनियाँ 2 कि0ग्रा0
11. करन्ज के पत्ते 2 कि0ग्रा0
12. अरण्डी के पत्ते 2 कि0ग्रा0
13. बेल (विल्व) के पत्ते 2 कि0ग्रा0
14. आम के पत्ते 2 कि0ग्रा0
15. धतूरे के पत्ते 2 कि0ग्रा0
16. तुलसी के पौधें की टहनियाँ पुष्प-पत्तियों के साथ 2 कि0ग्रा0
17. अमरूद के पत्ते 2 कि0ग्रा0
18. देशी करेले के पत्ते 2 कि0ग्रा0
19. पपीते के पत्ते 2 कि0ग्रा0
20. हल्दी के पत्ते 2 कि0ग्रा0
21. अदरक के पत्ते 2 कि0ग्रा0
22. बबूल के पत्ते 2 कि0ग्रा0
23. सीताफल के पत्ते 2 कि0ग्रा0
24. सोंठ का पाउडर 200 ग्राम
उपरोक्त वनस्पतियों में से कोई दस वन�