प्राकृतिक खेती से फसल उत्पादन      Publish Date : 20/08/2024

                        प्राकृतिक खेती से फसल उत्पादन

                                                                                                                                                             डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षां रानी

विगत दशकों में भारत ने अपनी निरंतर रूप से बढ़ती हुई जनसंख्या की खद्यान्न की आवश्यकताओं को नवीन कृषि तकनीकों के माध्यम से पूर्ण करने में सफलता अर्जित की है, परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन तकनीकों के द्वारा हमारे उपलब्ध प्राकृति संसाधनों का दोहन भी अविवेकपूर्ण तरीके से किया गया, जिससे वर्तमान में खाद्यान्नों के उत्पादन में गिरावट आने की नई समस्या उत्पन्न हो गई है जो कि भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत नही माना जा सकता है। इस स्थिति में समगतिशील टिकाऊ उत्पादकता को बनाए रखने के लिए प्राकृतिक खेती के सन्दर्भ में कृषि-प्रबन्धन एवं उनके विकास पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक हो गया है।

    जल, भूमि तथा जैव-पदार्थ आदि के प्रबन्धन में आमूल परिवर्तन एवं सामुदायिक सामाजिक गतिशीलता से सम्बन्धित पूर्ण उन्मुखी कारण/अभिविन्यास आवश्यक हो जाता है। भूमि के वास्तविक उपभोक्ताओं तथा भू-स्वामियों को इस हेतु अभिप्रेरित करना भी आवश्यक है, जिससे कि वे विशेषज्ञों के द्वारा प्रदान किये गये परामर्शों को अपने अनुसार विश्लेषित कर अपने भूमि, जल एवं जैविक पदार्थ के उपयोग करने के अपने परम्परागत ज्ञान के साथ उसका तामेल सही रूप में बिठा सके। इस प्रकार के परिवर्तन को लाना और इसके लिए आवश्यक क्ष्मताओं को पैदा करना ही वर्तमान समय की एक अति-महत्वपूर्ण  जरूरत है।

(क) प्राकृतिक खेती में हरित खाद की भूमिका

                                                                 

    कुछ विशेषे पौधों की खेतों में बुआई करके और उनकी उपस्थिति में ही खेत की जुताई करके उन्हें मिट्टी में मिला देने के बाद यह पौधें जमीन में सड़कर उसे पोशक तत्व प्रदान करते हैं ओर इसे ही हरति खाद कहते हैं। अतः हरित खाद का अर्थ ऐसी पत्तेदार फसलों से है जिनकी वृद्वि शीघ्रता के साथ होती है, उनमें काफी हद तक वृद्वि हो जाने काद और फल एवं फूल आने से पूर्व ही उन्हें जोतकर खेत की मिट्टी में दबा दिया जाता है। इन फसलों का विघटन सूक्ष्मजीवों के द्वारा किया जाता है जो ह्नयूमस तथा पौधों के पोषक तत्वों में वृद्वि करते हैं। शस्य प्रणाली के अन्तर्गत इस प्रकार की फसलों के उपयोग को खेतों में हरित खाद देना कहा जाता है।

हरित खादों के उपयोग से मृदा की उर्वरा-शक्ति में वृद्वि होती है। इसके अतिरिक्त हरित खाद के रूप में फलीदार फसलों का उपयोग करने से उनकी जड़ ग्रन्थ्यिों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया वायुमण्ड़लीय नाइट्रोजन का स्थिरकरण करके उसे मृदा में स्थिर करते हैं।

यह मृदा की संरचना में अपेक्षित सुधार करती हैं।

यह मृदा-जल के वाष्पीकरण को प्रभावी रूप से प्रतिबन्धित करती हैं।

यह मृदा की जल-धारण क्षमता में उल्लेखनीय वृद्वि करती हैं।

यह मृदा में में वायु-संचार को सुचरू रूप से बढ़ाती हैं।

गहरी जड़ों वाली हरित खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली फसलें धरमी के नीचे से पोषषक ततवों का अवशोष कर अपने विघटन के बाद उन ततवों को जमीन की ऊपरी सतहों में छोड़ देती हैं। जिससे उन तत्वों का अवशोषण पौधे आसानी के साथ कर लेते हैं।

यह नाइट्रोजन के साथ-साथ अन्य पोषक तत्वों की मात्रा में भी पर्याप्त वृद्वि करती हैं।

हरित खादों के माध्यम से मृदा में मिलाया गया कार्बनिक पदार्थ लाभदायक सूक्ष्मजीवों के लिए एक अच्छा आहार सिद्व होता है जिससे उनकी सक्रियता और कार्यशीलता में वृद्वि होती है।

हरित खाद वाली फसले मृदा के लिए एक आवरण का कार्य करती है तथा मृदा के वायु अपरदन तथा जल के अपरदन को भी कम करती हैं।

अम्लीय मृदाओं में हरित खाद की फसलों को जोतने से जमीन का पी.एच. बढ़ जाता है तथा इसके विपरीत लवणीय मृदाओं में इनकी जुताई करने से मृदा का पी.एच. कम होकर वह उदसीन मृदा का रूप धारण कर लेती है।

हरित खाद वाली फसलों में वृद्वि अत्यन्त तीव्र होती है और इसी कारण से यह खरपतवारों की वृद्वि को भी एक सीमा तक कम कर देती हैं।

इनका मृदा के तापमान पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

हरित खाद में नाइट्रोजन लगभग 2.76 प्रतिशत, फॉस्फोरस 0.24 प्रतिशत तथा पोटाश 2.06 प्रतिशत के अलावा अन्य सभी आवश्यक पोषक तत्व भी अल्प मात्रा में उपलब्ध रहते है। 

भारत के विभिन्न भागों में मृदा एवं जलवायु की अवस्था के अनुसार हरित खाद को देने के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया जाता है-

(क) हरी खाद वाली फसलों उगाकर खेत में ही जात देना- हरी खाद के लिए इस विधि में यह फसलें जिस खेत में उगाई जाती हैं उनकी पलटाई उसी खेत में कर दी जाती है। इस विधि के लिए ढैंचा, ग्वार, सनई तथा लाबिया आदि की फसलें अच्छी होती हैं।

(ख) हरी पत्तियों की खादः इस विधि के अन्तर्गत जब हरी खाद की फसलें उसी खेत में नही उगाई जा सकती, जिसमें उनका उपयोग करा होता है तो उन्हें अन्य खेतों में उगाकर और समय-समय पर उनकी कटाई कर उनकी पत्तियों सहित तने आदि को दूसरे खेतों की मिट्टी में दबा दिया जाता है।

(ग) हरी खाद के रूप में उगाई जाने वाली फसलों के आवश्यक गुण- एक अच्छी हरी खाद की फसल में निम्न गुणों का होना आवश्यक माना जाता है-

यह फसल तेजी के साथ बढ़ने वाली, अच्छी संख्या में पत्तियों वाली तथा शाखादार होनी चाहिए जिससे कि प्रति हैक्टेयर अधिक से अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ को मिलाया जा सके।

यह फसलें फलीदार होनी चाहिए जिससे ये वायुमण्ड़ल में उपस्थित मुक्त नाइट्रोजन का मृदा में अधिक से अधिक स्थिरीकरण हो सके।

इन फसलों के बीज सस्ते तथा आसानी से उपलब्ध हाने आवश्यक हैं।

उक्त फसलें कीट एवं रोगरोधी भी होनी चाहिए।

हरित खाद के रूप में उगाई जाने वाली फसलों का कम पानी चाहने वाली होना भी एक आवश्यक गुण है।

(घ) हरित खाद की तकनीकी- हरित खाद के लिए फसलों का चुनाव करते समय नीचे दिये गये बिन्दुओं पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता होती हैं-

हरति खाद के रूप में उगाई जाने वाली फसल को सभी प्रकार की मृदाओं में उगने में सक्षम होना एक अनिवार्य गुण है।

अच्छी हरी खाद के लिए नम जलवायु का होना आवश्यक है जिसके लिए कम से कम 25 इंच वर्षा का होना भी आवश्यक है।

यदि धान की फसल के लिए हरित खाद की फसल को उगाया जाना है तो उसकी बुआई मार्च माह के मध्य तक कर देनी चाहिए।वहीं यदि रबी की फसल को हरित खाद देना है तो प्रथम वर्षा के अरम्भ होते ही जून में हरित खाद वाली फसल की बुआई की जानी चाहिए।

हरित खाद की फसलों में जिस समय कहीं कही फूल निकलान शुरू होते है तो यही समय खेतों में इनकी पलटाई के लिए उपयुक्त रहता है।

खरफ की फसल के लिए हरित खाद की फसल की पलआई 25 जून तक कर देनी चाहिए और रबी की फसल के लिए यह कार्य 15-20 अगस्त तक कर देना चाहिए।

(ड) हरित खाद के लिए उपयुक्त फसलें

                                                                          

1.   सनई-फलीदार

2.   ढैंचा-फलीदार

3.   उड़द, मूँग-फलीदार

4.   ग्वार, लोबिया-फलीदार

5.   मेथी-फलीदार

6.   कुलची-फलीदार

7.   चना-फलीदार

8.   अरहर तथा

9.   पालक आदि।

(च) हरित खाद का प्रभाव- फसलीय पौधों की वृद्वि एवं विकास के लिए आवश्यक समस्त पोषक तत्वों को हरित खाद में पाया जाता है। इनके प्रयोग से मृदा में 35 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन का स्थिरीकरण प्रति हैक्टेयर की दर से होता जिससे फसल की उपज में 3 से 21 प्रतिशत तक की वृद्वि होती है। कृषि-पण्ड़ित घाघ की यह कहावत आज भी किसानों के बीच काफी प्रचलित है-

‘‘सनई के डण्ठल खेत छिटावें।

तिनके लाभ चौगुना पावें।’’

हरित खादों के उपयोग करने के दौरान वाँछित सावधानियाँ

                                                                           

हरित खाद के लिए कोमल तनों और पत्तियों वाली फसलों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए जिससे कि इन फसलों का अपघटन आसानी के साथ हो सके।

कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पानी स्थाई साधन होने के बाद ही हरित फसलों का उपयोग करना चाहिए।

इन फसलों की पलटाई इनके पुष्पन काल के दौरान ही की जानी चाहिए।

हरित खाद वाली फसलों की पलआई इस प्रकार से करनी चाहिए कि वे मिट्टी में अच्छी तरह से दब जाएं ताकि इनेा सड़ाव सही ढंग से हो सकें।

यदि फसल की पलटाई के उपरांत खेत में नमी का अभाव है तो उसकी आवश्यकता के उनुसार सिंचाई कर देनी चाहिए।

प्राकृतिक खेती एवं जैव उर्वरकों की भूमिका- यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए सघन खेती का अनुसरण कर अकार्बनिक उर्वरकों तथा अन्य प्रकार के रसायनों का अविवेकपूण प्रयोग किया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप हमारे प्रमुख प्राकृतिक संसाधन भूमि की उर्वरता तथा उसकी उत्पादन क्ष्मता क्षीण हुई है। जैविक खाद तथा अकार्बनिक उर्वराकें के सम्मिलत उपयोग से इन दोषों से बचा जा सकता था।

लेकिन सघन खेती के प्रसार ने जैविक खादों के उपयोग को बेहद सीमित कर समाप्त प्रायः सा ही कर दिया है। क्योंकि जैविक खाद पौधों को पोषक तत्व अर्पाप्त मात्रा तथा धीमी गति से उपलब्ध कराती हैं इसलिए लक्ष्यागत कृषि उत्पादन को प्राप्त करने, भूमि की उर्वरता को बनाए रखने, उत्पादन की लागत को कम करने एवं पर्यावरण तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से आधुनिक खेती में जैव उर्वरकों का महत्वपूर्ण स्थान है। उत्तम गुणों से सम्पन्न फसल-विशिष्ट जैव उर्वरकों का भली-भाँति प्रयोग कर उपरोक्त समस्याओं से पूर्ण रूप से छुटकारा पाना सम्भव है।

जैव-उर्वरक

    ‘जैव-उर्वरक’ शब्द वायुमण्ड़ीय नाइट्रोजन को स्थिर करने वाले तथा मृदा पोषक तत्वों की विलेयता को प्रभावित करने वाले सूक्ष्म जीवों को व्यक्त करता है, जैसे कि राइजोबियम, ऐजेटोबैक्टर, ऐजोस्पिरिलम, ऐजोला, नील-हरित शैवाल तथा माइकोराइजा आदि जो महत्वपूर्ण योगदान देकर फसलों की उपज को बढ़ा सकते हैं। किसानों के उपयोग के लिए देश में निम्नलिखत जैव-उर्वरकों का उत्पादन करके उन्हे किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है-

क्र0सं0

जैव-कल्चर

फसलें

1.

2.

 

3.

4.

5.

6.

 

7.

8.

राइजोबियम कल्चर

ऐजोटोबैक्टर कल्चर

 

ऐजोस्पिरिलम कल्चर

नील-हरित शैवाल

ऐजोला फर्न

फॉस्फोटिका कल्चर

एसिटोबैक्टर कल्चर

कम्पोस्टिंग कल्चर

दलहनी फसलों के लिए

सभी खाद्यान्नों, तिलहन, कपास, गन्ना एवं सब्जियों के लिए

मोटे खाद्यान्नों तथा धान के लिए

खड़े पानी वाले धान के लिए

खड़े पानी वाले धान के लिए

सभी फसलों को फॉस्फेट उपलब्ध कराने के लिए

केवल गन्ने के लिए

कम्पोस्ट को शीघ्र तैयार करने के लिए

 

         जैव उर्वरकों को (कृषि योग्य भूमि) में पाए जाने वाले उपयोगी जीवाणुओं का संवर्धन (कल्चर) कहा जा सकता है जिसे उचित माध्यम अथवा वाहक के साथ मिलाकर खाद की भाँति प्रयोग किया जाता है। इसे भूमि की उर्वरा-शक्ति प्राकृतिक तरीकों से बढ़ती है। जैव उर्वरकों का प्रयोग अक्सर बीजोपचार के लिए किया जाता है जिससे अंकुरण के समय ये जीवाणु पौधों की जड़ों या उसके आसपास भूमि में आश्रय पाते हैं। बीजोपचार, बुआई से पूर्व ठण्ड़े स्थान पर उपयुक्त विधि के द्वारा ही किया जाना चाहिए। जैव उर्वरकों तथा उपचारित बीज को गर्म स्थानों एवं सीधी धूंप से बचाकर रखना ही श्रेयकर होता है। जैव उर्वरकों के उपयोग से उपज में 10-25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की जा सकती है।

राइजोबीयम- यह एक नमी-युक्त पदार्थ एवं जीवाणुओं का मिश्रण होता है जिसके प्रत्येक भाग में 10 करोड़ से अधिक राइजोबीयम जीवणु होते हैं। इस जैव उर्वरक को केवल दलहनी फसलों में प्रयोग किया जा सकता हैं यह फसल-विशिष्ट होता है, अर्थात फसल विशेष में अलग-अलग प्रकार के राइजोबियम जैव उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। राइजोबियम जैव उर्वरक से बीजोपचार करने पर यह जीवाणु खाद बीज के ऊपर चिपक जाता है। बीज के अंकुरण के पश्चात् ये जीवणु पौधों की जड़ों में प्रवेश कर जड़ों पर ग्रन्थियों का निर्माण करते हैं। यह ग्रन्थियाँ नाइट्रोजन के स्थिरीकरण की इकाईयाँ होती हैं तथा पौधों की बढ़वार इन ग्रन्थियों की संख्या पर ही निर्भर करती है, इसलिए अधिक ग्रन्थियों के होने पर पैदावार भी अधिक होती है।

राइजोबियम जैव उर्वरक का उपयोग किए जाने वाली फसलें- अलग-अलग फसलों के लिए राइजोबियम जैव उर्वरक के अलग-अलग पैकेट उपलब्ध होते हैं जो कि इस प्रकार से हैं-

क्र0सं0

राइजोबियम की जातियाँ

वर्ग

फसलें

1.

राइजोबियम मेलीलोटी

रिजका

रिजका, स्वीट क्लोवर

2.

राइजोबियम ट्राईफोली

लिप-लिपा

क्लोवर, लिप-लिपा

3.

राइजोबियम लेगु मिनोसेरम

मटर

मटर, उद्यान मटर, स्वीट पी तथा मसूर

4.

राइजोबियम फेजी ओली

फेजीओलस

उद्यान सेम, मोठ

5.

राइजोबियमजैपोनिकम

सोयाबीन

सोयाबीन

6.

राइजोबियम लूपिनी

लूपिन

लूपिन

7.

राइजोबियम (अनामिल)

लोबिया

लोबिया, मूँगफली

            

प्रयोग विधि- 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर के द्वारा 10 किलोग्राम बीज का उपचार किया जा सकता है। राइजोबियम कल्चर के एक पैकेट को खोलें तथा 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर को लगभग 500 मि.ली. पानी में डालकर इसका भली-भँति घोल तैयार कर लें। अब बीजों को किसी भी स्वच्छ स्थान पर एकत्र कर इस जैव उर्वरक के घोल को बीजो पर धीरे-धीरे डालते रहें तथा बीजों को हाथ के द्वारा तब तक उलटते-पलटते रहें जब तक कि सभी बीजों पर राइजोबियम जैव उर्वरक की एक समान परत न चढ़ जाएं।

इसके बाद उपचारित किए गये बीजों को किसी छायादार स्थान पर फैलाकर 10-15 तक सुखाने के तुरन्त बाद ही बुआई कर दें।

राइजोबियम जीवाणु कल्चर के प्रयोग से प्राप्त लाभ

                                                                  

1. राइजोबियम जीवणु कल्चर के प्रयोग से 10-30 किलोग्राम नाइªोजन की बचत प्रति हैक्टेयर की दर से की जा सकती है।

2. राइजोबियम जीवाणु कल्चर के प्रयोग से सम्बन्धित फसल की उपज में 15 सं 20 प्रतिशत तक की वृद्वि की जा सकती है।

3. राइजोबियम जीवाणु कल्चर कुछ हार्मोन एवं विटामिन का निर्माण भी करते हैं जिससे पौधों की बढ़वार काफी अच्छी होती है साथी पौधों की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है।

4. इन फसलों के बाद बोई जाने वाली फसलों से भी भूमि की उर्वरा शक्ति अधिक होने के कारण पैदावार अधिक मिलती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।