जैविक खेती: परिचय एवं आवश्यकता      Publish Date : 23/03/2025

                          जैविक खेती: परिचय एवं आवश्यकता

                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

प्रदेश में पिछले दशकों में रासायनिक खेती पद्धति अपनाते हुए कृषि उत्पादन के क्षेत्र में आशातीत सफलता प्राप्त की गई है। इस सफलता हेतु पर्यावरणीय क्षति के कुछ लक्षण परिलक्षित होने लगे हैं। कृषि का आधार स्वस्थ भूमि, शुद्ध जल एवं जैव-विविधता में निहित है। वर्तमान में यह आवश्यकता प्रतीत होने लगी है कि सघन रासायनिक कृषि पद्धति सदा निभने वाली कृषि पद्धति नहीं है। अतः पौध पोषण हेतु रसायनों पर निर्भरता को कम करते हुए जैव पौध पोषण को प्राथमिकता देनी होगी। जैव पौध पोषण रासायनिक पोषण का सशक्त पूरक साबित हो सकती हैं जो कि मिले जुले समन्वित उपायों से संभव है इसी लक्ष्य को लेकर हमें जैविक खेती की दिशा में अग्रसर होना है।

                                                          

जैविक खेती कृषि की वह पद्धति है, जिसमें पर्यावरण के प्राकृतिक संतुलन को कायम रखते हुए भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किए बिना दीर्घकालीन व स्थिर उत्पादन प्राप्त किया जाता है। इस पद्धति में रसायनों का उपयोग कम से कम व आवश्यकतानुसार किया जाता है। यह पद्धति रासायनिक कृषि की अपेक्षा सस्ती, स्वावलम्बी एवं स्थाई है। इसमें मिट्टी को एक जीवित माध्यम माना गया है, यह मात्र भौतिक माध्यम नहीं है। जैविक खेती से लक्षित कृषि उत्पादन प्राप्त करते हुए प्रकृति की संपदा, मृदा, जीवांश, जल, एवं वायुमण्डल के जीवों में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।

                                           प्रदेश एक दृष्टि में

क्रम

मद

मात्रा (इकाई)

1.

भौगोलिक क्षेत्र

241.71 लाख हैं०

2.

कुल कृषित क्षेत्र

166 लाख है०

3.

शुद्ध सिंचित क्षेत्र

144 लाख है०

4.

कृषकों की कुल संख्या

233.25 लाख

5.

लघु/सीमान्त कृषकों की कुल संख्या

215.67 लाख

6.

औसत उर्वरक उपयोग (एन.पी.के.)

168 किग्रा०है०

7.

जैविक खेती अन्तर्गत कुल क्षेत्र (प्रमाणित कनवर्जन)

0.77 लाख हे०

प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्र 241.71 लाख हेक्टेयर है, जिसमें से 166 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती की जाती है। प्रदेश में कृषि फसलों के अतिरिक्त 3.16 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फलोत्पादन, 9.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सब्जी उत्पादन एवं 0.84 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में पुष्प उत्पादन किया जाता है। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में प्रदेश का 21 प्रतिशत का योगदान है।

प्रदेश में 09 एग्रोक्लाइमेटिक जोन हैं तथा प्रदेश का 86 प्रतिशत क्षेत्रफल सिंचित है। प्रदेश में औसत उर्वरक प्रयोग 166 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। प्रदेश में 233.25 लाख कृषक परिवारों में से 183.32 लाख कृषक परिवार सीमान्त श्रेणी, 30.35 लाख कृषक परिवार लघु श्रेणी में एवं 17.58 लाख कृषक परिवार बड़े कृषक परिवारों के अन्तर्गत आते हैं।

इस प्रकार प्रदेश में औसत जोत आकार 0.76 हे० है। छोटी जोतें, दलहनी/तिलहनी फसलों में प्रमाणित बीजों का कम प्रयोग, कमजोर मृदा स्वास्थ्य, असंतुलित उर्वरक प्रयोग, भूमि क्षरण, जल स्रोतों की कमी, यन्त्रीकरण की धीमी प्रक्रिया विपणन अवस्थापना की कमी एवं कम क्रेडिट फ्लो कृषकों की कमजोर आर्थिक स्थिति के मुख्य कारण हैं।

जौविक खेती की आवश्यकता

प्रदेश की बढ़ती जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन, अनियमित शहरीकरण, औद्योगीकरण, अत्यधिक कृषि रसायनों एवं उर्वरकों का प्रयोग एवं वायु, जल, मृदा प्रदूषण के फलस्वरूप विविध प्रकार की समस्याएँ प्रकाश में आ रही है। उच्च उत्पादन लागत खाद्य, प्रसंस्करण एवं विपणन सुविधाओं की कमी के कारण कृषि अलाभकारी हो रही है।

कृषि योग्य भूमि में विस्तार की सीमित संभावनाओं के कारण जैविक कृषि के माध्यम से कृषि उत्पादन को स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है। परम्परागत स्रोतों के उपयोग से कृषि उत्पादों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में वृद्धि होगी साथ ही साथ कृषकों की आय में भी वृद्धि होगी।

जैविक खेती के उद्देश्य

  • जैविक कृषि को अपनाकर कृषि उत्पादन को स्थायित्व प्रदान करते हुए, पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण संतुलन बनाये रखते हुए कृषि को लाभकारी बनाना एवं कृषकों के आर्थिक स्तर में सुधार कर खेती को सम्मानजनक बनाना।
  • राज्य के वर्षा आधारित, कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में, कम उर्वरक प्रयोग किये जाने वाले क्षेत्र में, गैर सिंचित क्षेत्रों में जैविक खेती प्रारम्भ करने के लिए एवं भविष्य में सामान्य खेती को जैविक खेती में परिवर्तित करना।
  • जैविक विविधता को समृद्ध करना एवं पर्यावरण संरक्षण।
  • मृदा एवं जल का संरक्षण कर कृषि उत्पादन में वृद्धि करना।
  • अक्षय ऊर्जा का उपयोग करना।
  • रसायन मुक्त पानी, मिट्टी, हवा और भोजन।
  • जैव विविधता के आधार पर पारिस्थितिकी, कृषि को बढ़ावा देने, जैविक कृषि निवेश एवं कृषि उपज में गुणवत्ता नियन्त्रण सुनिश्चित करना।
  • मानव स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए सुरक्षित कृषि उत्पादों का उत्पादन।
  • सुरक्षित कृषि से पारम्परिक ज्ञान का विकास।
  • जैविक खेती को अपनाने के लिए प्रोत्साहन।
  • नियन्त्रित जैविक उत्पादों के लिए घरेलू बाजार सुनिश्चित करना।
  • जैविक खेती के सम्बन्ध में जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम, मार्केट लिन्केज (संयोजन) विकास एवं जैविक उत्पादों को चिन्हित करना (ब्रान्डिंग)।

जैविक खेती के सिद्धान्तों का आधार रूप में समावेश

स्वास्थ्य:- मृदा स्वास्थ्य को बनाए रखने हेतु जैविक कृषि जिससे पशु, पौधे, मानव एवं ग्रह के स्वास्थ्य में सुधार हो।

परिस्थितिकी:- जैविक खेती पारिस्थितिकी प्रणाली आधारित होनी चाहिए ताकि पारिस्थितिकी चक्र के अनुरूप एवं इसको बनाए रखनें में सहायता प्राप्त हो।

निष्पक्षता:- पर्यावरण जीवन के अवसरों के सम्बन्ध में निष्पक्षता के आधार पर जैविक खेती का किया जाना।

जैविक खेती के मूल सिद्वान्त

  • जैविक खेती अपनाना संभव है व उसकी तत्कालिक संदर्भ में आवश्यकता निर्विवाद है।
  • जैविक खेती कृषि उत्पादन की वह कार्यमाला है जिसमें कई उपायों के मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है।
  • जैविक खेती को सभी कृषक सरलता से अपना सकते है।
  • जैविक खेती अपनाने हेतु समुचित व्यवस्था व प्रबन्धन के लिए रूका नहीं जाये।
  • जैविक खेती की दी गई विधि/विधियों का अपनी सुविधानुसार कहीं से भी अनुसरण आरम्भ करें।
  • उपाय छोटे अवश्य प्रतीत होते हैं पर उनकी सम्मिलित शक्ति विशाल है।
  • जैविक खेती मात्र कम्पोस्ट आधारित खेती नहीं है यह सुनिश्चित है। अतः कम्पोस्ट खाद की उपलब्धता बाधक नहीं होना चाहिए।
  • आज ही जैविक खेती पद्धति अपनाने की शुरूआत करें, जो सदा निभने वाली कम लागत खर्च के साथ पर्यावरणीय मित्र भी है।

जैव श्रोत से पौध पोषण

मिट्टी परीक्षण/भूमि का स्वास्थ्य

                                                         

  • भूमि की सजीवता बनाये रखें।
  • फसलचक्र भूमि की उर्वरता बनाये रखती है।
  • अन्तरवर्तीय, मिश्रित, बहुफसल, बहुस्तरीय फसल प्रकृति के पूरक सिद्धान्त/सह अस्तित्व के सिद्धान्त को प्रोत्साहित करती है।
  • जीवाणु कल्चर द्वारा क्षमता का दोहन संभव है, समय, स्थान व देने की नई विधि अपनाकर।
  • खरपतवार का पलवार के रूप में उपयोग भूमि व भूमि की जैव क्रिया व जल संवर्धन के अतिरिक्त पौध पोषण का अतिरिक्त साधन है।

जीवांश खाद / कम्पोस्ट

                                                 

उपलब्ध जीवांश को इस प्रकार सवंर्धित करें:

1. जीवांश को कदापि न जलायें।

2. आवश्यक रूप से कम्पोस्ट बनाने की कोई भी विधि अपनायें।

3. नाडेप कम्पोस्ट विधि एक वरदान हैइस विधि से उपलब्ध होने वाले कम्पोस्ट की मात्रा जीवांश में मिट्टी के सम्मिश्रण से दुगनी करना संभव हो जाता है।

4. बायो गैस अपनायें, जीवांश बचायें खेत के लिए।

5. कम्पोस्ट की गुणवत्ता की वृद्धि हेतु खनिज (रॉक फास्फेट) व नत्रजन स्थिर करने वाले व स्फुर घोलक जीवाणु का उपयोग करें।

केंचुए शीघ्रता से जैव पदार्थ को कम्पोस्ट में बदलते है।

नोट: उपरोक्त विधियों के अनुसरण से ‘‘जैव श्रोत’’ पौध पोषण का सशक्त माध्यम हो सकता है। इस श्रोत का बार-बार उपयोग संभव है, इसका दोहन किया जाये।

पौध संरक्षण के एकीकृत उपाय

अ) क्षेत्र विशेष की कीट व व्याधि निरोधक प्रजातियों की बुवाई करें।

ब) समय से बुवाई कीट व व्याधि से बचने में सहायक होती है।

स) क्षेत्र विशेष के अनुसार खेती की विधि अपनायें।

द) क्षतिग्रस्त पौधे का भाग व खरपतवार, जिसमें कीट व व्याधि पनपते हैं, को निकाल दें।

इ) जैविक खेती पद्धति वस्तुतः कीट व व्याधि के नियंत्रण में सहायक होती है।

इकोलॉजिकल संतुलन को बनाये रखें

  • पक्षी, ‘सर्पवर्ग’ व मेंढक को संरक्षण प्रदान करें क्योंकि ये कीटों को नियंत्रण में रखते है।
  • उपयुक्त परजीवियों व परभक्षियों का उपयोग कीट नियन्त्रण में करें।
  • प्रकाश प्रपंच व फेरोमोन ट्रैप का उपयोग करें। यह कीट तीव्रता का संकेत देते है।
  • सूक्ष्माणुओं (शाकाणु एवं विषाणु) का उपयोग कीट एवं व्याधि नियन्त्रण हेतु करें।
  • एन्टीफीडेन्टश्, बायोपेस्टीसाइड्स, का उपयोग कीट व व्याधि नियन्त्रण में करें।
  • पौध पोषण के जीवाणु कल्चर पौधों में कीट व व्याधि के प्रति निरोधकता भी प्रदान करते हैं।

इनका उपयोग अवश्य करें।

यदि आवश्यक हो तो विशिष्ट, सुरक्षित व कम हानिकारक कीट व व्याधि नाशक रसायन का उपयोग करें।

एकीकृत भूमि व जल प्रबन्ध

भूमि प्रबन्ध

  • प्रकृति की देन भूमि को शोषण, क्षरण, लवणीयता व जल जमाव से बचाये।
  • खेत की मिट्टी खेत में रहे इस हेतु खेत के चारों तरफ नाली व हल्की मेड़ बनायें।
  • अनावश्यक रूप से गहरी जुताई को निरुत्साहित करें।
  • न्यूनतम जुताई पद्धति अपनायें। ऐसा करने से जमीन में आश्रय पा रहे कार्बनिक जीवांश, जीव सूक्ष्माणु, केंचुए आदि संरक्षित रहते है।
  • भूमि पर किसी भी जीवांश, इत्यादि को जलायें नहीं, अन्यथा भूमि की जैव क्रिया विपरीत रूप से प्रभावित हो जाती है।
  • कटाई उपरान्त बचे हुए पौध अवशेष (गेहूँ, धान इत्यादि) को जमीन में मिला दें या उसका कम्पोस्ट बनायें।
  • जैव पदार्थ क्षारीय एवं लवणीय भूमि सुधार का सशक्त माध्यम है, इसका उपयोग भूमि को स्वस्थ बनाये रखने में करें।

जल प्रबन्ध

  • खेत का पानी खेत में रहे, इस हेतु खेत की हल्की मेड़ बंदी के साथ चारों तरफ नाली स्थानीय जैव अवरोधक वनस्पति का उपयोग करें।
  • उचित सिंचाई पद्धति अपनायें।
  • प्रयास किया जाये कि प्रत्येक खेत में एक छोटा पोखर बनें।
  • वर्षा निर्भर कृषि में उपलब्ध जल का उपयोग सही बीज अंकुरण व जीवन रक्षक सिंचाई के लिए करें।

जैविक उत्पादों की विपणन व्यवस्था

गत वर्षों से जैविक खेती ने एक मान्य एवं जीवनक्षम कृषि पद्धति के रूप में ध्यान आकर्षित किया है। जैविक कृषि के प्रचार-प्रसार हेतु कुछ संस्थाएँ उभरकर आ रही हैं जो जैविक कृषि के स्वीकृत मानकों के आधार पर उत्पादित फसलों का प्रमाणीकरण कर रही हैं। हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि वर्तमान कृषि पद्धति से विशेषकर रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों से उत्पन्न प्रदूषण को रोका जा सके, ऊर्जा की अधिक खपत एवं फसलों की गिरती हुई गुणवत्ता जैसी चुनौतियों का सामना कुशलतापूर्वक किया जा सके ।

प्रमाणित किये गये जैविक उत्पादों के विक्रय हेतु स्थानीय एवं विश्व बाजारों की पहचान करनी होगी ताकि कृषक इनका निर्यात कर भरपूर लाभ तो अर्जित कर ही सके साथ ही मानव को प्रदूषण रहित स्वस्थ भोजन भी प्रदान कर सके।

प्रदेश में स्थापित नियमित मण्डियों एवं अन्य राजकीय/निजी संस्थाओं के माध्यम से जैविक उत्पादों की बिक्री की व्यवस्था की जायेगी ताकि कृषकों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त कृषकों के उत्पादन को नैफेड आदि संस्थाओं के माध्यम से क्रय कर प्रदेश के विभिन्न संस्थाओं के आउटलेट से विक्रय करने की व्यवस्था की जायेगी।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।