
किसान कैसे बनाएं वर्मी कम्पोस्ट? Publish Date : 25/01/2025
किसान कैसे बनाएं वर्मी कम्पोस्ट?
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
किसी ऊँचे छायादार स्थान जैसे किसी वृक्ष के नीचे अथवा शेड में 2x2x1 मी. क्रमशः लम्बाई, चौड़ाई तथा गहराई वाला एक गड्ढ़ बनाएं अथवा गड्ढा नही बना पाने की स्थिति में इसी माप का लकड़ी अथवा प्लास्टिक की पेटी का उपयोग भी किया जा सकता है, जिसकी निचली सतह पर जल निकासी के लिए 10-12 छेद बना देने चाहिए।
(क) सबसे नीचे ईंट या पत्थर की 11 से.मी. की एक परत बिछाएं, इसके बाद 20 से.मी. की मोरंग अथवा बालू की दूसरी सतह बनाकर उसे पानी के हल्के से छिड़काव से नम बना लेना चाहिए। इसके बाद इस परत के ऊपर अधसड़ा गोबर डालकर एक कि.ग्रा. प्रति गड़्ढें की दर से ‘‘आइसीनिया फोटिडा’’ एवं ‘‘यूड्लिस यूजिनी’’ प्रजाति के लाल केंचुओं को इसमें छोड़ देना चाहिए।
(ख) इसके ऊपर 5-10 से.मी. घरेलू कचरे तथा फसल अवशेषों को बिछा देना चाहिए। इसके बाद लगभग 20-25 दिन तक आवश्यकता के अनुसार पानी का हल्का छिड़काव करते रहन चाहिए। इसके बाद प्रति दो सप्ताह के बाद 5-10 से.मी. सड़ने योग्य कूड़े-कचरे की तह लगाते रहें, जब तक कि पूरा गड्ढ़ा भर न जाए और प्रतिदिन छिड़काव भी करते रहे। कार्बनिक पदार्थ के ढेर पर लगभग 50 प्रतिशत नमी का होना आवश्यक है। 6-7 सप्ताह में वर्मी कम्पोस्ट बन कर तैयार हो जाती है। वर्मी कम्पोस्ट बनने के बाद 2-3 दिन तक पानी के छिड़काव को बन्द कर, इस खाद के ढेर को छाया में सुखा लें। फिर इसे 2 मि.मी. छनने से छानकर अलग कर देना चाहिए तथा इस प्रकार से तैयार हुई इस खाद को आवश्यक मात्रा में प्लास्टिक की थैलियों में भर लेते हैं।
केंचुए का कल्चर या इनाकुलम तैयार करनाः
केंचुए कूड़े के ढेर को नीचे की तरफ से कम्पोस्ट में बदलते हुए ऊपर की तरफ बढ़ते हैं। पूरे गड्ढ़े में कम्पोस्ट खाद के तैयार हो जाने के बाद इसकी ऊपरी सतह पर कूड़े की एक नई परत बिछा देते हैं और पानी का छिड़काव कर इसे नम बना लेते हैं। अब इस सतह की ओर सभी केंचुए आकर्षित हो जाते हैं और इन्हें हाथ या किसी अन्य चीज की सहायता से किसी दूसरे स्थान पर एकत्र कर लेते हैं और फिर किसी दूसरे नए गड्ढ़े में अन्तःक्रमण हेतु उपयोग करते है।
वर्मी कम्पोस्ट के पोषक तत्व
वर्मी कम्पोस्ट में अन्य जीवाँश खादों की अपेक्षा अधिक पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं। इसके अन्दर नाइट्रोजन 1-1.5 प्रतिशत, फॉस्फोरस 1.5 प्रतिशत तथा 1.5 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। इनके अतिरिक्त इसमें द्वितीयक तथा सूक्ष्म तत्व भी उपलब्ध रहते हैं।
वर्मी कम्पोस्ट के लाभ
- मृदा की संरचना, वायु संचार, जल धारण क्षमता एवं मृदा के भौतिक एवं जैविक गुणों में भी अपेक्षित सुधार आता है।
- नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की संख्या में आशातीत वृद्वि होती है।
- इससे स्वच्छता में वृद्वि तथा प्रदूषण पर नियंत्रण होता है।
- यह लघु कुटीर उद्योग के रूप में लाभकारी होता है जो रोजगार के नये अवसरों का भी सृजन करता है।
- इससे कृषि उत्पादों के स्वाद, गुणवत्ता के साथ ही उपज में भी वृद्वि होती है।
- यह रासायनिक उर्वरकों की खपत को कम करके मृदा तथा मानव स्वास्थ्य के प्रति एक सुरक्षित एवं प्रभावकारी उपाय है।
नापेड कम्पोस्ट
नापेड विधि से कम्पोस्ट बनाने का तरीका एक प्रगतिशील किसान, जो यवतमान जनपद, महाराष्ट्र के निवासी हैं, के द्वारा विकसित किया गया है। इस विधि में जमीन की सतह पर 9 इंच मोटी ईंट की चिनाई कर 10 फीट लम्बा x 3 फीट ऊँचा 180 घन फीट का ढाँचा बनाकर उसमें गोबर, मिट्टी तथा फसल अवशेषों की सहायता से खाद बनाई जाती है। इस विधि से 100 कि.ग्रा. गोबर से 3,000 कि.ग्रा. उच्च गुणवत्तायुक्त कम्पोस्ट खाद लगभग 90-100 दिनों में बनाई जाती है। जिससे बेकार, अनुपयोगी एवं प्रदूषणकारी पदार्थों का शमन भी हो जाता है।
चित्रः नापेड़ कम्पोस्ट तैयार करनें में प्रयुक्त ढाँचा
ढाँचे को भरने में प्रयुक्त होने वाली सामग्रीः
कचरा 30-25 कुन्तल, मिट्टी 5-10 कुन्तल, गोबर 3-4 कुन्तल, पानी 800-1200 लीटर, पी.एस.बी कल्चर 4 पैकेट, एजेटोबैक्टर 4 पैकेट, गोमूत्र 10 लीटर, गुड़ 2 कि.ग्रा. तथा हवन की राख 100 ग्राम।
ढाँचे का निर्माण तथा उसकी भराई
ईंट की चिनाई करते समय प्रथम तीन पंक्तियों में कोई छिद्र नही होता है, चौथी, छठी, आँठवीं तथा दसवीं पक्तियों की चिनाई में एक फिट के अन्तराल पर 5 इंच की चौड़ाई वाले छिद्र बनाये जाते हैं। इसके बाद 11वी, 12वीं तथा 13वीं पंक्तियों में भी कोई छिद्र नही बनाया जाता है तथा ढाँचें के अन्दर की जमीन को ईंटें बिछाकर पक्का कर देते हैं।
- 40-50 कि.ग्रा. गोबर 100-150 लीटर पानी में घोलकर ढाँचें की सबसे निचली सतह पर डाल दिया जाता है।
- 8 इंच मोटी कचरे की तह को दबा-दबा कर बिछा दिया जाता है, फिर इसके ऊपर 30-40 कि.ग्रा. गोबर, 100-125 लीटर पानी मे घोल बनाकर कचरे के ऊपर डाल दिया जाता है तथा इसके बाद लगभग 100 कि.ग्रा. मिट्टी को ऊपर से बिछा दिया जाता है।
- इस क्रिया को ढाँचें की ऊँचाई से 10-12 इंच ऊपर तक भरने तक दोहराया जाता हैं।
बाद में गोबर एवं मिट्टी की एक मोटी परत के द्वारा ढाँचें को ऊपर से बन्द कर दिया जाता है। 70-80 दिनों के बाद ढाँचें के ऊपर एक मोटे डण्ड़ें की सहायता से 15-20 छिद्र बना दिए जाते हैं और 10 लीटर गोमूत्र में पी.एस.बी. कल्चर के पैकेट, एजोटोबैक्टर के पैकेट, 2 कि.ग्रा. गुड़ तथा 100 ग्राम हवन की राख को मिलाकर एक घोल तैयार कर लिया जाता है। उक्त घोल को ढँचें के ऊपर बनाये गये छिद्रों में डालकर इन छिद्रों को पुनः बन्द कर देना चाहिए। इसके बाद लगभग 30-40 दिनों में खाद बनकर तैयार हो जाती है, इस प्रकार एक बार की खाद को तैयार करने में 100-120 दिन के समय में पूर्ण रूप तैयार हो जाती है।
खाद को निकालने एवं रखने की विधि
तैयार खाद को निकालकर छानकर बिना सड़े पदार्थों को इससे पृथक कर देना चाहिए। इसके बाद खाद को किसी छायादार स्थान पर ढंक कर रख देना चाहिए। बिना सड़े पदार्थों का उपयोग फिर से ढाँचे की भराई में प्रयोग कर लेना चाहिए। इस विधि से एक बार में 30 कुन्तल अच्छी तरह से सड़ी हुई खाद प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार वर्षभी में तीन भराई कर लगभग 100 कुन्तल खाद प्राप्त हो जाती है।
इस खाद में उपलब्ध तत्व
- नाइट्रोजन 0.75-1.75 प्रतिशत
- फॉस्फोरस 0.7 से 0.9 प्रतिशत
- पोटाश 1.20 से 1.40 प्रतिशत
- सूक्ष्म तत्व पौधों/फसलों की आवश्यकता के अनुसार
नापेड कम्पोट को प्रयोग करने से लाभ
- इसके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम/बन्द होगी।
- भूमि की जलधारण क्षमता में वृद्वि के कारण सिंचाईयों की आवश्यकता कम होगी।
- फसलों में रोग एवं कीटों का प्रकोप भी कम होगा।
- खेती की लागत में लगभग 20 प्रतिशत कम होगी।
- ग्रामों तथा स्थानीय अनुपयुक्त सामग्रियों का प्रयोग कर उच्च गुणवत्ता वाली खाद को प्राप्त करना।
- गाँव के अनुपयोगी एवं प्रदूषकारी कूड़ा-कचरा, खपतवार अवशेष, तथा जलकुम्भी आदि को लाभदायक रूप में परिवर्तित कर देना।
- इस विधि की सहायता से गाँव की स्वच्छता में बढ़ोत्तरी होगी।
अधिक उत्पादन के लिए ऐसा भी किया जाना चाहिए-
- गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई अवश्य करनी चाहिए।
- वर्षा जल का संरक्षण एवं भू-क्षरण को रोकने के लिए खेत की मेड़ ऊँची एवं मजबूत होनी चाहिए। पहली एवं लम्बे अन्तराल पर हुई वर्षा जल में नाइट्रोजन के घुली होने के कारण भूमि उर्वरा शक्ति में वृद्वि होती है।
- फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश अवश्य ही करना चाहिए।
- मृदा के परीक्षण के आधार पर संस्तुति के आधार पर ही खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए।
- धान-गेंहूँ फसल चक्र वाले क्षेत्रों में मृदा की उर्वरता को बनाए रखने के लिए हरी खाद के लिए ढैंचा तथा सनई की बुआई करना उचित रहता है।
- मृदा के स्वास्थ्य में सुधार के लिए कार्बनिक खाद जैसे- कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, नॉडेप कम्पोस्ट तथा प्रेसमड आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
- यथा सम्भव आधारीय अथवा प्रमाणित बीज संस्तुत मात्रा के अनुसार ही प्रयोग करना चाहिए। यदि घर के बी बीज का प्रयोग बुआई के लिए किया जा रहा है तो उक्त बीज का उपचार फँफूदनाशक रसायन अथवा बायो-पेस्टीसाइड से अवश्य करना चाहिए।
- अधिक उत्पादन को प्राप्त करने के लिए बीज बुआई पंक्तियों में ही करनी चाहिए।
- कम लागत में उच्च गुणवत्तायुक्त उत्पादन को प्राप्त करने के लिए जैव-उर्वरक, बायो-पेस्टीसाइड्स एवं जैविक खादों का ही उपयोग करना चाहिए।
- खेत में धान के पुआल, गेंहूँ के डण्ठल, आदि का जलाना नही चाहिए बल्कि डिस्क हैरो अथवा मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में ही पलटकर उन्हें सड़ाना चाहिएं।
- फसलों की सिंचाई पलेवा विधि से न करें, अपितु सिंचाई की उन्नत विधियों जैसे- क्यारी, थाला, बार्डर, चेक बेसिन, स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई विधि आदि का प्रयोग करें।
- अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए एकीकृत पौध पोषण प्रबन्धन एवं एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन तकनीक को अपनाये।
- फसलों में खरपतवार नियंत्रण हेतु प्रभावी उपयों का चयन करें।
- कम अवधि वाली नकदी फसलें जैसे- आलू, लौकी, कद्दू तथा मशरूम आदि फसलों की खेती प्राथमिकता के आधार पर करे।
- अधिक आमदनी प्राप्त करने के लिए फसल उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन, बागवानी, सब्जी-उत्पादन, पुष्प-उत्पादन, मत्स्य पालन तथा कुक्कुट उत्पादन आदि कार्यक्रमों को भी अपनाना चाहिए।
- सह-फसली एवं इंटर-क्रॉपिंग को भी आवश्यकता के अनुसार अपनाना चाहिए।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।