वर्मीकम्पोस्ट एवं समन्वित कृषि प्रणाली Publish Date : 27/11/2024
वर्मीकम्पोस्ट एवं समन्वित कृषि प्रणाली
प्रोफेसर आर. एस. सेगर
‘‘वर्तमान में देश का किसान कृषि कार्यों को छोड़कर अन्य रोजगारों की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहें हैं। ऐसी स्थिति में समन्वित कृषि प्रणाली एक बेहतर विकल्प के रूप में सामने आई है। इस विधि के अन्तर्गत प्रक्षेत्र में विभिन्न उद्यमों को एक साथ अपनाया जाता है। इससे किसान के लिए रोजगार की उपलब्धता, आय में वृद्वि के साथ ही साथ विभिन्न घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो जाती है। इसके साथ ही यह कृषि को टिकाऊ भी बनाता है। इस प्रणाली के अंतर्गत अपशिष्टों का पुनर्चक्रण कर उत्पादन में कमी लाई जाती है। इससे किसानों की आय में वृद्वि कर किसान की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में व्यापक सुधार लाया जा सकता है। ’’
भारत की लगभग 84 प्रतिशत कृषि, फसल एवं पशुपालन आधारित है। इन उद्यमों से जो भी अपशिष्ट प्राप्त होता है उनका सदुपयोग हम वर्मी-कम्पोस्ट के उत्पादन में कर अधिक लाभ प्राप्त कर प्राप्त कर सकते हैं। पूर्व में कृषि में प्रयोग किये गये रासायनिक उर्वरकों एवं कीट और रोगनाशकों आदि के दुष्प्रभाव के कारण जैविक कृषि का महत्व बढता ही जा रहा है। जैविक कृषि के अंतर्गत फसलों के पोषक तत्वों के स्रोत में केंचुआ खाद को उच्च स्थान प्राप्त है। वर्तमान में वर्मीकम्पोस्ट की माँग बढ़ने के कारण यह बाजार में भी रासायनिक उर्वरकों की तरह से ही अच्छे मूल्यों पर बिक रहा है। वर्मी-कम्पोस्ट उत्पादन के द्वारा किसान को रोजगार के साथ-साथ उसकी आया में भी वृद्वि होगी।
क्या है वर्मी-कम्पोस्ट
जैविक खेती की विभिन्न विधियों में वर्मीकम्पोस्ट का बहुत बड़ा योगदान है। वर्मीकम्पोस्ट को केंचुआ खाद भी कहते हैं। केंचुओं का वैज्ञानिक तरीके से और नियंत्रित दशाओं में पालन तथा प्रजनन का कार्य ही वर्मीकल्चर कहलाता है। केंचुओं के द्वारा कार्बनिक पदार्थों का पाचन कर फसलों के लिए उपयोगी कार्बनिक खाद में परिवर्तित करने की क्रिया जिसमें उत्सर्जित पदार्थ, ह्नयूमस, जीवित छोटे-छोटे केंचुएं तथा उनके कोकून मिले हुए होते हैं, जो वर्मीकम्पोस्टिंग कहलाता है और इसका उत्पाद वर्मीकम्पोस्ट कहलाता है।
स्वस्थ जीवांश से भरपूर एवं नम भूमि में केंचुओं की संख्या पचास हजार से लेकर चार प्रति हैक्टेयर तक होती है। केंचुएं प्राकृतिक रूप से भूमि की जुताई कर प्रतिदिन असंख्य छिद्र बनाते हैं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और भूमि में वायुसंचर की वृद्वि हो जाती है।
वर्मीकम्पोस्ट बनाते समय ध्यान देने योग्य कुछ तथ्य
- केंचुएं धूंप एवं गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं और वे अंधेरे, ठंड़ें एवं नम स्थानों पर ही रहना पसंद करते हैं। अतः शोड को चारों ओर से ढंककर ही रखना चाहिए।
- जिस कचरे से खाद तैयार की जानी है उसमें से काँच, पत्थर, प्लास्टिक तथा धातु आदि के टुकड़ों को निकाल देना चाहिए।
- खाद बनाने की पूरी अवधि के दौरान प्रत्येक परत में लगभग 30 प्रतिशत नमी का स्तर बनाए रखना चाहिए। टैंक का निर्माण ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ जल की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता सुनिश्चित् हो।
- टैंक की सतह को सख्त बनाना चाहिए जिससे कि केंचुए उसके नीचे से जमीन के अन्दर प्रवेश न कर सकें साथ ही इसके तल में पर्याप्त ढाल का होना भी आवश्यक है जिससे कि अनावश्यक जल को बाहर निकाला जा सके।
- केंचुओं का भक्षण करने वाले जीवों जैसे- चीटी, कीड़े-मकोड़े एवं पक्षियों आदि से उनकी रक्षा करनी चाहिए।
वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के लिए आवश्यक सामग्री
केंचुए- अपने देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए केंचुओं की निम्न दो प्रजातियाँ लाभकारी रहती हैं।
1) आइसीनिया फोइटिडा तथा
2) यूड्रिलस यूजिनी।
- केंचुओं की उपरोक्त प्रजातियाँ जैविक पदार्थों को तीव्र गति से जैविक खाद में परिवर्तित कर देते हैं। इनमें प्रजनन की गति तीव्र होने के कारण इनकी संख्या में कम समय में ही पर्याप्त वृद्वि हो जाती है।
- जैवकि अपशिष्ट: कोई भी कार्बनिक पदार्थ, कृषि अवशेष जैसे खेत से निकाले गए खरपतवार, फसल अवशेष, गन्ने के अवशेष, नारियल की जटा एवं गूदा, रसौई से निकलने वाले अवशेष जैसे सड़-गली सब्जियाँ या फल आदि केंचुओं के लिए भोजन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं।
- छायादार स्थान: वर्मीकम्पोस्ट को बनाने के लिए एक ऐसे छायादार स्थान का चयन किया जाना चाहिए, जहाँ गड्ढ़ों और ढेरियों को आसानी से बनाया जा सके। वह स्थान कुत्ते, बिल्ली, सुअर तथा परभक्षी कीट एवं पक्षियों आदि से बचाने के लिए स्थान के चारों ओर घास-फूस की आड़ से घेरा जाना चाहिए। गड्ढैं अथवा ढेरियों के चारों ओर पानी नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए। यह नालियाँ चींटी और दीमक आदि को केंचुओं तक पहुँचने से रोकती हैं।
- पानी एवं नमी: वर्मीकम्पोस्ट इकाई का तापमान 25 से 300 सेल्सियस और नमी का स्तर 45 से 50 प्रतिशत तक सीमित रखना चाहिए। तापमान एवं नमी को अनुकूल बनाए रखने के लिए गड्ढे अथवा ढेरी को जूट के बोरों से ढंककर इनको नियमित रूप से कुछ समय के अन्तराल पर इन्हें गीला करते रहना चाहिए। इसके लिए पानी के निकास की व्यवस्था का सुदृढ़ बनाना भी आवश्यक होता है।
वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन की विधि
वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नमी एवं तापमान वाले स्थान का चयन कर इसके ऊपर छप्पर अथवा शेड बनया जाता है। इस शेड की मध्य में ऊँचाई लगभग 2.5 मीटर और किनारे 1.8 मीटर रखते हुए इसे स्थानीय रूप से उपलब्ण्ध घास-फूँस पैरा, प्लास्टिक एवं बाँस-बल्लियों से निर्मित किया जाता है। अथवा शेड को स्थाई रूप से सीमेंट की दीवार एवं एस्बेस्टस के छप्पर से भी बनाया जा सकता है। शेड की लम्बाई-चौड़ाई टैंकों की संख्या पर निर्भर करती है।
वर्मी टैंक का मानक आकार 10 मीटर लम्बा, एक मीटर चौड़ा तथा 0.5 मीटर गहरा होता है। गढ्ढे की लम्बाई सुविधानुसर घटाई-बढ़ाई जा सकती है। परन्तु इसकी चौड़ाई एवं गराई क्रमशः 1 मीटर एवं 0.5 मीटर से अधिक नही होनी चाहिए, अन्यथा कार्य करने में असुविधा का सामना करना पड़ता है। वर्मी शेड की आधारीय सतह ईंट-पत्थर के टुकड़ों से बनानी चाहिए, जिससे अनावश्यक जल-किास में सुविधा रहती है।
समन्वित कृषि प्रणाली
समन्वित कृषि प्रणाली से तात्पर्य प्रक्षेत्र में कृषि के विभिन्न उद्यमों यथा (फसल उत्पादन, पशु-पालन, मुर्गी-पालन, मत्स्य-पालन, उद्यानिकी, मधुमक्खी-पालन, मशरूम उत्पादन बौर वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन) आदि के एकीकरण से है। इस प्रणाली में कृषक किसी भी एक ही उद्यम पर निर्भर न रहकर प्रक्षेत्र में विभिन्न उद्यमों को एक साथ अपनाता है। इनमें से एक उद्यम के अवशिष्ट दूसरे उद्यम के लिए उपयोगी होते हैं। इस प्रकार अपशिष्टों के पुनर्चक्रण से उत्पादन की लगात में कमी आती है। साथ ही कृषक को वर्ष-भर रोजगार की प्राप्ति होती है और उसकी आय में भी वृद्वि हो जाती है।
वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए जैविक अवशेषों को उपयोग में लाया जा सकता हैं। इसकी भराई इनके कार्बन: नाइट्रोजन अनुपात के आधार पर निम्नानुसार करनी चाहिए-
प्रथम परत: 2 इंच मोटी सतह धीमी गति से अपघटित होने वाले जैविक पदार्थों यथा सुखी घास, नांदा पुआल, ज्वार के डंठल और गन्ने की पत्तियाँ आदि को रखा जाना चाहिए।
दूसरी परत: विघटित पदार्थ एवं गोबर की सड़ी हुई दूसरी परत खाद की 2-3 इंच मोटी सतह बनानी चाहिए।
तीसरी परत: तीसरी परत के रूप में खाद के ऊपर केंचुओं को सावधानीपूर्वक छोड़ा जाना चाहिए। केंचुओं की संख्या 500-1000 उनके आकार के आधार पर प्रति वर्ग मीटर की दर से डाली जानी चाहिए।
चौथी परत: केंचुओं को डालने के पश्चात् 6-8 इंच की तह में कच्ची गोबर, पत्ती, कचरा आदि को डालकर जूट के बोरे अथवा टाट की पट्टियों से ढंककर पानी का छिड़काव करना चाहिए और इसकी नमी के स्तर को 40-50 प्रतिशत तक बनाकर रखा जाना चाहिए।
रासायनिक उर्वरकों की तुलना में वर्मीकम्पोस्ट का महत्व
- वर्मीकम्पोस्ट को बनाना बहुत सस्ता और आसान होता है। वर्मीकम्पोस्ट को सामान्य किसान भी अपने फार्म पर तैयार कर सकते हैं, जबकि रासायनिक उर्वरक किसान के फार्म पर नही बनाए जा सकते।
- वर्मीकम्पोस्ट में बहुत से पोषक तत्व एवं हार्मोन्स पाए जाते हैं, जबकि रासायनिक उर्वरकों में कुछ ही पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं।
- वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उसकी उत्पादन शक्ति में वृद्वि होती है जबकि रासायनिक उर्वराकें का निरंतर उपयोग करने से मृदा की उर्वरा-शक्ति निरंतर क्षीण होती है।
- रासायनिक उर्वरकों की तुलना में वर्मीकम्पोस्ट का फसलों के ऊपर कोई हानिकारक प्रभाव नही होते हैं।
- वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से कीट-पतंगे तथा भू-जनित रोगों का प्रकोप भी कम हो जाता है।
- वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है जिससे उसकी पोषक तत्व एवं जल-धारण क्षमता बढ जाती है और मिट्टी में वायु का संचरण भी सही रहता है।
- वर्मीकम्पोस्ट का हृयूमस अवयव मृदा धन आयन विनिमय क्षमता को सुधारता है। इससे पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं अल्य सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता पौधों के लिए आसान हो जाती है।
वर्मीकम्पोस्ट की अन्य विशेषताएं-
- वर्मीकम्पोस्ट से कृषि अपशिष्टों (पशु चारे, फसल अवशेष) आदि का सदुपयोग किया जाता है।
- अन्य विधियों की अपेक्षा वर्मीकम्पोस्ट विधि के अंतर्गत तीव्र गति से खाद का निर्माण होता है।
- खेत में वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग करने से उसमें दीमक का प्रकोप नही होता है।
- वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से रासायनिक खादों के आवश्यकता की पूर्ति अथवा उनकी कमी को भी दूर किया जा सकता है।
- वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से खेतों में खरपतवारों के बीज के पहुँचनें की आशंका काफी हद तक कम हो जाती है।
- वर्मीकम्पोस्ट का प्रयोग वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने में सहायक होता है।
- वर्मीकम्पोस्ट के उपयोग से फसलों के उत्पादन में वृद्वि के साथ-साथ फसल उत्पाद की गुणवत्ता में भी सुधार होता है।
शैड का निर्माण सदैव ऐसे स्थान पर ही करना उचित रहता है जहाँ अंधेरा कायम रहे, क्योंकि केंचुए अंधेरे में ही अधिक सक्रिय रहते हैं। इसके लिए शेड के चारों ओर घास-फूँस की पट्टी या बोरे आदि को लगा देना चाहिए। ग्रीष्म काल में इन बोरों के ऊपर नियमित रूप से पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। इससे टैंक में नती बनी रहती है और केंचुओं की सक्रियता भी बनी रहती हैं टैंक में भर जैविक अवशोषों को प्रति माह लोहे के पंजे की सहायता से धीरे-धीरे पलटते रहना चाहिए। इस प्रकार कम्पोस्टिंग के दौरान बनने वाली गैस उससे बाहर निकल जाती है, इससे टेंक का वायु-संचार एवं तापमान उपयुक्त बना रहता है। यह प्रक्रिया 2-3 बार दोहराई जाती है।
टैंक के अंदर का तापमान 25-300 सेल्सियस तथा नमी 30-35 बनाए रखना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर तापमान एवं नमी के स्तर की जाँच करते रहना चाहिए। पानी के उचित प्रयोग से तापमान को नियन्त्रित किया जा सकता है। वर्मीकम्पोस्ट को तैयार होने में लगभग 50-60 दिन का समय लगता है। इस समय में ढेर में चाय पत्ती पाउडर के समान केंचुओं के द्वारा निकाली गई कॉस्टिंग दिखाई पड़ती है।
इस विधि में लगभग 50-55 दिनों के बाद पानी का छिड़काव भी बन्द कर देना चाहिए। इसके बाद तैयार खाद के छोटे-छोटे ढेर बनाना चाहिए जिससे कि केंचुए खाद के निचले स्तर पर चले जाएं तब इन केंचुओं को अलग करके दूसरे टैंकों में डाल देना चाहिए। इसके बाद जालीदार छन्नी की सहायता से इस खाद को छान लेना चाहिए। इस छनी हुई खाद को किसी ठंड़े स्थान पर बोरियों में भरकर उपयोग के समय तक भण्डाति किया जा सकता है। भण्डारण करने के लिए वर्मीकम्पोस्ट में नमी का स्तर 8-12 प्रतिशत उचित रहता है।
तैयार केंचुआ खाद की पहिचान
- तैयार वर्मीकम्पोस्ट चाय के पाउडर की तरह का दिखाई देता है। यह भार में बहुत हल्का होता है। इसमें किसी भी प्रकार की अवांछनीय गंध नही आती है।
- तैयार वर्मीकम्पोस्ट के गड्ढ़े से केंचुए ईधर-उधर रेंगते हुए दिखाई पड़े तो समझ लेना चाहिए कि खाद बनकर तैयार हो चुका है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।