जैविक खेती की उपयोगिता एवं आवश्यकता      Publish Date : 17/05/2023

                                                                      जैविक खेती की उपयोगिता एवं आवश्यकता

                                                                                                                                         डा0 आर0 एस0 सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

    सुरक्षित वातावरण और भोजन के प्रति उपभोक्ताओं की बढ़ती जागरूकता के चलते पिछले कुछ वर्षों से जैविक रूप से उत्पादित पदार्थों जैसे की भोज्य पदार्थ, औषधीय पौध एवं सब्जियों की माँग में खासी बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है।

                                                                                       

जैवीय कृषि जो कि कृषि का सबसे प्राचीन स्वरूप है, के बहुत सारे लाभकारी फायदे जैसे कि उच्च मूल्य, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, भूमि उर्वरता, जल की गुणवत्ता, भूमि कटाव का बचाव और प्राकृतिक जैव विविधता की सुरक्षा के अलावा ग्रामीण रोजगार सृजन, संशोधित पोषण ओर वाह्य लागतों पर कम से कम निर्भरता के जैसे सामाजिक लाभ भी है।

                                                                                 

    किसान भाई अच्छी तरह जानते है कि 1960 के दशक के दौरान कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है जिसका मुख्य श्रेय रासायनिक उर्वरकों, कृषि रसायनों कीटनाशकों, उन्नत किस्मों एवं आधुनिक कृषि यंत्रों को जाता है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशियो, फफूंदीनाशियों का योगदान निःसंदेह सबसे ज्यादा रहा है, परन्तु लगातार अकार्बनिक रसायनों के प्रयोग के फलस्वरूप हमारी मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश के अतिरिक्त आवश्यक अन्य सूक्ष्म पादप तत्वों एवं मृदा कार्बनिक पदार्थों की पर्याप्त रूप से कमी हो गई है।

    मृदा के कार्बनिक पदार्थ मृदा के जैविक वातावरण को बनाये रखने में अति आवश्यक होते है जो लगातार किए जा रहे कृषि उत्पादन के फलस्वरूप अपने खतरनाक न्यूनतम स्तर पर पहुँच गये है। कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के फलस्वरूप मृदा अम्लीयता, मृदा लवणता, एवं मृदा में घातक रसायनों की सांद्रता में खतरनाक वृद्धि हुई।

आधुनिक कृषि के फलस्वरूप अनेक लाभदायक मृदा जीव जातियों का सफाया हो चुका है, जिसके कारण मृदा में कार्बनिक पदार्थों के प्राकृतिक विघटन में कमी आई है।

    एकल कृषि एवं फसल का संपूर्ण दोहन की मृदा कार्बनिक पदार्थों एवं पोषक तत्वों की कमी का कारण बन रहा है। वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे शोध के अनुसार सन् 2020 तक भारत की कृषि योग्य भूमि में लगभग 12 अत्यावश्यक पोषक तत्व नाइट्रोजन, फास्फोरस, लोहा, जिंक, पोटाश, सल्फर, मैगनीज, वोरान, मोलिब्डेनम, कॉपर की पूर्णतया कमी हो जाएगी। अतः समय के रहते चेतना आवश्यक हो गया है।

    परंपरागत कृषि पद्धतियों से उत्पन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आज विश्वभर के कृषि वैज्ञानिक जैविक खेती की ओर अग्रसर हुए है। जैविक खेती में रासायनिक कृषि उर्वरकों, कीटनाशियों एवं अन्य संश्लेषित रसायनों का उपयोग वर्जित है। कार्बनिक खेती फसल प्रबंधन की इस प्रकार की विधियों का समायोजन है जिसके द्वारा मृदा के भौतिक जैविक एवं रासायनिक स्तर को संरक्षित करते हुए सतत कृषि उत्पादन को नियमित एवं त्वरित किया जा सके।

इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट के अनुसार जैविक खेती का उद्देश्य है कि-

  • पर्याप्त मात्रा में उच्च पोषकता युक्त खाद्य पदार्थ का उत्पादन किया जाए।
  • प्राकृतिक तंत्र के साथ बिना छेड़छाड़ किये कार्य करना।
  • खेती में सूक्ष्म जीवों मृदा जीवों पौधों तथा जंतुओं को शामिल करते हुये मृदा जैविक चक्र को प्रोत्साहित एवं प्रवर्धित करना है।
  • स्थानीय कृषि तंत्र में जहां तक संभव हो सके नवीनतम संसाधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • जितना ज्यादा हो सके पदार्थों एवं पोषक तत्वों के संदर्भ में बंद तंत्र के साथ कार्य करना होगा।
  • कृषि तकनीकों के फलस्वरूप होने वाले सभी प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण से बचाना होगा।
  • कृषि तंत्र एवं उसके चारों तरफ आनुवंशिक विविधता को बनाए रखना तथा पौधों एवं प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करना होगा।
  • जैविक खेती के वृहद सामाजिक एवं पारिस्थितिक परिणामों का वैज्ञानिक आकलन करना होगा।

    अतः जैविक खेती ऐसा व्यवस्थित तंत्र है जिसमें संश्लेषित रसायनों का प्रयोग न करते हुए मृदा को जैविक शक्ति एवं भूमिगत जल स्त्रोतों का मानव तथा प्रकृति द्वारा किये जाने वाले विघटन को रोकना एवं उसके स्वरूप के पुनरूस्थापित किया जाना है। जैविक खेती में किसान भाईयों को मिश्रित खेती, फसल चक्र, जैव उर्वरक, वर्मीकम्पोस्ट एवं नैडिप कम्पोस्ट के प्रयोग पर अधिक जोर देना है।

                                                                              

    खेती में जैव खाद का प्रयोग किया जाना बहुत जरूरी हो गया है जैव खाद जीवित अथवा सुप्त अवस्था वाले सूक्ष्म जीवियों का वह समूह है जिनकी जैविक क्रियाओं के फलस्वरूप फसलों द्वारा पोषक तत्वों की उपलब्धता व अवषोषण बढ़ जाता है। इस तरह विषिष्ट प्रकार के सूक्ष्म जीवी विशिष्ट पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाते है। मृदा में राईजोबियम एजोटोबैक्टर और एजोस्फइरिलियम नत्रजन स्थिरीकरण करते है जबकि स्यू्डोमोनास फास्फोरस की घुलनशीलता और वृद्वि बढ़ाते है।

    इन सूक्ष्म जीवियों से होने वाले लाभ सामान्यतः कुछ विशिष्ट दशाओं को छोड़कर रासायनिक उर्वरकों द्वारा होने वाले लाभ स्पष्ट दिखाई नहीं देते है। उचित दशाओं की उपलब्धता में जैवीय खादों द्वारा प्रति हैक्टेयर 20-200 किग्रा0 तक नत्रजन प्राप्त किया जा सकता है।

चरागाह और चारेवाली फसलों में इनका प्रभाव ज्यादा लाभकारी पाया गया है इनके उपयोग से उत्पादकता में होने वाली वृद्धि 10-25 प्रतिशत तक होती है।

    फसल अवशिष्ट भी उत्तम जैव उर्वरक के रूप में कार्य करते है जिसका प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी प्रकार भारत वर्ष में मानव अवशिष्ट के खपत में सन् 2010 तक 21 लाख टन तथा पादप जन्म अवशिष्ट के रूप में 23.4 लाख टन नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटेशियम उपलब्ध रहेगा जिसका प्रयोग भूमि सुधार एवं सतत कृषि उत्पादन में किया जा सकता है।

    बायोगैस प्लांट से निकलने वाली सलरी भी उत्तम जैव उर्वरक के खप में कार्य करती है तथा इसमें लगभग 1.5 से 2 प्रतिशत तक नए 1 से 1.5 प्रतिशत तक फास्फोरस, 1.4 प्रतिशत तक पोटाश पाया जाता है। भारत वर्ष में लगभग 34 लाख बायोगैस संयंत्र है जिनके द्वारा स्लरी का उत्पादन होता है जिसका प्रयोग जैव उर्वरक के रूप में किया जाना चाहिए।

    वर्मीकम्पोस्ट एक अच्छी जैविक खाद है इसमें लगभग 2.3 प्रतिशत, 1.52 प्रतिशत पोटाश, 0.98 प्रतिशत फास्फोरस, 28.65 प्रतिशत कार्बन, 2.38 प्रतिशत कैल्शियम, 0.67 प्रतिशत मैग्नीशियम, 0.60 प्रतिशत सोडियम, 0.1 प्रतिशत कॉपर, 0.87 प्रतिशत लोहा, 1.35 प्रतिशत 1.35 प्रतिशत मैगनीज तथा 1.69 प्रतिशत तक जिंक पाया जाता है न पोषक तत्वों के अतिरिक्त वर्मीकम्पोस्ट में पादप वृद्धि हारमोन, मृदा एंजाइमों एवं उपयोगी सूक्ष्मजीवों की उच्च सांद्रता पाई जाती है, जो पौधों की वृद्धि और उत्पादन पर सीधा प्रभाव डालते है।

                                                                 

    वर्मीकम्पोस्ट में उपस्थित मत्र, श्लेष्मा तथा सुलभ पोषक तत्व अनेक सूक्ष्म जीवोंद्व प्रोटोजोयन, कवक, शैवाल, को आकर्षित करते है जिससे मृदा की गुणवत्ता में सुधार होता है।

    जैविक खेती का मुख्य उद्देश्य मृदा पर्यावरण का संरक्षण करना है तथा इसके जैविक भौतिक तथा रासायनिक स्वरूप को पुनस्थापित करना है।

  • जैविक खेती के द्वारा मृदा के कार्बनिक स्तर में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप मृदा सूक्ष्म खाद्य श्रृंखला संतत रूप से विकसित होती है।
  • जैविक खेती में प्रयुक्त बेकार कार्बनिक अवशिष्ट पदार्थ जो कि पोषक तत्वों का अमूल्य भंडार होते है कृषि में प्रयोग के द्वारा उनकी भंडारण एवं निपटान समस्या से भी निजात मिलती रही है साथ ही उनके द्वारा फैलाए जाने वाले सभी प्रकार के पर्यावरण प्रदूषण से भी बचा जा सकता है। 
  • जैविक खेती के फलस्वरूप मृदा के भौतिक स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन आता है तथा मृदा जलधारण क्षमताद्व मृदा समूहीकरण प्रक्रिया एंव मृदा जल निकासी में आष्चर्यजनक वृद्धि होती है।
  • प्रयोगों में देखा गया है कि जैविक खेती के दौरान N का लीचिंग प्रक्रिया द्वारा ह्रास परंपरागत  कृषि पद्धतियों की तुलना में लगभग 57 प्रतिशत कम पाया गया है।
  • जैविक खेती द्वारा CO2 का निस्सरण परंपरागत कृषि की तुलना में 40-60 प्रतिशत तक कम पाया गया है इसी प्रकार मैथेन, अमोनिया का उत्पादन भी जैविक खेती में कम पाया गया है इसलिए जैविक खेती पर्यावरण के लिए सुरक्षित है।
  • जैविक खेती में ऊर्जा की खपत कम होती है।
  • जैविक खेती द्वारा उत्पादित चारा का प्रयोग करने के फलस्वरूप पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता दीर्घ समय तक बनी रहती है।
  • जैविक खेती द्वारा उत्पादित पदार्थ की कीमत अधिक मिलती है।
  • जैविक खेती के फलस्वरूप सिंचित क्षेत्र में 5-10 प्रतिशत तथा वर्षा जल आधारित कृषि क्षेत्रों में उपज में 50-100 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है।

    अतः कृषक भाई जैविक खेती में वर्मीकम्पोस्ट, जैव खाद, हरी खाद जैव कीटनाशक वानस्पतिक कीटनाशक का प्रयोग कर कम कीमत पर अधिक लाभ प्राप्त करे।  

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ स्थित कृषि महाविद्यालय के प्रोफेसर तथा कृषि जैव प्रौद्योगकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।