सरसों की फसल में तना गलन और रतुआ का उपचार      Publish Date : 25/12/2024

            सरसों की फसल में तना गलन और रतुआ का उपचार

                                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

सरसों की फसल में तना गलन और रतुआ के उपचार के उपाय

किसान भाईयों, दिल्ली-एनसीआर के सहित सम्पूर्ण उत्तर भारत में शीतलहर के साथ कड़ाके की ठंड पड़ रही है और साथ पाला भी पड़ रहा है। मौसम के इस प्रभाव से आमजनों के साथ पशु-पक्षी और फसलों का हाल भी बिगड़ रहा है। वहीं पाला और शीतलहर के चलते सरसों की फसल पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है, जिससे सरसों का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि सरसों की फसल एक ऐसी फसल है जिसमें शीतलहर के चलते कुछ रोग अपने आप ही उत्पन्न हां जाते हैं।

ऐसे में किसान हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि उनकी फसल स्वस्थ बनी रहें और उसमें कोई रोग न लगने पाए। सरसों के जैसी महत्वपूर्ण और लाभकरी उत्पाद में भी कुछ ऐसे रोग होते हैं जिनका यदि समय रहते ही निस्तारण नही किया जाए तो वह पूरी फसल को बर्बाद करने में सक्षम होती हैं।

सरसों की इन बीमारियों में सबसे प्रमुख बीमारी तना गलन (Stem Rot) और सफेद रतुआ (White Rust)। इन दोनों ही बीमारियों के कारण प्रतिवर्ष किसान भाईयों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में यदि किसान भाई इन बीमारियों के लक्षणों को पहचान कर इनका उचित समय पर उचित उपचार कर लेते हैं तो वह अपनी फसल को इन खतरनाक बीमारियों और इसके कारण होने वाले नुकसान से बच सकते हैं।

सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, जो कि एक पुमुख कृषि वैज्ञानिक हैं, ने किसानों को इन बीमारियों से अपनी फसल को बचाने के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण सलाह दी है। डॉ0 सेंगर बताते हैं कि सही समय पर सही उपचार करने और उचित देखभाल करके इन बीमारियों का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है। अतः आज की अपनी किसान जागरण डॉट कॉम के इस लेख में हम इन बीमारियों के लक्षण, उनके प्रभाव और उपचार के बारे में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। अतः जो भी किसान भाई अपनी सरसों की फसल में लगे इन रोगों से अपनी फसल को बचाना चाहते हैं वह इस लेख को ध्यानपूर्वक पढ़ें और इसका पूरा लाभ उठाएं-

सरसों में लगने वाली प्रुख बीमारियाँ

                                                   

सरसों की फसल में लगने वाली दो प्रमुख बीमारियों, तना गलन और सफेद रतुआ के कारण किसानों को भारी नुकसान हो सकता है। अतः इन बीमारियों का उचित समय पर उचित उपचार किया जाना बहुत ही आवश्यक है। पिछले कुछ वर्षों से तना गलन नामक रोग उग्र रूप धारण कर सरसों की खेती करने वाले किसानों के लिए सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। इन रोगों का समय उसे ही प्रबन्धन कर उत्पादन को बढ़ा पाना सम्भव है। तिलहनी फसलों मंे सरसों को एक प्रमुख स्थान प्राप्त है और तिलहनी फसलें विभिन्न रोगों से प्रभावित होती हैं। तिलहनी फसलों के प्रमुख रोगों में सफेद रतुआ, मृदुरोमिल आसिता, झुलसा, तना गलन एवं चूर्णिल आसिता आदि हैं। आज हम केवल तना गलन और सफेद रतुआ के लक्षण एवं इनके उपचार की जानकारी प्रदान करने जा रहे हैं।

तना गलन रोग के लक्षण

तना गलन सरसों की एक गम्भीर बीमारी है, जो कि फंगस के द्वारा उत्पन्न होती है और यह बीमारी मुख्य रूप से नमी और आर्द्रता के कारण फैलती है। इस रोग के लक्षण बहुत ही स्पष्ट होते हैं, जो कि किसान को अपनी आरम्भिक अवस्था से पूर्व ही सतर्क कर सकते हैं। सरसों की फसल में लगने वाला यह रोग सरसों के लिए सबसे अधिक खतरनाक होता है। यह रोग सबसे अधिक वायू के माध्यम से फैलता है, इसके लक्षणों में सबसे पहले पौधों के तनो पर सफेद अथवा पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं और बीमारी के बढ़ने के साथ ही यह धब्बे सरसों की पत्तियों पर भी दिखाई देने लगते हैं।

पौधों के तनों पर दरारें और काले रंग के धब्बे भी नजर आने लगते हैं। इसके साथ ही पत्ते पीले पड़ने लगते हैं और अंततः पत्तियां सड़ने लगती है। ऐसे में यदि समय रहते ही इसका इलाज नही किया जाता है तो यह रोग पूरे पौधे को ही नष्ट कर सकता है क्योंकि यह रोग पौधे की जड़ से लेकर उसके तने तक भी पूरी तरह से फैल सकती है।

तना गलन रोग का उपचार

                                                                  

इस रोग क सबसे प्रमुख उपचार तो बीजोपचार से ही सम्भव है। इसके लिए सरसों की बीज को कार्बन लाइम के माध्यम से उपचारित करना चाहिए, यह फंगस के विकास को बाधित करता है। तना गलन नामक रोग की रोकथाम के लिए डॉ0 आर. एस. सेंगर ने बताया कि सरसों की बुवाई करने के 40 से 50 दिनों के बाद कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) की एक ग्राम दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसल पर स्प्रे करने से लाभ होता है। इस प्रकार से पहला स्प्रे करने के 15 दिन बाद फिर दूसर स्प्रे भी करना चाहए।

सरसों के बीज का उपचार भी इसी दवा के साथ 1 कि.ग्रा. बीज, 2 ग्राम दवा की दर से करना चाहिए। हालांकि बीज का उपचार करने के बाद भी सरसों के पौधों पर कम से कम दो बार स्प्रे अवश्य ही करना चाहिए।

सफेद रतुआ के लक्षण

                                                                   

सफेद रतुआ भी एक फंगस जनित रोग होता है और इसके लक्षणों को भी आसानी से पहचाना जा सकता है। इस रोग के लक्षणों में सबसे पहले पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के पाउडर के जैसा पदार्थ दिखाई देता है। रोग के बढ़ने के साथ ही यह सफेद रंग के धब्बे गहरे होने लगते हैं और धीरे-धीरे यह एक पंजे के रूप में बदल जाते हैं। इस रोग के कारण पौधे की वृद्वि रूक जाती है और पौधों के पत्ते कमजोर हो जाते हैं। इसके साथ ही पौधों की उपज में भी कमी आ जाती है। यदि यह रोग पूरी तरह से फैल जाए तो पौधें के पत्ते व तने पूरी तरह से मर सकते हैं जिससे उत्पादन में भारी कमी आ सकती है।

सफेद रतुआ का रोगोपचार

सरसों के इस रोग की रोकथाम के लिए मेन्कोजेब अथवा डाथन जैसे कोई फंगीसाइड का उपयोग किया जाता है, जिसका स्प्रे दो बार किया जाता है। इस दवा का पहला स्प्रे फसल पर शुरूआती लक्षणों के दिखाई देने के तुरंत बाद तथा दूसरा स्प्रे 15 से 20 दिन के बाद करें।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।