भारत की मृदाएं और उनके प्रकार      Publish Date : 25/02/2025

                        भारत की मृदाएं और उनके प्रकार

                                                                                                                                                  प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

मृदाएं और उनकी परिवर्तनशीलता

मृदा की किस्म और गुणवत्ता फसलों की उस किस्म को अत्यधिक प्रभावित करती है जो किसी क्षेत्र विशेष में उगाए जा सकते हैं। यह पौधों की वृद्धि के लिए एक आवश्यक आदान हैं, किंतु सभी जगह एक जैसी गुणसंपन्न मृदा नहीं पाई जाती है। मृदा की विभिन्न किस्में अपनी विशिष्ट भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं द्वारा विभिन्न फसलों को अलग-अलग तरीके से लाभ पहुंचाती हैं।

                                                                

उदाहरण के लिए, ‘‘जलोढ़ मृदा’’ में भरपूर पोटैशियम होता है और यह मृदा धान, गन्ना और केला जैसी फसलों के लिए बहुत उपयुक्त रहती है। इसी प्रकार लाल मृदा में अत्यधिक लौह मात्रा होती है और यह चनों की भिन्न-भिन्न किस्मों (जैसे लाल, बंगाली और हरे), मूंगफली और अरंडी के बीज उगाने के लिए बहुत उपयुक्त है। अधिक पैदावार और अच्छी उपज तभी प्राप्त की जा सकती है जब फसल के लिए सही किस्म की मृदा प्रयुक्त की गई हो।

क्षेत्र में उपलब्ध मृदा की गुणवत्ता का परीक्षण मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं में किया जा सकता है। उन क्षेत्रों के लिए, जिनमें उपयुक्त मृदा उपलब्ध नहीं है, उर्वरक के रूप में उसे उपजाऊ बनाने के लिए अतिरिक्त पोषक तत्त्व जोड़े जा सकते हैं। ऐसे क्षेत्रों में मृदा का वैज्ञानिक परीक्षण उपयोगी होता है।

एक ही फसल को बार.-बार लेने से मृदा की उर्वरता क्षीण हो जाती है। विभिन्न प्राकृतिक कारकों, जैसे वायु और पानी से मृदा का अपादान भी हो सकता है। इसलिए मृदा की गहराई/गुणवत्ता प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग होती है। इस लेख में हम संक्षेप में भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विद्यमान मृदा की किस्मों और उसके क्षारण में सहायक कारकों के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।

                                                                           

मृदा के प्रकार मृदा का वर्गीकरण क्षेत्र और उसे प्रभावित करने वाले कारकों पर निर्भर करता है। क्षेत्रीय और प्राकृतिक कारकों के योगदान (जैसे पर्वतीय क्षेत्र, मरुभूमि, समुद्रतट के समीप की मृदा) पर निर्भर करते हुए मृदा का रंग और उसकी उर्वरता के स्तर अलग-अलग होते हैं।

मृदा की कुछ किस्में उनके रंग (जैसे लाल मृदा, काली मृदा आदि) से पहचानी जा सकती हैं। तो कुछ अन्य (जैसे लैटेराइट, जलोढ़ आदि) उनकी रासायनिक/भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर पहचानी जाती हैं। देश में मृदा की किस्मों और उनके क्षेत्रों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है।

(अ) लाल मृदा: यह वह मृदा है जिसके रंग में विभिन्न लौह आक्साइड की उपस्थिति के कारण लाली आ जाती है। इस किस्म की मृदा में जैव पदार्थ कम होते हैं जो मृदा की उर्वरता विशेषता बढ़ाने के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। तमिलनाडु में फसल के क्षेत्रफल का लगभग दो तिहाई भाग इस किस्म की मृदा का ही है। दक्षिण भारत के अन्य भागों, (जैसे कर्नाटक, गोवा, दमन और द्वीप और आंध्र प्रदेश) दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल के कुछ भागों में भी लाल मृदा बहुतायत में पाई जाती है।

(ब) काली मृदा: यह वह मृदा है जो दक्षिण के पठार में पाई जाती है। यह गहरी भूरी से काले भूरे रंग की हो सकती हैं। इस प्रकार की मृदा जैव पदार्थ से समृद्ध होती है और कपास की खेती के लिए बहुत उपयुक्त रहती है। यह मृदा पोटैशियम, और मैग्नेशियम जैसे उपयोगी रासायनों से समृद्ध होती है। यह मृदा कपास, तंबाकू, मिर्च, तिलहन, ज्वार, रागी और मकई के जैसी फसलें इस किस्म की मृदा में अच्छी तरह उग पाती हैं। यह महाराष्ट्र राज्य के बड़े भागों और मध्य प्रदेश के भागों, गुजरात और तमिलनाडु आदि राज्यों में भी पाई जाती है। निचले स्थानों की अपेक्षा की उच्च भूमि में पायी गयी काली मृदा अपेक्षाकृत कम उत्पादनकारी होती है।

(स) भूरी मृदा: यह भारत में उपलब्ध तीसरी किस्म की मृदा है जो उसके रंग के कारण पहचानी जाती है, पृष्ठीय मृदा भूरे रंग की होती है। यह देश के सबसे अधिक भागों में पाई जाने वाली एक सामान्य मृदा है और इस प्रकार की मृदा जैवपदार्थों से सामान्यतः समृद्ध ही होती है।

(द) लैटेराइट मृदा: लेटेराइट मृदा भारत के कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश के पहाड़ों, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और तमिलनाडु के पूर्वी घाटों में पायी जाती है। यह मृदा कम ऊंचाइयों में जैव पदार्थ से समृद्ध होती है और धान की पैदावार के लिए उपयुक्त रहती है। जबकि अधिक ऊंचाईयों में यह चाय, सिन्कोना, काफी और रबड़ आदि को उगाने के लिए उपयुक्त रहती है। यह मृदा उन क्षेत्रों में विद्यमान है जहां विरामी आर्द्र जलवायु उपलब्ध होती है।

(च) अर्द्ध जलोढ़ मृदा: इस किस्म की मृदा भारत का विशालतम और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मृदाओं का एक समूह है और कृषि में इस मृदा का अंश सबसे अधिक प्रयोग किया जात है। उत्तर और पूर्व (अर्थात् उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम आदि राज्यों के क्षेत्रों) में तथा गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के डेल्टा और पश्चिम/दक्षिण (अर्थात् गुजरात, तमिलनाडु और केरल) के डेल्टा/तटीय क्षेत्र द्वारा निर्मित यह मृदा चूने से समृद्ध होती है परन्तु पर्याप्त लवणीय और क्षारीय भी होती है।

(छ) मरूभूमि: यह बलुई मिट्टी है, इसमें जैव पदार्थ कम उपलब्ध होता है। मृदा की यह किस्म देश के पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा और पंजाब आदि क्षेत्रों में प्रमुखता से पाई जाती है। सिन्धु नदी समूह और अरावली पर्वत श्रृंखला के द्वारा प्रभावित होने से यह मृदा भी क्षारीय से लवणीय होती है। बहुत से जल विलेय खनिजों के उपरांत भी इस मृदा में पोषक तत्त्व बहुत कम उपलब्ध होते हैं। फिर भी ऐसे स्थान जहां बहुत अधिक वर्षा होती है यह मृदा इन क्षेत्रों में नारियल, काजू और कैजुआराइना आदि के उगाने के लिए उपयुक्त है।

(ज) तराई मृदा: तराई मृदा हिमालय क्षेत्र की पहाड़ियों के क्षेत्र में पाई जाती है। यह क्षेत्र जम्मू और कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में भी फैली हुई है। यह मृदा निम्न हिमालयली क्षेत्र से सामग्रियों के नीचे की ओर संचनन के माध्यम से निर्मित हुई है।

(झ) लवणीय और क्षारीय मृदा: इनमें विलेय नमक की मात्रा बहुत अधिक होती है, भारत में लगभग 7 मिलियन हेक्टर भूमि लवणीय है, जो खेती के लिए पूरी तरह से अनुयुक्त होती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।