आध्यात्म एवं विज्ञान Publish Date : 15/08/2023
आध्यात्म एवं विज्ञान
सम्पूर्ण ब्रहमांड मूल रूप से दो सत्ताओं का जोड़ है- जिनमें से पहली है जड़ और दूसरी है चेतन। इनमें जड़ सत्ता से अर्थ है प्रकृति एवं पदार्थ विद्या के अध्ययन को विज्ञान कहते हैं, जबकि चेतन सत्ता के अन्तर्गत आत्मा एवं परमात्मा का अध्ययन आध्यात्म कहलाता है। आधयात्म शश्वत शांति एवं आनंद के खोज की आंतरिक यात्रा होती है, जो धर्म एवं कर्म के बीच संतुलन की एक प्रक्रिया होती है। आध्यात्म के माध्यम से हम अपने अंतस और आत्मिक जगत का अन्वेषण करने की दिशा में प्रेरित होते हैं।
हमारे वेद आध्यात्म एवं विज्ञान को साथ-साथ ही लेकर चलते हैं। हमारे ऋषियों ने अपने वैदिक ग्रन्थों में विज्ञान को अविद्या तथा आध्यात्म को विद्या कहकर सम्बोधित किया है। विज्ञान के अन्तर्गत मानव ने विभिन्न वैज्ञानिक अद्वितीय खोजों के फलस्वरूप अपने जीवन को सुखमय बनाया है, जो आज मानव के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गति प्रदान कर रहा है। परन्तु वर्तमान विज्ञान भौतिक उन्नति के साथ ही साथ मानव को विवेकहीनता के पथ पर भी लेकर जा रहा है, जिससे मानव में अशांति, तनाव और लोभ आदि दुगुर्णों की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
इसके परिणामस्वरूप वर्तमान में मानव निरंकुश होकर भोगवाद की ओर आकर्षित हो रहा है। जबकि आध्यात्म मानव की आंतरिक शक्तियों का संवर्धन करता है, जिससे मानव के जीवन में देवत्व का उदय होता है।
शायद इसी के लिए हमारे मनीषियों के द्वारा आध्यात्म एवं भौतिक विज्ञान के उचित समन्वय का संदेश दिया है। भौतिक विज्ञान से मानव के जीवन की कठिनाईयाँ दूर होती हैं तो आध्यात्मिक ज्ञान से उसे परमानंद की अनुभूति होती है। जहाँ आध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होता है और दोनों विधाओं की ही एक समान विकास होता है, वहाँ समृद्वि एवं आत्मिक सम्पत्तियों में वृद्वि होती है। वहीं वर्तमान युग में केवल विज्ञान को सर्वत्र मानकर चलना मानवता के अस्तित्व को ही गर्त में धकेलने का कार्य ही कर रहा है।
अतः वर्तमान में, विज्ञान तथा आध्यात्म दोनों को ही एक साथ आत्मसात करने की परम आवश्यकता है। क्योंकि विज्ञान एवं आध्यात्म का सम्यक समन्वय ही मानव के लिए दृश्य जगत का भाग एवं मोक्ष की प्राप्ति करने के मार्ग को प्रशस्त करता है। अतः विज्ञान एवं आध्यात्म में उचित संतुलन के फलस्वरूप ही मानव का भविष्य सुखद हो सकता है।
प्रत्येक युग में रहती है सच्चे ज्ञान और अच्छे गुरू का तलाश
हमारे समाज में गुरू के सम्बन्ध में अति प्रचलित दो बातें- एक, गुरू शब्द का अर्थ, जो कि व्यक्ति के अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर कर उसे ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर लेकर अर्थात असतो मा ज्योर्तिगमः, वही सच्चा गुरू होता है। और दूसरा है गुरू के सम्बन्ध में बहुप्रचलित यह श्लोक- गुरूर्ब्रहमा, गुरूर्विष्णु, गुरूदेवोमहेश्वरः गुर्रूः साक्षात परब्रहम तस्मै श्री गुरूव नमः। इस श्लोक का अर्थ यह है कि गुरू ही ब्रहमा, विष्णु और महेश अर्थात त्रिदेव हैं अतः गुरू अपने आप में साक्षात परमात्मा स्वरूप है। अतः ऐसे परमात्मा स्वरूप गुरू का मैं अभिनन्दन करता हूँ।
भारत की सनातन परम्परा के अन्तर्गत पौराणिक काल से ही ज्ञान की एक अजस्र धारा निरंतर बह रही है, जिसके अन्तर्गत गुरू का व्यापक महत्व प्रतिपादित किया गया है। भारत में विभन्न स्थानों पर गुरू तथा शिष्य में कोई भेद नही किया जाता है। जबकि भगवान शिव जी की नगरी काशाी में तो हाल-चाल पूछने वाला भी गुरू, तो हाल-चाल बताने वाला भी गुरू ही होता है। ‘‘का गुरू, का हाल बा? हाँ गुरू, ठीक हौ’’।
इस प्रकार से काशी की सामान्य बोल-चाल की भाषा को गुरू की गम्भीरता के साथ न जोड़ा जाए तो भी इस न्दिु पर इसके बारे में विचार तो किया ही जा सकता है, इससे कोई न कोई सूत्र तो हमारी पकड़ में आ ही जाएगा। वैसे तो काशी भगवान शिवजी की नगरी है और भगवान शिव को गुरू भी कहा जाता है। सच्चा गुरू आपकों किसी बन्धन में नहीं बाँधता है, अपितु गुरू तो आपको साधना एवं सेवा के पथ पर अग्रसर करता है। गुरू शब्द के गूढ़ रहस्य को समझना वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में और भी अधिक आवश्यक है।
गुरू एवं पुरोहित में बहुत बड़ा अन्तर होता है। पुरोहित प्रतिनिध के रूप में आपके किसी भी अनुष्ठान सम्पन्न करवाता है और अपने इस कार्य के बदले आपसे दक्षिणा ग्रहण करता है, तो कहा जा सकता है कि पुरोहित ईश्वर एवं भक्त के बीच का एक माध्यम होता है। ऐसा ही भेद गुरू और शिक्षक अथवा आचार्य के बीच भी होता है। एक शिक्षक अथवा आचार्य पारिश्रमिक अथवा पारितोषण के बदले में ज्ञान प्रदान करता है।
हमें गुरू के साथ ही ज्ञान को समझना भी आवश्यक है। त्रिपुरा रहस्य के अन्तर्गत एक वर्णन प्राप्त होता है, जिसमें परम योगी गुरू दत्तात्रेय से प्रश्न किया जाता है कि मानवीय प्रज्ञा क्या है? बुद्वि और प्रज्ञा में भी बहुत बड़ा अन्तर है और इस अन्तर को समझे बिना ज्ञान का होना सम्भव ही नही है। इस प्रश्न के उत्तर में गुरू दत्तात्रेय कहते हैं कि मानव के अन्दर जो ज्ञान शक्ति है, वह विषय मुक्त हो, तो वह प्रज्ञा बन जाती है। विषय के न होने से ज्ञान स्वयं को जानता है और स्वयं के द्वारा ही स्वयं का ज्ञान ही प्रज्ञा कहलाता है अर्थात स्वयं का स्वयं के माध्यम से प्रकाशवान होना ही प्रज्ञा है। ज्ञान का स्वयं अपने आप पर लौटकर आना भी प्रज्ञा ही होता है और यही मानव मात्र की चेतना की सबसे अधिक उन्नत क्रॉन्ति होती है और इसी की खोज करने के लिए अनेक विश्व प्रसिद्व विद्वान सदियों से भारत की यात्रा करते रहे हैं।
गुरू व्यक्ति की ज्ञान शक्ति पर व्याप्त विषय रूपी अन्धेरे को हटाने का काम करता है, जिससे ज्ञान स्वयं ही प्रकाशित हो उठता है। हम सभी इधर-उधर से ज्ञान अर्जित करते हैं, तो उसी ज्ञान के साथ थोड़ा-थोड़ा विषय भी हमारे अन्दर समाविष्ट हो जाता है, और इसी के चलते हम सत्य के वास्तविक रूप से अनजान रहते हैं।
अतः सच्चा गुरू वही होता है जो हमें विषय रूपी अन्धकार से निकाल कर हमारी प्रज्ञा के स्वयं ही प्रकाशित होने का मार्ग प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब सबसे गम्भीर प्रश्न यह उठता है कि सच्चे गुरू की पहिचान किस प्रकार से की जाए?
इस सम्बन्ध में एक कथा का विवरण आता है कि करपात्री जी महाराज से एक शास्त्रज्ञ आचार्य मिलने के लिए आए। बहुत ही विनम्रता के साथ उन्होने स्वयं को स्वामी जी के साक्ष उद्घाटित किया, ‘‘महाराज मैने शास्त्रों का अध्ययन किया है, दर्शन जानता हूँ, शिष्यों को मिथ्या जगत के सम्बन्ध में भी पढ़ाता हूँ, जबकि मै स्वयं आज तक यह नही समझ पाया हूँ कि यह जगत मिथ्या क्यों है?’’
यहाँ ज्ञान का परिपक्व होना आवश्यक है। वास्तव में सत्य से स्वयं साक्षात्कार नही किया हो, ऐसा गुरू भी शिष्य के अन्दर अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने में सक्षम नहीं हो सकता है। अतः विषयों की सेवा में रत अधपके ज्ञान रखने वाले गुरू से हमारा बचना ही श्रेयकर रहता है।
यहाँ गौर कीजिए कि कई अवसरो पर हमें अपने बहुत पास रखी वस्तुए भी नजर नही आती हैं। हम दूरबीन चन्द्रमा और किसी ऊँचें भवन के ऊपर चढ़कर पूरे नगर को भी देख लेते हैं, परन्तु अपनी आँखों में लगे काजल को देख पाने में समर्थ नही होते हैं, इसे देखने के लिए हमें आइने की आवश्यकता पड़ती है।
इस पकार से देखा जाए तो गुरू उसी आइने की तरह से कार्य करता है। जो हमारे सबसे अधिक निकट ईश्वर या आत्म का साक्षात्कार कराने का कार्य करता है। वास्तव में जब हमारे अन्दर सत्य के प्रति आस्था होगी तो उसके बाद ही हम एक सच्चे गुरू की खोज कर सकेंगे। चूँकि वर्तमान में सत्य प्रति हमारी आस्था काफी कम हुई है, जिसके कारण लोागें ने एक सच्चे गुरू की तलाश भी कम कर दी है।
एक सच्चा गुरू हमें कभी भी किसी प्रकार के विकारों में नहीं फसाता है, अपितु वह तो हमारे अन्दर व्याप्त विकारों को नष्ट करता है। ज्ञान को अग्नि भी कहा जाता है अतः एक सच्चा गुरू अपने शिष्यों में ज्ञान की अग्नि को उत्पन्न करता है और ज्ञान की यही अग्नि हमारे अन्दर मौजूद सभी विकारों को नष्टकर इस संसार एवं मानवता को सुन्दरतम बनाने प्रयास भी करती है।