मुक्त एवं प्रसन्न जीवन के सूत्र Publish Date : 31/03/2024
मुक्त एवं प्रसन्न जीवन के सूत्र
डॉ0 आर. एस. सेंगर
यदि हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति सदैव मुक्त एवं प्रसन्न रहे, तो इसके लिए हमे अपने व्यवहार का एक क्रम बाँधकर रखना चाहिए और हमारे नित्य का कार्यक्रम निर्धारित किए गए आधार पर ही चलना चाहिए। हमारा मन उस समय ही मुक्त रह सकता है, जब कि हमारा जीवन एक मर्यादा एवं एक निश्चित और नियमित तरीके से ही चलता रहे।
नदी बहती तो स्वच्छंदता से ही है, परन्तु उसका प्रवाह बँधा हुआ होता है। यदि नदि का प्रवाह बँधा हुआ न हो तो उसकी मुक्तता भी व्यर्थ ही जाएगी। इसी प्रकार से यदि हम ज्ञानी पुरूषों के उदाहरण देखें तो ज्ञात होता है कि सूर्य ज्ञानी पुरूषों का आचार्य है। परमपिता परमेश्वर ने कर्मयोग का प्रथम पाठ सूर्य को ही पढ़ाया और एसके बाद सूर्य से मनु कोयानि कि मानव को यह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है तो वह नियमित भी है। इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार भी है।
यह एक अनुभव की ही बात है कि यदि हमें एक निश्चित मार्ग पर घूमने की आदत हो जाती है तो फिर हम उस मार्ग की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम मार्ग पर घूम सकते हैं। इसके ठीक विपरीत यदि हम घूने के लिए प्रतिदिन नए-नए मार्ग ही निकालते रहेंगे तो हमें अपना पूरा का पूरा ध्यान इन मार्गों को निकलने पर ही लगाना होगा, और हमारा मन कभी भी मुक्त नही हो सकेगा।
कहने का अर्थ यह है कि हमें अपने व्यवहार को इसलिए बाँधकर ही रखना चाहिए कि जिससे हमें अपना जीवन एक बोझ नही अपितु आनन्दमय प्रतीत होता रहे। इसीलिए भगवान कृष्ण गीता के 17वें अध्याय में कार्यक्रम बता रहे हैं। ह मतीन संस्थाएं लेकर जन्म लेते हैं और मानव इन तीनों के ही माध्यम से अपने को और इस संसार को सुखमय बना सकता है। यही गीता के अनुसार कार्यक्रम है।
संस्थाओं में पहली संस्था होती है महसे लिपटा हुआ हमारा यह शरीर, दूसरी संस्था है हमारे चारों ओर व्याप्त यह विशाल ब्रह्यांड़, जिसका कि हम एक अंश हैं और तीसरी संस्था होती है वह समाज जिसमें कि हमारा जन्म हुआ है जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी-पड़ोसी आदि ।
हम प्रतिदिन इन तीनों ही संस्थाओं का उपयोग करते हैं। गीता कहती है कि इन सभी संस्थाओं की पुर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करते हुए अपने जीवन को सफल बनाएं।
इन संस्थाओं के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ती हमें निरअहंकार की भावना से ही करनी चाहिए। क्योंकि यदि हमें इन कर्तव्यों की पूर्ती करनीै तो इसके क्या योजना होनी चाहिए? यज्ञ, दान और तप आदि के योग से ही यह षेजना मूर्तरूप धारण करती है। ऐसे में यदि हम हम इन तीनों के अर्थ को समझ लें और इनका समावेश हम अपने जीवन में कर लें तो हमारा जीवन भी मुक्त एवं प्रसन्न रह सकेगा।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।