हरी खाद का उपयोग यानी बेहतर मृदा स्वास्थ्य      Publish Date : 10/01/2024

                           हरी खाद का उपयोग यानी बेहतर मृदा स्वास्थ्य

                                                                                                                                                             डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                          

‘‘हरी खाद का उपयोग अति प्राचीनकाल से ही मृदा की उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिए होता आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नगदी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई है लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक ग्रांतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और बढ़ गया है।’’ 

दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एव उत्पादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी के अपघटन के लिए ढैंचा जैसी अन्य फसलों को दबाना ही हरी खाद देना कहलाता है। भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव से ही रहा है। ये फसलें अपनी जड़ ग्रंथियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु के द्वारा वातावरण से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके इसे मिट्टी में स्थिर करती है।

आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है उसे आगामी फसल द्वारा उपयोग में ले लिया जाता है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसले अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने और इनमें उपलब्ध प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में भी विशेष स्थान रखती हैं।

हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढँचा, उड़द, मूंग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी मुख्य है। लेकिन कुछ प्रदेशों में जायद की ऋतु में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैचा, उड़द एवं मृग का प्रयोग ही प्रायः प्रचलित है। भारत में आमतौर पर हरी खाद के उपयोग के लिए दलहनी फसलें उगाई जाती हैं।

                                                                  

दलहनी फसलों की जड़ों में गाँठें पाई जाती है तथा इन ग्रंथियों में विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु रहते हैं, जो कि वायुमण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन की पूर्ति का कार्य भी करती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि दलहनी फसले मिट्टी की भौतिक दशा को सुधारने के साथ-साथ जीवाँश पदार्थ एव नाइट्रोजन की भी पूर्ति करती है। जबकि बिना फली वाली फसलों में वायुमण्डल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता नही होती है।

उर्वरक प्रबंध

हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता को बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी सिद्व होता है। कम एवं सामान्य उर्वरता वाली मिट्टी में 10-15 कि.ग्रा. नाइट्रोजन तथा 40-50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टर उर्वरक के रूप में देने से ये फसलें पारिस्थितिकीय संतुलन व बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती हैं।

हरी खाद के लिए प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख फसलें-

सनईः अच्छे जल निकास वाली बलुई अथवा दोमट मृदाओं के लिए यह उत्तम दलहनी हरी खाद की फसल है। इसकी बुआई मई से जुलाई तक वर्षा प्रारंभ होने पर या सिंचाई करके की जा सकती है। एक हैक्टर खेत में 80-90 कि.ग्रा. बीज बोया जाता है। मिश्रित फसल हेतु 30-40 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है। यह तेज वृद्धि तथा मूसला जड़ यह वाली फसल है जो खरपतवार को दबाने में समर्थ है। बुआई के 40-45 दिन बाद इसको खेत में पलट देते हैं। सनई की फसल से 20-30 टन हरा पदार्थ एवं 85-125 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर मृदा को प्राप्त होता है।

सारणी-1: हरी खाद हेतु प्रयुक्त की जाने वाली प्रमुख फसलों का विविरण

प्रचलित नाम

वानस्पतिक नाम

आकार एवं वृद्वि

सूखा के प्रति

सनई

क्रोटोलेरिया जुन्सिया

सीधा व तीव्र

सहनसील

ढैंचा

सेस्बेनिया एक्यूलिएटा

सीधा एवं लम्बा

सहनसील

ग्वार

साइमोप्सिस सोरेलाइडीज

सीधा

अत्याधिक संवेदनशील

लोबिया

विग्ना कैटजंग

सीधा, तीव्र वृद्वि

सहनसील

मूँग

फैजीओलस रेडियएट्स

सीधा, तीव्र वृद्वि

सहनसील

उड़द

फैजीओलस मूँगां

सीधा, तीव्र वृद्वि

सहनसील

जंगली नील

टेफिसिया परफ्यूरिया

सीधा

संवेदनशील

ढैचाः यह एक दलहनी फसल है। यह सभी प्रकार की जलवायु तथा मृदा की दशाओं में से सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। जलमग्न दशाओं 85 में भी यह 1.5 से 1.8 मीटर की ऊंचाई कम समय में ही प्राप्त कर लेती है। यह फसल एक सप्ताह तक 60 सें.मी. तक पानी का भरा रहना भी सहन कर लेती है। इन दशाओं में ढैंचा के तने से पार्श्व जड़ें निकल आती हैं, जो उसे तेज हवाओं के चलने पर भी गिरने नहीं देतीं हैं।

अंकुरण हो जाने के बाद यह सूखे को सहन करने की भी क्षमता रखती है। इसे क्षारीय तथा लवणीय मृदाओं में भी सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है।

हरी खाद के रूप में प्रयोग करने के लिए प्रति हैक्टर 60-80 कि.ग्रा. ढैचा के बीज की आवश्यकता होती है। ऊसर में ढैचा दो में से 45 दिन में 20-25 टन हरा पदार्थ तथा और 85-105 कि.ग्रा. नाइट्रोजन मृदा को प्राप्त होता है। धान की रोपाई के पूर्व ढैचा की पलटाई करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।

ग्वारः खरीफ के मौसम में बाये जाने वाली यह दलहनी तथा मूसला जड़ वाली फसल है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों तथा बलुई मिट्टी में में भी इस फसल को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसका 25 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से बुवाई कर 20-25 टन हरा पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है।

                                                                             

उड़द एवं मूँगः इन फसलों को अच्छे जल निकास वाली हल्की बलुई या दोमट मृदाओं में जायद एवं खरीफ में बोया जा सकता है। इन फलियों को तोड़ने के बाद खेत में हरी खाद के रूप में पलट कर उपयोग में लाया जाता है। उत्तर प्रदेश में हरी खाद के लिए इनका आँशिक रूप में प्रयोग किया जाता है। इसकी बुआई के लिए प्रति हैक्टर 15-20 कि.ग्रा. मूँग/उड़द के बीज की आवश्यकता होती है। मूंग एवं उड़द से 10-12 टन प्रति हैक्टर हरा पदार्थ प्राप्त होता है।

लोबियाः इस दलहनी फसल को सिंचित क्षेत्रों में आशिक रूप से हरी खाद के रूप में उगाया जा सकता है।

यह बहुत मुलायम होती है जिसे अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मृदाओं में उगाया जाता है। जल भराव को यह फसल सहन नही कर पाती है। इसका एक हैक्टर में 25-35 कि.ग्रा. बीज की बुआई करके 15-18 टन हरा पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है।

इन फसलों के अतिरिक्त मोठ, कुल्थी, जंगली नील, सेंजी, खेसारी, बरसीम को भी हरी खाद के रूप में प्रयुक्त करने के लिए उगाया जा सकता है।

हरी खाद की फसलों की उत्पादन क्षमता

हरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती है।

हरी खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के उपाय

उपयुक्त फसल का चुनावः जलवायु एवं मृदा दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है। जलमग्न तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदा में ढँचा तथा सामान्य मृदाओं में सनई एवं ढैचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है। मूंग, उड़द, लोबिया आदि अन्य फसलों से अपेक्षित हरा पदार्थ नहीं प्राप्त होता है।

हरी खाद की खेत में पलटायी का समयः अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटायी या जुताई बुआई के 6-8 सप्ताह बाद करनी होती है। आयु बढ़ने से पौधों की शाखाओं में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है जिससे जैव पदार्थ के अपघटन में अधिक समय लगता है।

हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बुआई या रोपाई का समयः जिन क्षेत्रों में धान की खेती की जाती है वहाँ जलवायु नम तथा तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है। अतः खेत में हरी खाद की फसल की पलटायी के तुरंत बाद धान की रोपाई की जा सकती है। लेकिन इसके लिए फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए। लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में ढैचा की 45 दिन की अवस्था में पलटायी करने के बाद धान की रोपाई तुरंत करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।

समुचित उर्वरकः कम उर्वरता वाली मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का 15-20 कि.ग्रा./हैक्टर प्रयोग उपयोगी होता है। राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।

  हरी खाद देने की विधियाँ (इन सीटू):-

हरी खाद की देने की स्थानिक विधिः इस विधि के अन्तर्गत हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिस खेत में हरी खाद का प्रयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथ्वा सुनिश्चित् सिंचाई वाले क्षेत्रों अपनायी जाती है। इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक वृद्वि काल (45-50 दिन) के अन्दर मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बुआई की गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई के द्वारा खेत में दबा दिया जाता है अथवा वर्तमान समय में पाटा चलाने व हल के द्वारा पलटाई करने के बजाय रोटावेटर का उपयोग करने से खड़ी फसल को मिट्टी में मिला देने से हरे पदार्थ का विघटन शीघ्र एवं आसानी के साथ हो उजाता है।

हरी खाद में प्रयुक्त दलहनी फसलों का मिट्टी से सह-सम्बन्ध

  • दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी तरह से उगती हैं। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढंक लेती हैं जिससे मृदा क्षरण कम होता है।
  • दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है।
  • राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी के कारण दलहनी फसलों की 60-150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर स्थिर करने की क्षमता होती है।
  • दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होते हैं, जिससे सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।

हरी खाद के लिए उपयुक्त फसल का चुनाव

    हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसल का चुनाव भूमि, जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का उपस्थित होना अति आवश्यक हैः

  • फसल शीघ्र ही वृद्वि करने वाली होने चाहिए।
  • हरी खाद के लिए ऐसी फसल होनी चाहिए जिसमें तना, शाखाएं और पत्तियाँ कोमल एवं अधिक हों ताकि मिट्टी में शीघ्र अपघटन होकर अधिक जीवाँश तथा नाइट्रोजन प्राप्त हो सकें।
  • फसलें मूसला जड़ों वाली होनी चाहिए ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसलें अंतः जल-निकास बढ़ाने के लिए आवश्यक होती हैं।
  • दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को यौगिकीकरण द्वारा पौधों को को उपलब्ध कराते हों।
  • फसल सूखा अवरोधी होने के साथ-साथ जल-मग्नता को भी सहन करने वाली होनी चाहिए।
  • रोग एवं कीट कम लगते हों तथा बीज उत्पादन की क्षमता अधिक होनी चाहिए।
  • हरी खाद के साथ-साथ इन फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सकें।    

अपने स्थान से दूर उगाई जाने वाली हरी पती खाद की फसले (एक्स सीटू)

उत्तर भारत में यह विधि अधिक प्रचलन में नहीं है, परन्तु दक्षिण भारत में हरी खाद की फसल अन्य खेत में उगाई जाती है और उसे उचित समय पर काटकर जिस खेत में हरी खाद देना है उसमें जोतकर मिला दिया जाता है। इस विधि में जंगलों या अन्य स्थानों पर पेड़ पौधों, झाडियों आदि की पत्तियों, टहनियों आदि को एकत्र करके खेत में मिला दिया जाता है।

लाभ

  • मृदा में जीवाँश पदार्थ एवं उपलब्ध-नाइट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होती है। मृदा सतह में पोषक तत्वों का संरक्षण होता है तथा अगली फसल को तत्व पुनः प्राप्त होता है।
  • पोषक तत्वों की उपलब्धता में एवं फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
  • जीवाँश पदार्थ हरी खाद द्वारा मिट्टी, में मिलने पर रेतीली व चिकनी मिट्टी की संरचना को सुधारता है।
  • हरी खाद में कार्बनिक अम्ल बनने के कारण उसका पी-एच कम होता है फलतः मृदा की क्षारीयता कम हो जातो है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।