कम लागत से भरपूर पैदावार एवं अधिक लाभ कैसे प्राप्त करें? Publish Date : 30/08/2023
कम लागत से भरपूर पैदावार एवं अधिक लाभ कैसे प्राप्त करें?
डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा
अच्छी पैदावार के लिये कुछ प्रमुख सस्य क्रियायें, जैसे बुवाई, सिंचाई, उर्वरक प्रयोग, कीट, रोग व नियंत्रण एवं कटाई का फसल मृदा एवं मौसम के अनुसार एक निश्चित समय पर सम्पन्न होना अति आवश्यक है। मृदा की भौतिक दशा के अनुसार खेत की तैयारी के लिये उपयुक्त दशायें अलग-अलग समय पर होती हैं, जैसे यदि असिंचित दशा में गेहूँ की बुवाई करनी है तो खेत में वर्षा समाप्त होते ही अच्छी प्रकार गहरी जुताई एवं पाटा लगाकर नमी संचय कर लेनी चाहिये, अगर धान की सीधी बुवाई द्वारा धान की खेती करनी है, तो मानसून की पहली वर्षा होते ही खेत की जुताई करके नमी को सुरक्षित कर लेनाचाििहये। इसी प्रकार फसल एवं प्रजाति विशेष्ज्ञ की निर्धारित समय में बुवाई अवश्य ही कर लेनी चाहिये। यदि कीट एवं रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही नियंत्रण के उपाय नहीं किये जायेंगे तो बाद मेंअपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है। यदि ये समस्त क्रियायें समयबद्ध ढंग से की जायें तो बिना किसी अतिरिक्त लागत के ही भरपूर पैदावार एवं लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
समय पालन किसी भी व्यवसाय की सफलता की कुंजी है। मोटे तौर पर समयबद्धता एक ऐसी लागत है, जिसपर अतिरिक्त पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, लेकिन फसलोत्पादन में विभिन्न क्रियाओं का वांछित लाभ लेने के लिये उन्हें समय पर करना अनिवार्य है। यह सफलता की पहली सीढ़ी कही जा सकती है। प्रस्तुत लेख में लेखक द्वारा कम लागत से भरपूर पैदावार लेने के गुर बताये जा रहे हैं।)
मृदा परीक्षण: फसलों को संतुलित पोषण प्रदान करने और भूमि को उपजाऊ बनाये रखने में मृदा परीक्षण अनिवार्य है। फसल बुवाई से पूर्व मृदा का पी.एच. मान (अम्लीयता अथवा क्षारीयता मान), जैविक कार्बन एवं उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पेाटाश की मात्रा की जांच अवश्य होनी चाहिये, अधिकांश फसलों के लिये आदर्श पी.एच. मान 6.5 से 7.5 तक होता है, अतः मृदा परीक्षण परिणामों के आधार पर ही बोई जाने वाली आगामी फसल के लिये उर्वरकों की मात्रा एवं प्रकार का निर्धारण हितकर होता है।
तालिका-1: विभिन्न फसलों में बुवाई की विधि का विवरण
फसल |
बुवाई का समय |
बीज दर/ हैक्टेयर |
बुवाई की विधि |
तोरिया |
सितम्बर का तीसरा सप्ताह |
4 किलोग्राम |
बुवाई पंक्तियों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर एवं पौधे की दूरी 10 सेमी. रखें। |
सरसों |
अक्टूबर का पहला पखवाड़ा |
5 किलोग्राम |
पंक्तियों में बुवाई करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 सेमी. रखें।
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आलू |
मैदानी क्षेत्रों में अगेती फसल पर 25 सितम्बर से 10 अक्टूबर तक एवं मुख्य फसल 15 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक पहाड़ी क्षेत्रों में घाटियों में सितम्बर एवं फरवरी, ऊँची पहाड़ियों में मार्च एवं अप्रैल |
2.5-3.5 सेमी. व्यास वाले समूचे कद, 20-25 क्विंटल एवं काटकर बोने पर 12-15 क्विंटल |
मड़ों पर बुवाई करे, मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रखें। |
गेहूँ |
रवम्बर का प्रथम पखवाड़ा एवं पछेती बुवाई में 25 दिसम्बर तक |
समय पर बोने पर 100 किलोग्राम दूरी बीज एवं पछेती बुवाई में 125 मिलोग्राम |
समय से बुवाई करने पर पंक्ति की दूरी 18-22.5 सेंटीमीटर। पछेती बुवाई करने पर पंक्ति की दूरी 15-18 सेमी. रखें।
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गन्ना |
शरद ऋतु में बुवाई अक्टूबर में एवं बसंत ऋतु में बुवाई 15 फरवरी से 15 मार्च तक करें। |
60-70 क्विंटल एवं गन्ने के 42000 टुकड़े डालें |
पंक्तियों में बुवाई करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 75-90 सेंटीमीटर रखें तथा फावड़ या रेजर से 15-20 सेंटीमीटर गहरे कुड़ बनाकर गन्ने के टुकड़े आंख से आंख मिलाकर डालें। |
मैथा |
फरवरी माह |
5 क्विंटल सकर्स प्रयोग करें। |
पंक्तियों में 45-60 सेंटीमीटर की दूरी पर बने कूड़ों में 7-10 सेंटीमीटर लम्बे सकर्स सिरे से सिरा मिलाकर डालें। |
सूरजमुखी |
फरवरी के द्वितीय सप्ताह से मार्च का प्रथम सप्ताह |
संकुल प्रजातियों का 12 किलोग्राम एवं संकर प्रजातियों का 6 किलोग्राम बीज प्रयोग करें। |
45-60 सेंटीमीटर की दूरी पर बने कूड़ों में, 15-20 सेंटीमीटर की दूरी पर सूरजमुखी का बीज बोयें। |
धान |
प्रजाति के अनुसार पौधे की बुवाई मई के तीसरे सप्ताह से जून के अंत तक करें। |
नर्सरी से मोटे दाने वाला बीज 40-50 किग्रा. पतले दाने वाला बीज 30-40 किलोग्राम एवं बासमती प्रजातियों की 20-30 किलोग्राम बीज प्रयोग करें। |
रोपाई पंक्तियों में करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर पर एक जगह 2-3 पौधे रोपें। |
बाजरा |
जुलाई का द्वितीय सप्ताह |
4-5 किलोग्राम |
पंक्तियों में बुवाई करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 संेटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंटीमीटर। |
तालिका-2: विभिन्न फसलों में सिंचाई की क्रांतिक अवस्थायें
तोरिया एवं सरसो |
फूल निकालने से पूर्व की अवस्था एवं फलियां बनते समय। |
आलू |
बुवाई के 20-25 दिन बाद, इसके बाद 10-12 दिन के अंतराल पर। |
दलहनी फसलें |
फूलने से लगभग 40-50 दिन बाद एवं दूसरी फलियां भरते समय। |
जौ |
कल्ले निकलने की अवस्था एवं पुष्पावस्था। |
गेहूँ |
ताजमूल निकलते समय, कल्ले निकलते समय, संुधि की अवस्था, पुष्पावस्था, दुग्धावस्था एवं दाना भरते समय। |
गन्ना |
बुवाई के 20-25 दिन बाद, दूसरी 40-45 दिन बाद, गर्मियों में 10-12 दिन के अंतराल पर। |
मैथा |
बुवाई के तुरन्त बाद, 10-12 दिन के अंतराल पर। |
सूरजमुखी |
बुवाई के 20-25 दिन बाद, 12-15 दिन के अंतराल पर। |
धान |
पौध अवस्था, अधिकतम कल्ले निकलते समय, बालियां निकलते समय, फूल आते समय, दुग्धावस्था एवं भरत समय। |
बाजरा |
अधिकतम कल्ले निकलते समय, फूलने से पहले पुष्पावस्था एवं बाली भरते समय। |
खेत की तैयारी: बीज के अंकुरण के लिये तीन चीजें परम आवश्यक हैं, वे है - नमी (पानी), ताप (ऊष्मा) एवं वायु (आक्सीजन)। देखा जाये तो मृदा ही एक ऐसा प्राकृतिक माध्यम है, जहां ये तीनों चीजें एक साथउपलब्ध हो सकती हैं। खेत की तैयारी मुख्य रूप से मृदा की भौतिक दशा एवं फसल के ्रपकार पर निर्भर करती है, जैसे चिकनी मृदाओं को दोमट मृदाओं की अपेक्षा वांछित रूप से भुरभुरी बनाना कठिन कार्य है। आधुनिक सस्य विज्ञान अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि अतिकर्षण क्रिया का मृदा संरचना, भौतिक एवं रासायनिक दशाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिये आवश्य रूप से खेत की बहुत अधिक तैयारी से धन एवं ऊर्जा का अपव्यय नहीं करना चाहिये। केवल उतनी ही तैयारी करनी चाहिये, जोकि बुवाई अथवा रोपाई के लिये पर्याप्त हो।
बीज का चुनाव: क्षेत्रवार संस्तुत प्रजाति का चुनाव करें। यदि किसान भाई संकर बीजों का प्रयोग कर रहे हैं, तो वह हर साल नया बीज खरीदें तथा प्रजाति का चयन फसल-चक्र की आवश्यकता के अनुरूप ही होना चाहिये। उदाहरण के लिये धान-गेहूँ फसल-चक्र में धान की प्रजाति मध्यम अवधि में पकने वाली होनी चाहिये, जिससे गेहूँ की बुवाई उचित समय पर की जा सके। शुष्क एवं बारानी क्षेत्रों के लिये सूखा अवरोधी प्रजातियों का चयन बेहतर होगा। यदि रबी मौसम में उगायी जाने वाली फसलों की अगेती बुवाई करनी है तो खरीफ में शीघ्र पकने वाली प्रजातियों का चयन करना होगा। बीज खरीदते समय निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये:
1. सदैव प्रमाणित बीज ही खरीदें।
2. बीज में किसी खरपतवार के बीजों का मिश्रण नहीं होना चाहिये।
3. बीज पूरी तरह स्वस्थ एवं रोग मुक्त होना चाहिये।
4. मुख्य प्रजाति में किसी अन्य प्रजाति का बीज मिश्रित नहीं होना चाहिये।
5. बीज सदैव विश्वसनीय संस्था से ही खरीदें।
बुवाई तकनीकी: भरपूर पैदावार लेने के लिये प्रजाति विशेष की उपयुक्त समय पर बोना अति आवश्यक है, इसके साथ ही संस्तुति के आधार पर बीज की मात्रा का प्रयोग करें एवं उचित दूरी पर बुवाई या रोपाई करें। कुछ फसलों के लिये बुवाई का समय, बीजदर एवं बोने की विधि तालिका-1 में बताई गई विधि के अनुसार की जानी चाहिये। (देखें तालिका-1)
संतुलित एवं समेकित उर्वरक प्रयोग: पौधों की समुचित वृद्धि एवं भरपूर उपज प्राप्त करने के लिये उर्वरकों का प्रयोग सदैव मृदा परीक्षण पर आधारित तथा फसल विशेष हेतु संस्तुति के अनुसार होना चाहिये। उर्वरकों का अंधाधुंध एवं असंगत प्रयोग पादप वृद्धि के लिये अहितकर एवं आर्थिक दृष्टिकोण से नुकसानदायक है। फास्फोरस एवं पोटाश युक्त एकल उर्वरकों, जैसे सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश तथा नाइट्रोजन व फास्फोरस युक्त संयुक्त उर्वरक जैसे डी.ए.पी. का प्रयोग सदैव बुवाई के समय करना चाहिये। इनका सतही प्रयोग अच्छे परिणाम नहीं देता है। नाइट्रोजनधारी उर्वरकों, जैसे यूरिया का प्रयोग सदैव फुटकर खुराकों के रूप मंे आदर्श मृदा नमी की स्थिति में छिड़काव द्वारा सतही प्रयोग उत्तम है। विविध अनुसंधानों में यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि ूमात्र उर्वरकों के सहारे लम्बे समय तक उत्पादकता स्तर को बरकरार नहीं रखा जा सकता और न ही मृदा की भौतिकी एवं रासायनिक दशाओं में हो रहे निरंतर ह्ा्रस को रोका जा सकता है, अतः उर्वरकों के साथ-साथ कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, नील हरित शैवाल, नीम खाद, चीनी मिलों का उपोत्पाद एवं फसल अवशेष आदि का प्रयोग अनिवार्य रूप से करना चाहिये। कार्बनिक खादें सूक्ष्म पोषक तत्वों का महत्वपूर्ण स्रोत है, जोकि उर्वरकों से नहीं प्राप्त होते हैं। कार्बनिक खादें मृदा की भौतिक दशा, संरचना, वायु संचरण, जल धारण क्षमता आदि को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है। गेहूँ, तिलहनी एवं आलू की फसलों में गोबर की खाद की प्रति हैक्टेयर मात्रा क्रमशः 2-3, 10-15 व 30 टन संस्तुत की गयी है।
जल प्रबन्ध: पौधे पोषक तत्वों का अवशोषण घोल के रूप में करते हैं, अतः पादप वृद्धि की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई करना अति आवश्यक है। पादप की कुछ महत्वपूर्ण अवस्थायें, जैसे फसल उगने के कुछ दिन बाद, जोकि फसल के प्रकार, मृदा की दशा एवं ऋतु पर निर्भर करती है, किल्ले निकलने की अवस्था, फूल आने एवं दाना भरने की अवस्था में पानी का प्रयोग हर हालत में आवश्यक है। धान के बारे में आम धारणा है कि खेत में पानी हमेशा भरा रहना चाहिये, जबकि यदि मृदा को सदैव संतृप्त अवस्था में रखें, तो भी भरपूर पैदावार ली जा सकती है। इस प्रकार बहुमूल्य जल की एक बड़ी मात्रा की बचत संभव है। अच्छी पैदावार लेने के लिये बुवाई के समय मृदा में पर्याप्त नमी होनी चाहिये, ताकि बीजों का जमाव अधिक से अधिक हो सके। कुछ फसलों के लिये क्रांतिक अवस्थायें इस प्रकार हैं:
व्याधि नियंत्रण: पादप वृद्धि एवं उपज को प्रभावित करने वाली विविध व्याधियों में अनेक प्रकार के कीट-पतंगे, जीवाणु, विषाणु तथा कवक जनित विभिन्न प्रकार के रोग, बहु प्रकार के खरपतवार उल्लेखनीय हैं। ये समस्त व्याधियां फसल की बुवाई से लेकर कटाई तक अनेक अवस्थाओं पर अपने कुप्रभाव द्वारा फसल वृद्धि तथा उपज को नुकसान पहुंचाती है, अतः इनका समय से प्रभावी नियंत्रण आवश्यक है। इन सब व्याधियों के नियंत्रण हेतु अनेक प्रकार के कृषि रसायनों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु इनके प्रयोग विधि एवं मात्रा की समुचित वैज्ञानिक जानकारी के अभाव में ये लाभ के बजाय हानि ज्यादा कर रहे हैं, अतः इन रसायनों की वैज्ञानिक प्रयोग विधिएवं मात्रा की समुचित जानकारी के लिये कृषि वैज्ञानिकों, कृषि रक्षा अधिकारियों एवं कृषि प्रसार कार्यकर्त्ताओं से परामर्श कर लेना चाहिये। कुछ सामान्य जानकारी दवाओं के पेपरों पर मुद्रित होती है, उन्हें सावधानीपूर्वक पढ़कर उनका अनुपालन करना चाहिये। निम्न बिन्दुओं को अपनाकर प्रभावी व्याधि नियंत्रण किया जा सकता है:
1. रोग अवरोधी किस्मों का चुनाव करें।
2. बुवाई से पूर्व बीजोपचार करें।
3. कीट एवं रोगों का प्रकोप हाने पर उसके नियंत्रण के लिये सिफारिश के आधार पर ही रासायनिक दवाओं का प्रयोग करें।
4. उचित फसल-चक्र अपनाकर खरपतवारों पर प्रभावी नियंत्रण पाया जा सकता है।
5. बुवाई की विधियों में थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके भी कीट एवं खरपतवारों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
6. अधिकतर बीज जनित रोगों का नियंत्रण सेरेसान, थॅरम या एग्रोसान, जी.एन. द्वारा 2-2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके किया जा सकता है।
समुचित फसल-चक्र: समुचित फसल-चक्र अपनाकर ही मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता को बनाये रखा जा सकता है, जैसे:
1. एक दाल वाली फसल के बाद दो दाल वाली फसल उगायें।
2. उथली जड़ वाली फसल के बाद गहरी जड़ वाली फसल उगायें।
3. अधिक खाद चाहने वाली फसल के बाद कम खाद वाली फसल उगायें।
4. अधिक निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसल के बाद कम निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसल लें।
5. अधिक सिंचाई चाहने वाली फसल के बाद कम सिंचाई चाहने वाली फसल बोना चाहिये।
एक ही प्रकार का फसल चक्र अपनात रहने से मृदा में शिथिलता आ जाती है तथा फसल विशेष के साथ उगने वाले खरपतवारों का बाहुल्य हो जाता है, जोकि उपज को कुप्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये धान-गेहूँ फसल-चक्र के साथ गेहूँ का मामा (फैलेरिस माइनर) के प्रकोप में वृद्धि बहुतायत से देखी जा सकती है, किन्तु यदि उसी खेत में गन्ना या बरसीम उगायी जाये तो इस समस्या से छुटकारा पा सकते हैं।
यदि उपरोक्त सामान्य बिन्दुओं पर किसान भाई समुचित ध्यान दें तो कम लागत से भरपूर एवं अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
दुग्ध में उत्पन्न एंटीबायोटिक - नाइसिन
जामनीकृत किष्वित दुग्ध पदार्थों (फरमेनटेड डेयरी प्रोडक्ट्स) में जामन (कल्चर) जीवाणुओं द्वारा ही कुछ एंटीबायोटिक उत्पन्न होते हैं, जो कई बार अवांछनीय एवं नुकसानदेह होते हैं, परन्तु कभी-कीाी ये एंटीबायोटिक अत्यंत उपयोगी एवं लाभदायक भी होते हैं। ऐसा ही एक उपयोगी प्रति जैविक है - नाइसिन। सन् 1928 में रोजर नामक वैज्ञानिक ने बताया कि स्ट्रैप्टोकोकस लैक्टिस बैक्टीरिया एक ऐसा पदार्थ उत्पन्न करता है, जो लैक्टोबेसिलस बलगैरिकस को नष्ट कर देता है। इसी पदार्थ का नाम रोजन ने नासिन रखा। नाइसिन करीब 10000 अणुभार वाले लम्बे पालीपेप्टाइड की चैनयुक्त पदार्थ है, जो 7, 5, 6, 4, 2 पी.एच. पर क्रमशः 75000 एवं 12000 माइक्रोग्राम/मिली जल में घुलनशील है।
नाइसिन का मापन तथा विश्लेषण ट्यूब डाइलूसन विधि द्वारा उसकी स्ट्रेप्टोकोकस एक्लैमिकिन्स नामक बैक्टीरिया को नष्ट करने का शक्ति के आधार पर मापी जाती है एवं लैक्टो बेसिलियस बलगैरिकस द्वारा बल्गैरिन नामक प्रति जैविकी उत्पन्न होते हैं। यह प्रति जैविकी नाइसिन स्ट्रेटोकोकस क्रिमोरिस बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। नाइसिन को प्रीजरवेटिव (सुरक्षादायक) खमीर यीस्ट एवं लेक्टो बेसिलस बैक्टीरिया की भी जैविक क्रियाओं को नष्ट कर देता है। दुग्ध पदार्थों में जीवाणु द्वारा उत्पन्न होने वाले जैसे स्ट्रैप्टोकोकस क्रिमोसिस डिप्लोकाक्सिन एवं लेक्टोबेसिलस एसिडोफिलम द्वारा एसिडोफिलिन नामक प्रतिजैविक उत्पन्न करता है।
दुग्ध उपयोग में नाइसिन के उपयोग:
1. दुग्ध एवं दुग्ध पदार्थों में विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया पाए जाते हैं, जिनमें जामन के रूपमें अत्यंत उपयुक्त बैक्टीरिया के समूह को लेक्टिक एसिड बैक्टीरिया कहते हैं। इसमें स्टेªटोकोकस लैक्टिस बैक्टीरिया एक एंटीबायोटिक नाइसिन उत्पन्न करता है, जो ग्राम पॉजिटिव बैक्टीरिया को नष्ट करता है।
2. स्विस चीज में गैस एवं प्रोइयानिक एसिड उत्पन्न करने के साथ-साथ नाइसिन उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है।
3. एडम एवं गोडा चीज बनाने में इस बैक्टीरिया का उपयोग किया जाता है, स्टवर एवं वांडर 1956
4. डिब्बों में बंद खाद्य पदार्थों में नाइसिन मिलाने से उनकी भंडारण क्षमता (शेल्फ लाइफ) बढ़ जाती है।
5. चॉकलेट एवं फ्लेवर्ड मिल्क में नाइसिन मिलाने से तलछट सेंडिमेट नहीं बनता है एवं उच्च ताप सहने वाले जीवाणु थर्मोफिलिक बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं, हैनिमेन 1964
6. क्रीम में नाइसिन मिलाने से कुक्ड फ्लेवर नहीं आती है।
7. इवापोरेटेड मिल्क में नाइसिन मिलाने से उबालने में समय कम लगता है, जिससे विटामिन बी-6 एवं बी-12 थायमिन जैसे विशिष्ट तत्व नष्ट नहीं होते हैं। साथ ही प्रोटीन की सुपाच्यता भी बनी रहती है।
नासिन का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: स्वास्थ्य की दृष्टि से नाइसिन अत्यंत सुरक्षित है:
1. दूसरे एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की तरह नाइसिन कभी भी मनुष्य में संवेदनाएं एवं रोग उत्पन्न नहीं करता।
2. वह मनुष्य की आंत में सरलतापूर्वक नष्ट हो जाता है। अतः आंत एवं ग्रास नली के जीवाणुओं को नष्ट न करके पाचन क्षमता को बिलकुल प्रभावित नहीं करता है।
3. जब नाइसिन किसी भोज्य पदार्थ में मिलाया जाता है तो एक मिनट तक वह पूर्वावस्था में बिना किसी परिवर्तन के पड़ा रहता है। इतना कम समय किसी भी तरह के जीवाणु के समूह को बिल्कुल प्रभावित नहीं करता है, जिससे ग्रास नली एवं अमाशय में पाए जाने वाले जीवाणुओं में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
4. नाइसिन युक्त पैक्ड खोवा एवं चीज की भंडारण क्षमता बिना किसी तत्व में परिवर्तन लाए हुए सफल सिद्ध हुई है। नाइसिन युक्त चीज 30 सें.ग्रे. पर 90 दिन तक सुरक्षित रहता है, जबकि बिना नाइसिन के 30 दिनों में ही खराब हो जाता है।
5. यदि खोवा में 100 आरयू नाइसिन मिलाया जाए तो खोवा की भंडारण अवधि 10 सें.ग्रे. पर करीब एक माह 25-30 से.ग्रे. पर दो सप्ताह बढ़ जाती है।
6. उच्च ताप पर एनएरोबिक स्पोर फारमर्स को नष्ट करने में नाइसिन बहुत सहायक है।
7. यह निम्न ताप पर 10 सें.ग्रे. पर कवक एवं खमीर को नष्ट करने में सहायक है।
8. नाइसिन एक ऐसा प्रतिजैविक है, जो दुग्ध उद्योग एवं पदार्थों के निर्माण में एवं भंडारण में अत्यन्त सहायक है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।