कांटा-रहित कैक्टस किसानों की आय बढ़ाने में मददगार Publish Date : 18/08/2023
कांटा-रहित कैक्टस किसानों की आय बढ़ाने में मददगार
केन्द्र सरकार, किसानों की आय में वृद्वि करने के लिए परम्परागत कृषि में सहयोग करने के साथ ही उनके लिए नई राहों को भी प्रशस्त कर रही है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के द्वारा इस प्रकार की फसलों पर भी काम किया जा रहा है, जो कि न केवल परती भूमि की उवर्रा शक्ति को बढ़ाने में सक्षम होंगी अपितु यह किसानों की आय को बढ़ाने में भी मददगार साबित होंगी।
ऐसी ही एक खेती है कांटा रहित कैक्टस की खेती, जिसके फल का उपयोग खाने के लिए किया जाता है और इसके साथ ही यह बायोफर्टिलाइजर एवं बायो ऊर्जा के काम भी आता है। केन्द्र सरकार के द्वारा वाटरशेड योजना के अन्तर्गत कैक्टस प्रोजेक्ट का संचालन भी यिा जा रहा है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायतराज मंत्री गिरिराज सिंह ने बताया कि कैक्टस प्रोजेक्ट के लिए सरकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे संस्थान ‘‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च इन द ड्रॉय लैण्ड एरियाज (इकार्डा)’’ के साथ मिलकर काम कर रही है। फिलहाल प्रयोग के तौर पर कैक्टस (कांटारहित) की खेती जोधपुर, बीकानेर एवं झाँसी आदि जिलों में करवा कर देखी जा चुकी है। और अब लगभग 500 हेक्टेयर भूमि पर राजस्थान राज्य में ही कराने की योजना है।
केन्द्रीय मंत्री ने बताया कि कांटा-रहित कैक्टस की खेती परती भूमि (शुष्क अथवा अर्धशुष्क) जैसी भूमियों पर ही की जाती है। अपने प्रयोग के आधार पर वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि कांटा रहित कैटस की खेती करने के बहुत से लाभ होने के साथ ही इसकी खेती करने से किसानों की आय में भी बढ़ोत्तरी होगी।
असलियत में चिली, ब्राजील और मोरक्को जैसे अनेक देशों में कांटा रहित कैक्टस का प्रयोग फल के रूप में खाने के लिए किया जाता है और इसके अतिरिक्त इसका उपयोग बॉयो ऊर्जा बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इस क्ैक्टस में 50 से 93 प्रतिशत तक मीथेन गैस उपलब्ध होती है। कांटा रहित कैक्टस का एक व्यस्क पौधा 1900 कि.ग्रा. कार्बन अवशोषित कर उसे धरती के अन्दर पहुँचा देता है। कांटा रहित कैक्टस की खेती करने से लगभग 05 वर्षों में ही परती भूमियों की उवर्रा शक्ति बढ़ जाती है। इसके साथ ही कांटा रहित कैक्टस में आठ प्रतिशत मात्रा पोटाश की भी उपलब्ध रहती है।
वहीं केन्द्रीय मंत्री ने बताया कि बॉयो तरल फर्टिलाईजर बनाने के लिए लिए इसका उपयोग बिलकुल उपयुक्त रहता है।
अब कृषि उत्पादों का भी निर्यत हो सकेगा
किसी समय खाद्यान्नों के मामले में आयात पर निर्भर रहने वाला भारत, आज कृषि उत्पादों के मामले में केवल आत्मनिर्भर ही नही, अपितु वह आज अपनी विभिन्न जिंसों का निर्यात भी कर रहा है। कृषि वैज्ञानिक नार्मन बोरलॉग एवं एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में वर्ष 1965-66 में ‘‘हरित क्रॉन्ति’’ का आगाज हुआ, जिससे कृषि के उत्पादन क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्वि हुई।
भारतीय कृषि उत्पादन के मामले में कुछ तथ्यः
- वर्ष 1950-51 भारत में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता मात्र 399.7 ग्राम प्रति दिन हुआ करती थी।
- वर्तमान समय में 512.5 ग्राम प्रति दिन, प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता है।
दुग्ध उत्पादन के मामले में भारत प्रथम पायदान पर
अमूल दूध के संस्थापक वर्गीज कुरियन ने भारत में ऑपरेशन फ्लड का आरम्भ किया था, जिसे श्वेत क्रॉन्ति के नाम से भी जाना जाता है। इसी श्वेत क्रॉन्ति की बदौलत भारत, वर्ष 1998 में अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन गया। द यूएसए डिपार्टमेन्ट ऑफ एग्रीकल्चर के अनुसार, वर्ष 2021 में भारत ने 19.9 टन करोड़ दुग्ध उत्पादन किया। श्वेत क्रॉन्ति के चलते ही हम आज न केवल दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देश हैं, अपितु दूध के कुल वैश्विक उत्पादन में 20 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी भी रखते हैं।
वन संरक्षण के माध्यम से ही भविष्य होगा सुरक्षित
‘‘वनों का वैज्ञानिक विधि से रखरवााव करना, लोगों की भोजन, ईंधन और वनोत्पाद सम्बन्धी आवश्यकताओं को संतुलित करता है’’।
भारतीय वन एवंज लवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा पिछले दिनों वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन और नए दृष्टिकोण विकसित करने के लिए एक राष्ट्रीय कार्य-योजना कोड-2023 जारी किया गया। पर्यावरण की स्थिरता के लिए वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन की योजना बनाना अपने आप में महतवपूर्ण है। वनों का वैज्ञानिक रखरखाव न केवल हमारी जनसंख्या के लिए भोजन, ईधन और वनोत्पाद से सम्बन्धित आवश्यताओं की पूर्ति करने में सहायता करता है और निकट अवधि के दौरान राष्ट्र के लिए लाभदायक स्थिति तैयार करता है और वनों की दीर्घकालिक स्वास्थ्य की स्थिति को भी सुनिश्चित् करता है। यह जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी संतुलन को संरक्षित करते हुए यह देश में व्याप्त गरीबी और जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न नकारात्मक प्रभावों का हल भी कर सकता है। पहली बार राष्ट्रीय कार्य योजना संहिता-2023 के माध्यम से राज्यों के वन विभागों को इनका निरंतर डाटा संग्रहण कर इसे एक केन्छीयकृत के साथ अद्यतन करने के लिए निधारित किया है। वनों के प्रबन्धन को एकरूपता प्रदान करने के प्रयास करते हुए देश में विविध वन पारिस्थितिकी प्रजातियों को भी ध्यान में रखा जाता है।
वनों के विकास हेतु विकसा एवं संरक्षण के मध्य संतुलन का होना भी आवश्यक है। वनों की कटाई, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन आदि कारणों के दबाव में पारिस्थितिकी तन्त्र के साथ ही एक बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाना भी आवश्यक है। सबसे पहले वनों की कटाई विरोधी कानूनों का कड़ाई के साथ क्रियान्वयन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही वनवन प्रबन्धन में स्थानीय समुदाय को शामिल करने से उनके स्वामित्व की भावना को प्रोत्साहन प्राप्त होता है और अतिक्रमण को भी यह हतोत्साहित करता है। टिकाऊ वानिकी प्रणाली, वनों की चयनात्मक कटाई और पुनर्वनीकरण को बढ़ावा प्रदान कर नवीकरणीय संसाधन (इमारती लकड़ी) की आपूर्ति को सुनिश्चित् किया जा सकता है।
इकोटूरिज्म पर्यावरणीय चेतना को बढ़ावा देते हुए आर्थिक विकास का अवसर भी प्रदान कर सकता है। देश के विभिन्न जनजातीय समुदाय ईको-लॉज और ट्रेल्स का गठन कर लोगों में प्रकृति के प्रति सम्मान को वृद्वि प्रदान करते हुए यहाँ आने वाले आग्रतुकों की आमद के चलते लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त वनों के अनुसंधान-समर्थित संरक्षण प्रयास भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते है। स्थानीय प्रजातियों के संरक्षण, उनके आवास की बहाली और विभिन्न आक्रमक प्रजातियों से निपटने पर ध्यान केन्द्रित करते हुए भी जैव-विविधता को पुनसर््थापित किया जा सकता है। बड़े पैमानें पर दावाग्नि को रोकने के लिए पारम्परिक और आधुनिक दोनों ही तकनीकों का नियोजन करते हुए जंगल की आग को रोकने की रणनीतियों पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाना आवश्यक है। वनों की होने वाली अवैध कटाई के विरूद्व विभिन्न प्रकार की औषधीय जड़ी-बूटियों और हस्तशिल्प सुरक्षा उपयों के साथ स्वदेशी आजीविका का विकास होना भी जरूरी है। राष्ट्रीय योजना में पारिस्थितिकी तंत्र को ध्यान में रखते हुए उन्हें एकरूपता प्रदान करने का प्रयास किया जाए तो हमारे वनों के क्षेत्र में निरंतर विस्तार ही होगा।